आलेख
किन्नर और हिन्दी साहित्य
– भगवती
हमारे समाज में बहुत तरह के लोग रहते हैं और सबका अपने में एक तौर-तरीका होता हैं। उसी तरह हमारे समाज में किन्नर भी रहते हैं।जिनके बारें में हम लोग अलग ही धारणा बनाये बैठे रहते हैं। इनको कई नामों से पुकारा जाता हैं, जैसे- किन्नर, हिजड़ा, छक्का, थर्ड जेंडर, ट्रांसजेंडर यानी कि तीसरा लिंग (तृतीय प्रकृति के लोग)। यह समाज का वह हिस्सा है, जिसे समाज हिकारत से देखता है, हँसता है। पुराने तथ्यों और ज्योतिष के अनुसार वीर्य कि ज्यादा मात्रा से पुरुष, रक्त की अधिक मात्रा से महिला, अगर वीर्य और रक्त सामान हो तो किन्नर पैदा होते हैं। अब इन सबमें इनकी क्या गलती हैं।
सभी सृष्टि के निर्माता ईश्वर हैं। मनुष्य में नर, नारी और उभयलिंगी भी उसी की रचना हैं। मनुष्य में उभय लिंगी यानी हिजड़ों को हाशिये में रखते चले आ रहे हैं।उन्हें सामाजिक मान्यता, आदर, सम्मान तो दूर; ‘हिजड़ा’ शब्द एक दूसरे को नीचा दिखाने के लिए, गाली के रूप में इस्तेमाल करते चले आ रहें हैं।जो सुनने वालों के हृदय को भेद डालता है।
किन्नरों की चार शाखाएँ हैं- बुचरा, नीलिमा, मनसा और हंसा। बुचरा जन्मजात किन्नर होता है। नीलिमा स्वयं बने किन्नर हैं।मनसा स्वेछा से शामिल तथा हंसा शारीरिक कमी के कारण बने किन्नर हैं। इसलिए लोगों को अपनी सोच बदलने की ज़रूरत है।
आजकल भारतीय समाज में और साहित्य में हिजड़ों की समस्या एक सामाजिक समस्या के रूप में उभर कर सामने आ रही है। अपना हक़ वह मांग रहा हैं।राजनीति में और चुनाव में भाग लेने का अधिकार उन्हें मिल रहा हैं। समाज में जीते जी उन लोगों को बहुत-सी यातनाएं सहनी पड़ती हैं।
भारतीय समाज एवं साहित्य में तृतीय लिंगी विमर्श किन्नर समाज के बारें में न केवल जानकारी देती है बल्कि उनके उत्थान की दिशा में महत्वपूर्ण विमर्श सुझाती है। हिंदी में ‘कृष्ण मोहन झा’ द्वारा रचित कविता ‘हिजड़े’ में इस वर्ग की सच्चाईयों का बयान किया हैं-
उनकी गालियों और तालियों से भी उड़ते हैं खून के छींटे
और यह जो गाते-बजाते ऊधम मचाते
हर चौक-चौराहे पर
वे उठा लेते हैं अपने कपड़े ऊपर
दरअसल वह उनकी अभद्रता नहीं
उस ईश्वर से प्रतिशोध लेने का उनका एक तरीका है
जिसने उन्हें बनाया है
या फिर नहीं बनाया
आधुनिक समय में किन्नर समाज आर्थिक समाजिक स्तिथि के कारण भीख मांगने व वेश्यावृति के लिए अभिशप्त हैं।जिस्म फरोशी के दलदल में गिर जाने के कारण एड्स पीड़ितों की संख्या बढ़ रही है। कोई भी किन्नरों के दर्द को सुनना, समझना व महसूस करना नहीं चाहता है-
कंगन हैं मेरे हाथों में, पर कलाई में ताकत है पुरुषों से अधिक।
आवाज़ है मेरी पुरुषो-सी, पर मन मेरा कोमल है पुरुषों से अधिक।।
हिन्दी कथा-साहित्य में इन पर अधिक मात्रा में लेखन कार्य नहीं हुआ है लेकिन जितना भी हुआ है उन सभी से इनको सम्मान की दरकार रही है।यह लोग भी अपनी मूलभूत आवश्यकताओं, अधिकारों और आम आदमी की तरह जीवन यापन करने की आकांक्षा रखते हैं। इनके आजीवन संघर्षरत रहने की व्यथा-कथा चित्रण करने वाले कुछ महत्वपूर्ण उपन्यासों की चर्चा मैं यहाँ करना चाहूँगी, जिनके माध्यम से लेखकों ने जो विषय अब तक शर्म का विषय था।उसको प्रकाश में लाने का साहसिक कदम उठाया है- 2009 में नीरजा माधव का ‘यमदीप’, 2011 में प्रदीप सौरभ का ‘तीसरी ताली’ और महेंद्र भीष्म का ‘किन्नरकथा’, ‘मैं पायल’, 2014 में निर्मला भुराड़िया का ‘गुलाममंडी’, 2016 में चित्रा मुद्गल का ‘पोस्ट बॉक्स नं.- 203 नाला सोपारा’।
