छन्द-संसार
कुंडलियाँ
नारी कल भी देह थी, नारी अब भी देह।
होगा शायद आपको, मुझे नहीं सन्देह।
मुझे नहीं संदेह, राह जिससे भी गुजरे।
लोग मापते देह, सजे बेशक न सँवरे।
कहती है सुधि सत्य, मान की जो अधिकारी।
होती बाहर रोज़, घरों में शोषित नारी।।
उजली-उजली हर दिशा, खिली-खिली सी धूप।
बारिश के पश्चात क्या, सुंदर भू का रूप।
सुंदर भू का रूप, वसुधा है आल्हादित।
जीव-जंतु, हर वृक्ष, सभी हैं गौरवान्वित।
कहते हैं सुधि रूप, निखर कर आता असली।
हट जाती है धूल, प्रकृति लगती उजली।।
रहता है संकल्प का, एक क्षणिक आवेश।
मिले शिथिलता राह में, धरकर नाना वेश।
धरकर नाना वेश, मार्ग से वह भटकाती।
स्थित जो मन में जोश, उसे हमसे हथियाती।
कहती है सुधि सत्य, रहे मन में यदि दृढ़ता।
तब कोई संकल्प, हमारे सँग बस रहता।।
शातिर फ़ितरत के जिन्हें, मक्कारी का रोग।
गली-गली में आज कल, मिलते ऐसे लोग।
मिलते ऐसे लोग, चैन औरों का खलता।
टपके मुख से शहद, ज़हर उनके दिल पलता।
कहती है सुधि सत्य, योजनाओं में माहिर।
रहना उनसे दूर, शान्ति हर लेंगे शातिर।।
होते हैं रिश्ते वही, वही राह, हम आप।
वक्त बदल देता नजर, और भाव चुपचाप।
और भाव चुपचाप, समय की महिमा तगड़ी।
मिले किसी को राज, किसी की उछले पगड़ी।
कहती है सुधि सत्य, भाग्य पर कोई रोते।
बड़े-बड़े बदलाव, जगत में पल में होते।
लालन पालन से उसे, दो सुदृढ आधार।
बिटिया ताकि कर सके, स्वप्न सभी साकार।
स्वप्न सभी साकार, आस का रँग पकड़ाओ।
रँग देगी आकाश, देख हर्षित हो जाओ।
कहती है सुधि सत्य, भरे खुशियों से प्रांगण।
ऐसी दो मजबूत, नींव कर लालन-पालन।।
चाहत यही मनुष्य की, हो निज घर संपन्न।
धन-दौलत से भरा रहे, प्रचुर रहे जल अन्न।
प्रचुर रहे जल अन्न, दीर्घ यदि दिल है उसका।
दया भाव, उपकार, बने सहयोगी सबका।
कहती है सुधि सत्य, मदद की यदि है आदत।
करती है तब पूर्ण, प्रकृति हर दिल की चाहत।।
– तारकेश्वरी तरु सुधि