आलेख
किन्नर समाज: सम्मान की दरकार- वंदना शर्मा
‘किन्नर’ नाम सुनते ही एक लज्जा का भाव हमारे दिमाग में आ जाता है। लेखन तो दूर, नाम लेने मात्र से भी लोग कतराते हैं। शायद आपने भी यह भाव कभी महसूस किया हो! ‘किन्नर’ शब्द सुनते ही हमारे मस्तिष्क में एक मनोग्रंथि बन जाती है और हम शर्म महसूस करने लगते हैं। ‘किन्नर’ शब्द को मैंने इसीलिए विशेष जोर देकर कहा ताकि आपका ध्यान आकर्षित हो सके और आप इस शब्द के परे जाकर इनके लिए सोचने और समझने की दृष्टि उत्पन्न कर सकें। किन्नर समाज, जिसके साथ बिल्कुल उपेक्षित-सा व्यवहार किया जाता है; उपहास उड़ाया जाता है, उसको आज सम्मान की दरकार है। वे आम आदमी की तरह जीने का अधिकार रखते हैं। आज उनकी व्यथा-कथा, समस्याएँ, उपेक्षा और तकलीफ से हमारे समाज को रू-ब-रू होने की आवश्यकता है। उनको भी समाज की मुख्य धारा, मुख्य समाज में रहने, जीने का अधिकार है। आज साहित्य उनकी पीड़ा की अभिव्यक्ति के लिए तरस रहा है, किंतु उसको उचित अभिव्यक्ति नहीं मिल पा रही है। किन्नर समाज को लेकर अभी तक कम ही लेखन हुआ है लेकिन जितना भी हुआ है, उसने साहित्य के प्रति हमारे दृष्टिकोण में खासा परिवर्तन किया है।
सामाजिक पूर्वाग्रह से युक्त हमारा तथा-कथित सभ्य समाज इस प्रजाति को हेय और घृणित दृष्टि से देखता है। ऐसे कई अवसर आते हैं, जब उन्हें उनके अधिकारों से वंचित रखा जाता है। चाहे विद्यालय हो, प्रशिक्षण संस्थान हो या फिर नौकरी देने की बात हो, उनके साथ उपेक्षित व्यवहार किया जाता है। हमारे गरिमामय भारतीय संविधान में इस बात का साफ-साफ उल्लेख है कि जाति, धर्म, लिंग के आधार पर नागरिकों के साथ भेदभाव नहीं किया जाएगा। लेकिन फिर भी इन लोगों के साथ यह भेदभाव क्यों किया जाता है।
लैंगिक दृष्टि से विवादित समाज के जो लोग प्राय: ‘हिजड़े’ कहकर बुलाये जाते हैं, वे जीवन जीने की कशमकश और ऊहापोह के बीच दर्दनाक जीवन गुज़ारने पर विवश हो जाते हैं। इनको समाज द्वारा परित्यक्त हिस्सा माना जाता है और उपहास किया जाता है जबकि उनके इस प्रकार जन्म लेने में उनका कदाचित दोष नहीं होता है। हिंदी कथा-साहित्य में इन पर अधिक मात्रा में लेखन कार्य नहीं हुआ है लेकिन जितना भी हुआ है उन सभी से इनको सम्मान की दरकार रही है। यह लोग भी अपनी मूलभूत आवश्यकताओं, अधिकारों और आम आदमी की तरह जीवन यापन करने की आकांक्षा रखते हैं। इनके आजीवन संघर्षरत रहने की व्यथा-कथा चित्रण करने वाले कुछ महत्त्वपूर्ण उपन्यासों की चर्चा मैं यहाँ करना चाहूँगी, जिनके माध्यम से लेखकों ने जो विषय अब तक शर्म का विषय समझा जाता था उसको प्रकाश में लाने का साहसिक कदम उठाया। इसी क्रम में महेंद्र भीष्म द्वारा लिखित ‘किन्नर कथा’, नीरजा माधव का ‘यमदीप’ प्रदीप सौरभ का ‘तीसरी ताली’ निर्मला भुराड़िया का ‘गुलाम मंडी’ चित्रा मुद्गल का ‘पोस्ट बॉक्स नं. 203 नाला सोपारा’ का नाम लिया जा सकता है।
