जो दिल कहे!
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी!
भारतीय सभ्यता और संस्कृति की अस्मिता पर के प्रति सम्मान जाहिर करते हुए उर्दू के महाकवि एवं दार्शनिक डॉ. इकबाल ने ठीक ही कहा है –
‘यूनान मिश्र रोमां सब मिट गए जहां से
अब तक मगर है बाकीं नामों निशा हमारा।
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी
सदियों रहा है दुश्मन दौर- ए- जमा हमारा’।।
अस्मिता का मुलभुत कारण इसका अक्षर ज्ञान भण्डार रहा है। जब विश्व की सारी सभ्यताएं वास्तुकला के क्षेत्र में उच्चतम शिखर पर गयीं, तब हम ऋग्वेद लिख रहे थे। तब से आज तक सभी चिंतकों, दार्शनिकों, शिक्षाविदों, राजनीतिज्ञों, समाज संरचना करने वाले कवियों, लेखकों और महँ पुरुषों ने राष्ट्रिय भावात्मक एकता, सांस्कृतिक सह्बोध, परस्पर प्रेम और सहयोग,सर्वधर्मसमभाव,सामाजिक न्याय तथा समानता, सतत संचरणशीलता, शंतोपूर्ण सह- अस्तित्व, साम्प्रदायिक तथा सार्वभौमिक सद्भाव और स्वस्थ तथा सकारात्मक समन्वय भावना को प्रेरक और पोषक तत्व का आधार बना इस भूमि को अपनी वनियों से सीचा है।
‘सत्यम शिवम् सुन्दरम’ सृजन के पोषक तत्व हैं। समाज शारीर है तो सहित्य आत्मा, जो गीता-दर्शन के अनुसार ‘अमर’ है। जो समाज एवं राष्ट्र ‘पर कल्याण’ की भावना और ‘बहुजन हिताय बहुजन सुखाय’ का लक्ष्य प्राप्त करता रहता है, वही गतिशील है। संकीर्णतावादी विचारों में डूबी सभ्यता स्वतः नष्ट हो जाती है।
प्रसिद्द इतिहासकार डॉ अर्नाल्ड तायांवी ने विश्व की २७ सभ्यताओं के अद्ध्यायाँ के पश्चात यह निष्कर्ष निकला है कि जो सभ्यताएं भोगवादी और संकिर्न्वादी रही है, उनका नामोनिशान मिट गया। भारत ‘ वसुधैव कुटुम्बकम’ एवं ‘एकैव मानुशि जाति:’ की भावना में जीवन-रस प्राप्त करने वाला राष्ट्र रहा है।
महाकवि टैगोर ने भारत के ऋषि मुनियों द्वारा रखे गए मूल आदर्शों की सभ्यता और शक्ति से प्रेरित होकर कहा था – ‘ हे भारत भूमि ! सारा विश्व होता है तुमसे हर्षित/ तेरे ही तपोवनों से उठे थे पवन गीतों के स्वर/ तेरी ही उषा से फैली थी पहली ज्ञान किरण/ महान विचार और कर्मों ने महावाक्यों में पाए थे स्वर’। वे कहते थे भारत ने अपने उथल-पुथल के युगों में अपने ऋषि -संतों की गान पूर्ण चेतना से उपजे जीवंत शब्दों को सहेज कर रखा है।
टैगौर ने कहा था कि वे भारत से प्रेम इसलिए करते हैं कि इसकी परंपरा की नीव सार्वभौमिक सत्य पर आधारित है और जब-जब भारत पर संकट आया ‘अत्तदिपो भवः’ उद्दीप्त वाणियों ने उसे उबारा और अक्षुण बनाये रखा। “रिलिजन ऑफ़ मैन” में उन्होंने लिखा है- “मैं भारत को एक भोगोलिक इकाई नहीं मानता हूँ। मेरे लिए भारत एक आध्यात्मिक चेतनासंपन्न है। यह मानव के अतीन्द्रिय अस्तित्व में आस्था की भावना है जिसके आगे सभी भौतिक समृद्धियाँ नगण्य हैं। अपना सब कुछ खो देने के उपरांत भी भारत इस भावना को अपनाये निरंतर खड़ा है। यह एक ऐसी गरिमा है, जिसके आधार पर उज्जवल भविष्य की कामना कर सकता है।
पूर्व राष्ट्रपति शंकरदयाल शर्मा ने भी एक जगह कहा है – ‘….हमारे देश का प्राचीन चिंतन तथा प्राचीन संस्कृति अत्यंत प्रगतिशील एवं समृद्ध रही है। हमारे देश में अनेक चिन्तक, साधक तथा महापुरुष हुए। उन सभी ने युग को गहराई से देखा, समझा फिर चिंतन के शब्द दिए। उन सभी के चिंतन के मूल में सतवादी सामाजिक व्यवस्था की स्थापना की भावना थी।
