छन्द-संसार
कुण्डलिया छन्द
ग्राम्य–स्मृति
मन में यादें गाँव की, जैसे इक चलचित्र।
होंगे अब किस हाल में, बचपन के वे मित्र।
बचपन के वे मित्र, याद जब मुझको आते।
नैनों के दो थाल, मोतियों से भर जाते।
जीवन की बुनियाद, गाँव में बीता बचपन।
बीते कल की देन, आज का संस्कारित मन।।
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सीधी-सादी ज़िंदगी, भोले-भाले लोग।
युगों-युगों से गाँव में, घोर ग़रीबी-रोग।
घोर ग़रीबी-रोग, झेलकर भी ख़ुश रहते।
मन में धर संतोष, बदनसीबी को सहते।
कष्टों के अभ्यस्त, अभावों के हैं आदी।
ग्रामीणों की पीर, कहानी सीधी-सादी।।
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पुरखों के उस गाँव में, पुश्तैनी दालान।
खाट बिछाकर बैठते, कहलाते धनवान।।
कहलाते धनवान, भाग्य पर हम इतराते।
चबूतरे पर बैठ, बटोही से बतियाते।
सूनी है चौपाल, बिना तकली, चरखों के।
भूल गये संस्कार, हुनर भूले पुरखों के।।
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पीपल की वो डालियाँ, बरगद की वो छाँव।
शीतल-सुखकर जेठ में, अमराई की ठाँव।।
अमराई की ठाँव, ताप हर लेती मन का।
और सखा-सा नीम, संतरी घर-आँगन का।
शीशम, बेर, बबूल, खेजड़ी ,गूँदे, कटहल।
पल-पल आते याद, घनेरे बरगद-पीपल।।
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साँझ-सुहानी आरती, झालर, घंटी, शंख।
मंदिर के उस चौक में, कबूतरों के पंख।।
कबूतरों के पंख, बीनते भोले बालक।
चिड़िया, तोते, मोर, रामजी सबके पालक।
याचक पाते भीख, परेवे दाना पानी।
तन-मन का विश्राम, गाँव की साँझ-सुहानी।।
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वो इक निर्जन बावड़ी, वो जूना तालाब।
बच्चों के खँडहर सभी, क्रीड़ास्थल नायाब।।
क्रीड़ास्थल नायाब, खेल भी नये-निराले।
सरकंडों को छील, बनाते बरछी-भाले।
सितौलियों की धूम, कबड्डी, कुश्ती, खो-खो।
फिर मिल जाए काश, सुहाना-सा बचपन वो।।
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जमघट वो चौपाल का, पनघट की वो भीर।
हँसी-ठहाके बतकही, बँट जाती थी पीर।।
बँट जाती थी पीर, और सुख बढ़ जाता था।
इक-दूजे के काम, गाँव सारा आता था।
साझा सबका दर्द, एकजुट होते झटपट।
खेल-तमाशे-पर्व, ख़ुशी हो या ग़म–जमघट।।
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आँगन के वो माँडने, साँझी वो अभिराम।
लोककलाएँ गाँव की, ख़ूब कमाती नाम।।
ख़ूब कमाती नाम, विदेशों तक थी जाती।
खाली रहता पेट, निराशा अब है छाती।
गीत-नृत्य-संगीत, उपेक्षित हैं बिन साधन।
अगर मिले पहचान, ग़रीबी छोड़े आँगन।।
– ख़ुर्शीद खैराड़ी