इन उपन्यासों की कथा-वस्तु किन्नर समुदाय के मनुष्य होने का प्रमाण प्रस्तुत करती है और समाज में उनकी निर्धारित भूमिकाओं की आलोचना करती हैं।यह उपन्यास कहीं न कहीं हमारे समाज को किन्नरों की पीड़ा, दुःख-दर्द जीवन जीने की विभीषिका और भयंकर त्रासद स्थिति से अवगत करते हैं। अन्य भाषाओं में ‘आई एम सर्वानन विद्या’ 2008 (स्माइली सर्वानन विद्या) किसी ट्रांसजेंडर द्वारा लिखी गयी पहली आत्मकथा हैं, जो तमिल में है। बाद में इसका अंग्रेजी, मलयालम, कन्नड़ और मराठी में अनुवाद हुआ। मानबी बंदोपाध्याय और झिमली मुख़र्जी पांडेय द्वारा लिखित आत्मकथा ‘अगिफ्ट ऑफ़ गॉडेस लक्ष्मी’, अरेवती द्वारा लिखित ‘द ट्रुथ अबाउट मी अ हिजरा लाइफ स्टोरी’ तमिल से अंग्रेजी में वि. गीता द्वारा अनुवादित। इन सभी आत्मकथाओं में किन्नर समुदाय की पीड़ा , संघर्ष साथ ही स्वयं का अस्तित्व तलाशने की कथा है कि कैसे समाज द्वारा ये बहिष्कृत किये जाते हैं।
लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी की आत्मकथा ‘मी हिजड़ा, मी लक्ष्मी’ 2015 में अंग्रेजी भाषा में प्रकाशित हुई। हिंदी भाषा में इसका अनुवाद डॉ. शशिकलाराय, सुरेखा बनकर द्वारा किया गया। इस विषय में डॉ. शशिकला राय कहती हैं-“कई भ्रमों पूर्वाग्रहों को ध्वस्त करती हुई यह आत्मकथा न केवल हमें उद्वेलित करती है बल्कि अनेक स्तरों पर मुख्य समाज की भूमिका को प्रश्नांकित करती है। इसआत्मकथा की महत्ता किसी प्रमाण की मोहताज नहीं है। “इस आत्मकथा के माध्यम से लक्ष्मी, हिजड़ा पहचान के साथ ही एक मानव होने तथा मानवीय क्षमताओं को बिना किसी भेदभाव के स्वीकार करने का आग्रह करती है।”
कौशलेन्द्र प्रपन्न का लेख ‘तृतीय पंथी यानी किन्नरों की शिक्षा’ इस विषय में एक सार्थक कदम है। यह अपने लेख में कहते हैं- “कई बार शिक्षा की ओर बहुत उम्मीद से ताकता हूँ कि क्या कहीं किसी निति व समिति या फिर पाठ्यक्रम, पाठ्यपुस्तक में इनके भूगोल, इतिहास, संस्कृति, समाज के बारे में कोई मुकम्मल परिचय दिया जाता है लेकिन बेहद निराशा ही मिलती हैं। कोई भी पाठ्यपुस्तक, कोई भी पाठ्यक्रम में इनके भूगोल और मानचित्र से हमारी पहचान नहीं कराते। यही वजह हैं कि बच्चे, समाज के तमाम वर्गों के लोगों, हमारे मददगार, नाई, मोची, डॉक्टर, मास्टर आदि के बारे में प्राथमिक कक्षाओं में परिचित हो जाते हैं, लेकिन हमारे ही समाज में जीने वाले किन्नरों के बारें में न तो कोई बात बताई जाती हैं और न ही जानकारी के तौर पर एक दो वाक्य खर्च किये जाते हैं।हमारा पूरा सामाजिकरण लड़का और लड़की, स्त्री और पुरुष के तौर पर ही होता हैं। यहाँ किन्नरों के लिए कोई स्थान नहीं दिया गया”।
मानबी बंदोपाध्याय (सोमनाथबैनर्जी) पश्चिम बंगाल में कृष्ण नगर के सरकारी कॉलेज की विश्व की पहली किन्नर प्राचार्य (प्रिंसिपल) बनी है।जो साथ ही एक अच्छी कवयित्री और लेखिका भी हैं। वह मान बनाम की ट्रांसजेंडर्स पत्रिका का भी संपादन कर रहीं हैं।यह पत्रिका भारत की क्षेत्रीय भाषा में छपने वाली पहली ट्रांसजेंडर्स पत्रिका हैं।
