छन्द-संसार
कुण्डलिया छन्द
धरती अति प्यासी कहीं, कहीं वृष्टि घनघोर।
लिए हाथ आरी खड़ा, मानव जंगलखोर।
मानव जंगलखोर, साफ वन के वन करता।
क्या होगा अंजाम, संतुलन रोज बिगड़ता।।
पुष्प खो रहे गंध, लताएँ आहें भरती।
पंछी नीड़ विहीन, हो गयी बंजर धरती।।
***********************
नदिया होती संकुचित, जीना हुआ मुहाल।
ठूंठ खडे जंगल सभी, मनु से करें सवाल।।
मनु से करें सवाल, मिटाते क्यों कुदरत को?
बादल करे बवाल, नहीं बरसाते जल को!
पुष्प कहे भगवान, बनायी कैसी दुनिया।
सिसके जंगल झाड़, सिसकती बहती नदिया।
***********************
गौरैया दिखती कहाँ, काँव-काँव कह काग।
गोधूली बेला कहाँ, वाह भोर का भाग।।
वाह भोर का भाग, कृतिम सारी खुशहाली।
मानव जंगलखोर, खा गया तरु हरियाली।।
बूँद-बूँद को आज, तरसते ग्वाले गैया।
रही धरातल नाप, भटकती है गौरैया।।
***********************
पिघल रहा हिमखंड है, बढ़ा धरा का ताप।
मानव अज्ञानी बना, धरती करे अलाप।।
धरती करे अलाप, प्यास अब कौन बुझाये।
सूखे सरि नलकूप, विश्व को कौन बचाये।
जीना है दुश्वार, रो रहा मानव पल-पल।।
जल विहीन है विश्व , रहा हिमखंड पिघल।।
***********************
बहती नदिया कह रही, मानव रहो सचेत।
कल-कल कल-कल जो बही, नदी आज वो रेत।।
नदी आज वो रेत, आईना हमें दिखाती।
बूँद-बूँद अनमोल, बचाओ यह बतलाती।
होगा जब आकाल, और यह सूखी धरती।
पछताओगे आप, नदी अब सबसे कहती।।
– पुष्प लता शर्मा