हमने जगठित की बात की और ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वेषा शंतिभवार्तु, सर्वेंसा मंगलम भवतु-लोकः समस्तः सुखिनः भवन्तु’ आदि कहकर विश्वमंगल की कमाना की। ये चिंतन सार्वभौमिक और कल्याण की भावना से ओत-प्रोत थे। सच तो ये है कि इस देश की सीमाएं राजवंशों ने नहीं बांधी, एक कवि ने बाँधी, जिसका नाम था व्यास। भारत के नाद थे – बाल्मीकि, व्यास और कालिदास। व्यास ने ही भारत को प्राणरूप और चेतना प्रदान की थी। कवि प्रसाद के शब्दों में यह अनूठा देश है – ‘अरुण यह मधुमय देश हमारा, जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा’। भारत विचारों के विलय का देश है।(आनो भद्रा क्रतवो यन्तु विश्वतः – ऋग्वेद)
भारत सहिष्णु देश रहा है। ‘सहिष्णुता’ का अर्थ रचनात्मक समन्वय प्रक्रिया है। भारत की सभ्यता के इतिहास में यह परिलक्षित होता है। इस देश में ज्ञान के अर्जन-प्रसार पर जोर दिया जाता रहा है। भारत विभिन्न देशों से व्यापारियों और ज्ञान पिपासुओं को आकृष्ट करता रहा है।ज्ञान के इस विलयन के कारण पूर्व और पश्चिम के ज्ञान का मिलन से सभ्यता समृद्ध होती गयी और भारत ज्ञान का समृद्ध केंद्र बन गया। नालंदा, विक्रमशिला और तक्षशिला विश्वविद्यलय अन्तराष्ट्रीय ख्याति का केंद्र बन गए, जिनसे भारतीय ज्ञान और अन्य देशों की सभ्यताओं में समन्वय स्थापित हुई। इसी विलय को देखकर महाकवि टैगौर ने लिखा- ‘आओ आर्य लोगों/आओ तुम गैर आर्य लोगों/ आओ तुम हिन्दुओं/ आओ तुम मुस्लिमों/ और आज तुम आओ अंग्रेजों/ और आओ तुम ईसाईयों/ आओ तुम ब्राहमणों/ और अपने दिल को शुद्ध करो/ और बाकि सब लोगों के हाँथ थाम लो’।
हमारी सभ्यता में सहिष्णुता का यह तात्विक मूल हमारे सबसे प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद में परिलक्षित है। ‘एकम सद विप्र बहुदा वदन्ति’।(सत्य एक है, विद्धवान लोग इसे अलग-अलगविभिन्न नामों से बोलते हैं) । मौर्य सम्राट अशोक ने अपने शासन में रहने वाले विभिन्न समुदायों को सशक्त समुदाय बनाने के लिए एक सक्रीय सहिष्णुता की नीति बनाई जो मानव इतिहास में विलक्षण है। सहिष्णुता के बारे में अशोक के शिलालेखों का मुख्य सन्देश था – ‘समवाय एव साधु:’ (धर्म में समवाय ही सुध्ह दृष्टिकोण है)।
स्वामी विवेकानंद ने मनुष्य में मानवता की भावना जगाई। उन्होंने ‘विश्वधर्म’ की बात कही। उन्होंने कहा- ‘भारत ने सभी धर्मों के अनुयायियों को शरण देकर सह अस्तित्वा में जीना सिखा है- यदि कभी कोई सार्वभौमिक धर्म होना है, तो किसी देश या काल से सीमाबद्ध नहीं होगा; वह उस असीम इश्वर के सदृश ही असीम होगा, जिसका वह उपदेश देगा; जिसका सूर्य, कृष्ण और ईशा के अनुयायियों पर, संतों पर और पापियों पर्समान रूप से प्रकाश विकीर्ण करेगा; जो न तो ब्राहमण होगा, न बौद्ध, न ईसाई और न इस्लाम, वरन इन सबकी समिष्ट होगा, किन्तु फिर भी जिसमे विकास के लिए अनंत अवकास होगा; जो इत्नौदार होगा कि पाशों के स्तर किंचित उन्नत निम्नतम घ्रीनित जंगली मनुष्य से लेकर अपने ह्रदय और मस्तिष्क के गुणों के कारण मानवता से ऊपर उठ गए उच्चतम मनुष्य तक को स्थान दे सकेगा। विवेकानंद ने जो विश्वधर्म या सार्वभौमिक धर्म की बात बताई, वह वेदांत की वाणी पर आधारित थी।