इसी कड़ी में ‘किन्नर कथा’ किन्नर समाज की पीड़ा की पैरवी में लिखा गया उपन्यास प्रबुद्ध पाठक वर्ग का ध्यान आकर्षित करता है और किन्नरों को अपने सम्मान और अधिकारों के प्रति जागरूक करता है। इसमें समाज, परम्परा और खोखले मूल्यों पर एक साथ चोट करते हुए नवीन जीवन मूल्यों को अभिव्यक्ति प्रदान की गई है। ‘किन्नर कथा’ के माध्यम से किन्नरों की आह और वेदना की उपस्थिति दर्ज की गई है, जो अपने ही परिवार और समाज से निरंतर दुखों की पीड़ा झेलते रहते हैं। मानव समाज अपने चरम विकास के युग में प्रवेश करके स्वयं को गोरवान्वित अनुभव कर रहा है किंतु समाज का यह वर्ग अभी भी इस मुख्य धारा से जुड़ नहीं पा रहा है, इसके मूल में अनेक कारण विद्यमान हैं किंतु मूल कारण है जन सामान्य की इस वर्ग के प्रति हेय मानसिक अवधारणा। इस उपन्यास में राजघराने में जन्मी चंदा की कहानी है, जिसके किन्नर होने का पता चलने पर अपने ही पिता के द्वारा मरवाने का प्रयास किया जाता है। “उसके खानदान की साख को बट्टा न लगे, वंश में हिजड़ा बच्चा पैदा होने के कलंक से बच जाए। कुल की मर्यादा सुरक्षित रहे, वह सौंप दे अपनी बेटी को मृत्यु का ग्रास बनने के लिए।” उपन्यास के कथानक में अधूरी देह की पीड़ा, सामाजिक उपेक्षा, पारम्परिक एवं पारस्परिक संघर्ष, अवसाद एवं विद्वेष जैसे नकारात्मक भावों को दर्शाते हुए लेखक ने किन्नर समाज की कारुणिक कथा को अभिव्यक्ति देने का प्रयास किया है। शारीरिक रूप से यदि कोई विकलांग हो तो उसको इतना दंश नहीं झेलना पड़ता, जितना यौनिक रूप से विकलांग व्यक्ति को। इससे वह मानसिक और शारीरिक दोनों ही रूपों में हीन ग्रंथि का शिकार हो जाता है। इसमें किन्नरों की अनदेखी, अनसुनी पीड़ा की खुलकर अभिव्यक्ति हो पायी है।
हम इक्कीसवीं सदी के मशीनी युग में जी रहे हैं फिर भी अपनी परम्परागत धारणाओं और मान्यताओं से अपना पीछा नहीं छुड़ा पा रहे हैं। आज किन्नर समाज की अत्यंत दयनीय स्थिति के पीछे हाथ हमारे समाज का ही है, जो उन्हें चैन और सम्मान से जीने भी नहीं देता। समाज की वैचारिक मानसिकता किन्नरों के उत्थान कार्य के बारे में सोचने से भी हिचकिचाती है, नीरजा माधव ने ‘यमदीप’ में किन्नरों की सामाजिक स्थिति का यथार्थ चित्रण प्रस्तुत किया है, साथ ही इन्हें समाज की मुख्यधारा में बुनियादी हक देने का मुख्य रूप से प्रयास उपन्यास में किया गया है। किन्नर को सामाजिक, शारीरिक और मानसिक भेदभाव और शोषण से गुजरना पड़ता है। इस संवेदनशीलता की स्थिति ने इनकी स्थिति में और भी अधिक गिरावट उत्पन्न कर दी है। अपनी सामाजिक दृष्टि की सम्पन्नता और जागरूकता के बल पर ही लेखिका ने किन्नरों की यथार्थ स्थिति से पर्दा उठाया है। सामान्य आम आदमी को किन्नरों की तकलीफ से कोई लेना-देना नहीं है। उनका दिल किस प्रकार धड़कता है, कैसी भावनाओं की आकांक्षा करता है, इससे उन्हें कोई सरोकार नहीं है क्योंकि वह खुद सामान्य है और किन्नर असामान्य। किन्नर समाज अपनी जैविक असमानता को झेलता है, यदि माता-पिता ऐसी संतान को स्वीकार करना भी चाहें तो इसे हमारा समाज स्वीकार नहीं करने देता, यही सवाल ‘यमदीप’ में उठाया गया है। नंदरानी के माता-पिता उसे अपने पास रखना चाहते है, नंदरानी की माता उसे पढ़ा-लिखाकर अपने पैरों पर खड़ा करना चाहती है। नंदरानी की माँ के सामने महताब गुरु सवाल उठाते हैं कि “माता किसी स्कूल में आज तक हिजड़े को पढ़ते लिखते देखा है? किसी कुर्सी पर हिजड़ा बैठा है? मास्टरी में, पुलिस में, कलेक्टरी में– किसी में भी, अरे! इसकी दुनिया यही है माता जी कोई आगे नहीं आयेगा कि हिजड़ों को पढ़ाओ, लिखाओं, नौकरी दो जैसे कुछ जातियों के लिए सरकार कर रही है।”
