छंद-संसार
कुंडलिया छंद
माता तम मन का हरो, दूर करो अज्ञान।
सत्य सदा मैं लिख सकूँ, ऐसा दो वरदान।।
ऐसा दो वरदान, ज्ञान की ज्योति जलाकर।
सत-पथ पर हों पाँव, समय से ताल मिलाकर।
‘अमन’ खड़ा कर जोड़, नहीं कुछ मन को भाता।
दो साहित्यिक ज्ञान, हरो तम मन का माता।।
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जंगल-जंगल फिर रहे, कितने संत महान।
ईश्वर के दरबार के, मालिक हैं शैतान।।
मालिक हैं शैतान, धर्म है इनका धंधा।
बेचे ये भगवान, खरीदे तुम-सा अंधा।
‘अमन’ कह रहा आज, तभी तक इनका मंगल।
जब तक संत महान, फिर रहे जंगल-जंगल।।
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प्राण! तुम्हारी याद में, दिल है बहुत उदास।
नैनों से सावन झरे, फिर भी मन में प्यास।।
फिर भी मन में प्यास, काटती है तन्हाई।
तड़पूं सारी रात, सही न जाए जुदाई।।
लौट न आओ पास, खिले मन की फुलवारी।
निश दिन करती याद, साजना, प्राण! तुम्हारी।।
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जागी-जागी आँख है, सोई-सोई रात।
सन्नाटा सुनता प्रिये! मुझसे तेरी बात।।
मुझसे तेरी बात, पीर जो मुझे रुलातीl
विरहा की यह आग, हाय! तन-मन दहकाती।।
कहत ‘अमन’ कविराय, प्रीत जबसे है लागी।
तब से ही हर रात, बीतती जागी-जागी।।
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जब-जब वो देखे मुझे, करे करारे वार।
होती सबसे तेज है, नैनों की ही धार।।
नैनों की ही धार, कराती बड़ी कयामत।
नैन हुए यदि चार, समझ फिर आई आफत।।
कहत ‘अमन’ कविराय, प्रेम है जगता तब-तब।
प्रेमी-युगल के नैन, सखे! जुड़ते हैं जब-जब।।
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चंचल मन की तू कुड़ी, बच्चों-सी मासूम।
हुआ तुझे भी प्रेम है, तभी रही तू झूम।।
तभी रही तू झूम, गाल से टपके लाली।
अधर भले ख़ामोश, बोलती बिंदिया-बाली।
होता है यह प्रेम, जगत में सबसे निश्छल।
पा भावों का ज्वार, हृदय होता है चंचल।।
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खाली बर्तन देख कर, बच्चा हुआ उदास।
फिर भी माँ से कह रहा, भूख न मुझको प्यास।।
भूख न मुझको प्यास, कह रहा सुन री माता।
होती मुझको भूख, माँग खुद भोजन खाता।।
कहे ‘अमन’ कविराय, बहुत माँ भोली-भाली।
नहीं जानती लाल, देखता बर्तन खाली।।
– अमन चाँदपुरी