एक पर एक पैगम्बर आते गए। हम उनके विचारों के साथ रहते गए। पैगम्बर मुह्हमद हजरत और जेसस क्राईस्ट, बुद्ध, महावीर, रामकृष्ण सभी के विचारों से हम मार्गदर्शन लेकर सह अस्तित्व में जीते रहे।
अंत में महात्मा गांधी ने ‘सत्य’ को ही इश्वर मन और अहिंसा के मार्ग से प्राप्त होने की बात कही। गाँधी जी जैनधर्म के अनेकांतवाद का अनुमोदन करते थे और सभी सत्यों का उतना ही आदर करते थे। ‘सर्वधर्म समभाव’ को उन्होंने जीवन में उतरा और भारत के जनमानस में प्रयोग किया। भारत में इसका जीवंत तस्वीर स्पष्ट दिखाई पड़ती है।
हमने धर्म और ईश्वर की व्याख्या ‘शिवोः हम अहम् ब्रहमासि तत्वमशि, ‘परहित सरिस धर्म नहीं भाई’, ‘जीव सेवा शिव सेवा’, ‘वैष्णव जन को तेने कहिये, जो पीड परायी जाने रे’, ‘परोपकाराय पुण्याय, पापाय परपीड़नम- (सत्यनारायण दर्शन) दरिद्रनारायण में, ‘आभारो प्रथमोधार्मः’, ‘द्ध्हो पिता माता पृथ्वीया:’, ‘मातृदेवो भवः’, ‘पितृदेवो भवः’, ‘आचार्य देवोभवः’, ‘सत्यंवद धर्मचर’ जैसे महावाक्यों से ही किया और धर्म- ग्रंथों का सार माना। सूफी संतों ने ‘प्रेम, करुणा, दया’ के संगम को ही धर्म माना और ‘महजब नहीं सिखाता आपस में वैर रखना’ को आत्मसात करते रहे।
दार्शनिक विद्द्वान अर्नाल्ड त्ताय्न्वे के विचार के अनुसार चिरंतन सत्य की नीव पर भारतीय सभ्यता-संस्कृति खडी है। उनका कहना था – ‘मानव इतिहास के इस अत्यंत भयावह क्षण में केवल भारतीय विचारधारा ही मानव जाति की मुक्ति का एकमात्र मार्ग है। इसमें एक प्रकार का रुझान और भावना है कि जिसमें पूरी मानव जाति को एक ‘कुटुंब’ के रूप में विकसित करना संभव हो सकता है।
दिनकर ने कहा था – ‘भारत नहीं स्थान का, वाचाकगुण विशेष नर का है/ एक देश का नहीं शील यह भूमंडल भर का है/ धर्म दीप हो जिसको भी कर में, वह नर तेरा है।
और अंत में इन चिंतकों की बातो से अपने विचारों की पुष्टि करना चाहूँगा, मसलन मेक्स्मुलर ने कहा था –‘ अगर मुझसे पूछा जाये कि किस देश के आकाश के नीचे मानवीय मस्तिष्क का अनुपम विकास हुआ है, जीवन की महानतम ‘समस्याओं’ पर सर्वाधिक विचार और मनन हुआ है, तो मैं कहूँगा कि वह देश “भारत” है।
प्रो मैक….. के विचार में ‘भारतीय साहित्य एवं संस्कृति का महत्व उनकी मौलिकता में है। जब यूनानियों ने ईसा के चार सौ वर्ष पूर्व उत्त-पश्चिम में आक्रमण किये, तब तक भारतियों ने अपनी संस्कृति को स्थिर कर ली थी।
रोम्या रोलां के शब्दों में ‘ मनुष्य ने जबसे अस्तित्व का प्रश्न देखा है, उसे आदिम काल से आज तक उसके जितने भी सपने हैं, उन सभी को यदि पृथ्वी के किसी एक स्थान पर आश्रय मिला है तो वह भारतवर्ष है।
दलाई लामा ने कहा- ‘ हम भूल जाते हैं कि सभ्यता के बीज यूरोप में अंकुरित होने से पहले भारत में वह फली-फूली अवस्था में थी। भारत देवताओं की भूमि है, उसके पास समृद्ध सांस्कृतिक विरासत है।
इन सब बातों से स्पष्ट है- भारत की अस्मिता अक्षुण्य बनाने में समय-समय पर चिंतकों की विचारधारा की ही अहम् भूमिका रही है। इस चिंतन में संप्रदायीक सद्भाव, सार्वभौम भावात्मक एकता, मानव मात्र के मंगल की कामना विश्वशांति एवं विश्वमैत्री की भावनात्मक संवेदना स्पंदित है। इसका मूल स्त्रोत ‘अमर’ और ‘अक्षय’ वैदिक वांग्मय साहित्य ही रहा है और संकट से उबारने में इसकी ‘आध्यात्मिक उर्वरक भूमि’ की अभूतपूर्व भूमिका रही है – “चरैवेति चरैवेति क्रिवान्तो विश्व आर्यम”।
– नीरज कृष्ण