ऐसे संवाद शायद किन्नरों के यथार्थ जीवन पर प्रकाश डाल रहे हैं। उपन्यास में कहीं-कहीं किन्नरों से डर संबंधी संवादों को भी उभारा गया है। सार्वजनिक स्थलों पर लोग इनसे बात करने और साथ खड़े रहने से भी कतराते हैं। इन सभी मार्मिक प्रसंगों का चित्रण उपन्यास में खुलकर हुआ है, जिससे किन्नर समाज की वास्तविक पीड़ा से हम रू-ब-रू हो सकते हैं।
किन्नरों की पीड़ा की कुशल अभिव्यक्ति की अगली कड़ी में ‘गुलाम मंडी’ आता है। निर्मला भुराड़िया का यह बहुचर्चित उपन्यास किन्नर विमर्श में अपनी महती भूमिका अदा करता है। जटिल विषय को अपने लेखन का केंद्र बनाने वाली निर्मला जी गहनतम संवेदना के स्तर पर गुलामी के दंश को कुशलता से अभिव्यक्त कर पायी हैं। आज के तिरस्कृत वर्ग किन्नरों की समस्या और मानव तस्करी का भयावह चेहरा उपन्यास में दिखाया गया है। एक ज्वलंत समस्या पर लेखन का प्रयास गुलाम मंडी में किया गया है, उस सच को बड़ी बारीकी से उघाड़ने का प्रयास किया गया है, जिसे बार-बार दबाने की कोशिश की जाती है। लेखिका अपने अनुभवों को उपन्यास में अभिव्यक्त करती हैं यथा- “प्रोजेक्ट आधारित उपन्यासों से एकदम अलग यह उपन्यास रचनाकार के मूल सरोकारों से सीधा जुड़ा हुआ है, जो पूरी संजीदगी से एक इंसान को इंसान मानने की वकालत करता है…फिर चाहे वह एक मजदूर स्त्री हो या समाज का तिरस्कार झेलने को मजबूर किन्नर।” उन लोगों के प्रति समाज के तिरस्कार को जिन्हें प्रकृति ने तयशुदा जेंडर नहीं दिया, उन्हें हिजड़ा, किन्नर, वृहनला आदि कई नामों से पुकारा जाता है मगर अपमान के साथ। लेखिका एक स्थान पर उल्लेख करती हैं कि “बचपन से देखती आयी हूँ उन लोगों के प्रति समाज के तिरस्कार को, जिन्हें प्रकृति ने तयशुदा जेंडर नहीं दिया। इसमें इनका क्या दोष? ये क्यों हमेशा त्यागे गए, दुरदुराए गए, सताए गए और अपमान के भागी बने! इन्हें कई नामों से पुकारा गया मगर तिरस्कार के साथ ही क्यों? आखिर ये बाकि इंसानों की तरह मानवीय गरिमा के हकदार क्यों नहीं?” इसमें किन्नरों के जीवन की त्रासदी और सामाजिक उपेक्षा के दर्द को बहुत ही मार्मिकता के साथ उभारा गया है।
अगला उपन्यास प्रदीप सौरभ का ‘तीसरी ताली’ है। वे उस तीसरी ताली की बात करते हैं, जिसे समाज में मान्यता नहीं मिली है। इस समाज में जिसे हम समाज का हिस्सा नहीं मानते, उनकी अपनी समस्याएँ हैं। जेंडर के अकेलेपन और जेंडर के अलगाव के बावजूद समाज में जीने की ललक से भरपूर दुनिया का परिचय करवाता है यह उपन्यास। इसमें ऐसे तमाम सच उभरकर सामने आये हैं, जीवन के ऐसे महत्त्वपूर्ण सच, जिन्हें हम माने या न माने लेकिन उनका अपना वजूद है। यह उपन्यास प्रदीप सौरभ के साहसी लेखन की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करता है। यह कहानी है गौतम साहब और आनंदी आंटी की, जिनके बच्चा होने पर आये किन्नरों को दरवाजा नहीं खोलते हैं इस डर से कि कहीं वे उनके बच्चे को उठाकर न ले जाएँ। बच्चा होने पर ख़ुशी के स्थान पर शोक मनाया जाता है। ऐसे बच्चे के पैदा होने का केवल अंत आत्महत्या के रूप में परिणिति, किन्नर जीवन का एक और सच उपन्यास के माध्यम से हमारे सामने आता है। आर्थिक विषमता के चलते किन्नरों के कार्यकलापों पर भी लेखक ने प्रयास डाला है, जिसमें उनको भीख तक मांगनी पड़ती है यथा- “मैं मर्द रहूँ, औरत रहूँ या फिर हिजड़ा बन जाऊं, इससे किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता, पेट की आग तो न जाने बड़े-बड़ों को क्या-क्या बना देती है।” यहाँ किन्नर समाज की उस सच्चाई को सामने रखने का प्रयास किया गया है, जिसे दुनिया से छिपाकर रखा जाता है। उभयलिंगी वर्जित समाज के तहखाने में झाँकने का लेखक ने भरपूर प्रयास किया है। यह उस दुनिया की कहानी है, जिसे न तो जीने का अधिकार और न ही सभ्य समाज में रहने का।
अभी हाल ही में चित्रा मुद्गल का उपन्यास ‘पोस्ट बॉक्स नं 203 नाला सोपारा’ प्रकाशित हुआ है। इसमें लेखिका ने किन्नर समाज की दर्दनाक पीड़ा को अभिव्यक्ति देने का प्रयास किया है। यह उपन्यास किन्नर समाज की दशा और दिशा से हमारा परिचय कराने में अपनी महती भूमिका अदा करता है। उनकी जिन्दगी का हर पाठ यातना, क्रूरता और चिर उपेक्षा का पाठ है। जेंडर के अकेलेपन और समाज में सम्मान से जीने की ललक से भरपूर दुनिया के मार्मिक पहलू को लेखिका ने यहाँ उजागर किया है। किन्नरों के दुःख-दर्द को बयान करता यह उपन्यास स्त्री-विमर्श के बासी, उबाऊ, अर्थहीन दम तोड़ते मुद्दों से कहीं दूर जाकर लिखा गया है। इसके संदर्भ में ममता कालिया ‘नवभारत टाइम्स’ में लिखती हैं कि “नाला सोपारा नितांत नई कथावस्तु प्रस्तुत करने वाला, नये शिल्प का उपन्यास है जिसमें लिंगभेदी समाज की समस्या को अत्यंत मानवीय दृष्टि से उठाया गया है।” विनोद उर्फ़ बिन्नी नामक पात्र को किन्नर होने का वीभत्स दंश झेलते हुए दिखाया गया है। जब अन्य हिजड़ों को उसके किन्नर होने का पता चलता है तो वे सब उसे लेने आ जाते हैं लेकिन तभी उसे उनसे उसके छोटे भाई को दिखाकर बचाया जाता है लेकिन बाद में उसकी पहचान मिटा दी जाती है। इस प्रकार का मुश्किल कथानक किन्नर समाज पर गहरी दृष्टि डालने पर मजबूर करता है, साथ ही हमें सोचने और समझने पर भी विवश करता है कि कैसे इस समाज का विकास किया जाये।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि हमारे समाज के एक अभिन्न अंग किन्नर समुदाय पर लिखे गए ये उपन्यास कहीं न कहीं हमारे समाज को किन्नरों की पीड़ा, दुःख-दर्द, जीवन जीने की विभीषिका और भयंकर त्रासद स्थिति से अवगत कराना चाहते हैं। किन्नरकथा, यमदीप, तीसरी ताली, गुलाम मंडी, पोस्ट बॉक्स नं 203 नाला सोपारा इन उपन्यासों में एक किन्नर होने का दर्द क्या होता है? उस नारकीय जीवन में व्याप्त घृणा, अपमान, घुटन और इससे बाहर निकलने की बैचेनी क्या होती है? इसका सफल चित्रण किया गया है। इन सबसे मुक्ति की कामना करता यह समाज आज अपने सम्मान और अधिकारों की माँग के लिए अपनी झोली फैलाए खड़ा है जिसे हमारे समर्थन की आवश्यकता है। इस क्षेत्र में और भी उपन्यासों के आने की दरकार हमें है जिससे किन्नरों के वास्तविक जीवन को हम पहचान पाएँ, ताकि उनके दुःख दर्द, उनकी पीड़ा को समझकर हम उनके अधिकारों तथा सम्मान हेतु समुचित प्रयास कर सकें। यही इस आलेख का उद्देश्य भी है।
संदर्भ-
1.महेंद्र भीष्म, ‘किन्नर कथा’ सामयिक बुक्स, नई दिल्ली, (2011) पृ.31
2.नीरजा माधव, ‘यमदीप’ सुनील साहित्य सदन प्रकाशन, नई दिल्ली, (2009) पृ.16
3.निर्मला भुराड़िया, ‘गुलाम मंडी’ सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली (2016) फ्लेप पेज से-
4.निर्मला भुराड़िया, ‘गुलाम मंडी’ सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली (2016) पृ.57
5.प्रदीप सौरभ, ‘तीसरी ताली’ वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली,(2011) पृ.5
6.ममता कालिया, नवभारत टाइम्स, समाचार पत्र, सितम्बर (2016) नजरिया से
– वंदना शर्मा