– 2009 में नीरजा माधव का ‘यमदीप’, 2011 में प्रदीप सौरभ का ‘तीसरी ताली’ और महेंद्र भीष्म का ‘किन्नर कथा’, ‘मैंपायल’, 2014 में निर्मला भुराड़िया का ‘गुलाममंडी’, 2016 में चित्रामुद्गल का ‘पोस्ट बॉक्स नं- 203 नाला सोपारा’ इन उपन्यास के पात्र समाज के सामने मिशाल हैं। यह अपने अस्तित्व के लिए लड़ते हैं, समाज के साथ कदम से कदम मिलाकर चलना चाहते हैं।
समाज में किन्नरों से ज्यादा अभिशप्त समाज कौन सा होगा।हिन्दी में अब तक ज़्यादातर लेखन पितृ सत्तात्मक या नारी विमर्श के नजरिये से हुए हैं पर यह एक विरल कोशिश शुरू हुई हैं। हिन्दी साहित्य में वास्तव में किन्नर विमर्श की शुरुआत नीरजा माधव जी के उपन्यास ‘यमदीप सेमानी जा सकती हैं।2009 में इसके प्रकाशन से लोगों की दृष्टि इस और पड़ी फिर भी उन पर अधिक रचनाएँ नहीं निकली बाद में 2011 में प्रदीप सौरभ जीने ‘तीसरी ताली’ उपन्यास के माध्यम से इन लोगों के जीवन की तहों की खुलकर अभिव्यक्तिकी।
यमदीप उपन्यास की कथा नाज बीबी के इर्दगिर्द घूमती हैं, जो एक किन्नर हैं। वह इस उपन्यास की नायिका हैं। जबसे जन्म हुआ घर वाले परेशान हैं, क्योंकि लड़का किन्नरहैं। फिर भी माँ अपने बच्चें से बहुत प्यार करती है। एक आम माँ की भांति अपने बच्चे को पढ़ाना और लिखाना चाहतीहैं।समाज की नजरें उसे और उसके बच्चे को जीने नहीं देती। एक प्रश्न मेरा इस समाज से है। आखिर क्यों हम मानवता को भूल बैठें हैं? क्यों इनको समाज से अलग कर दिया जाता हैं?
2011 में प्रदीप सौरभ कृत ‘तीसरी ताली’ इस मायने में कुछ आगे हैं कि एक पत्रकार की निर्भिकता तीसरे लिंग में पैदा हुए लोगों के जीवन केबारीकियोंकोखोलकरदिखानेकासफलप्रयत्नहैं | हिजड़ाहमेशाजिस्मकेधन्धेअपनानेतैयारनहींहोते | कभीकभारभूखऔरगरीबीकेचक्करमेंआकरकुछतोइसधंधेंकोअपनानेमजबूरहोजातेहैं| इतनाहीनहींशिक्षाकीकमी, अन्यव्यवसायमेंजुड़नेकासीमितअवसर, आर्थिक तंगी परिवार का भावनात्मक लगाव न होना ही अधिकांश हिजड़ों को यौन कर्म की ओर ले जाता है। इसके बगैर लोग यह सोचते हैं कि सारे हिजड़े यौन कर्मी हैं, जो गलत हैं |
कथाकार महेंद्र भीष्म का उपन्यास ‘किन्नर कथा’ हिजड़ों के जीवन को बड़ी सचाई के साथ उद्घाटित करता है| यह किसी सामान्य हिजड़े की नहीं वरन् राजघराने में पैदा हुई सोना उर्फ चंदा की कथा है। वह राजपरिवार के लिए सबसे आश्चर्य जनक घटना है। राजघराने में किन्नर का जन्म यह बात किसी के गले नहीं उतरती। सोना मौत के मुँह से बचकर किन्नर समाज में पहुंच जाती है। अब वह चंदा बन गई है, पूरी तरह किन्नर। उस समाज की इकलौती चहेती… तारा किन्नर समाज की गुरु है, उसने चंदा को संवारा, दुलारा है। तारा का चरित्र भावुक है। वह माता-पिता को याद करके आंखें गीली करती रहती है।
निर्मला भुराड़िया का ‘गुलाममंडी’ में समाज के सर्वाधिक तिरस्कृत वर्ग किन्नर से लेकर जिस्म फरोशी और मानव तस्करी की निर्मोही और भयावह दुनिया को भी उकेरा गया है। उपन्यास में विषय की मांग के अनुसार उपन्यासकार ने हर उस सच को उघाड़कर रख दिया है। जिसे हमारा दो चेहरे वाला तथा कथित सभ्य समाज अपनी मायावी दुनिया की सतह के नीचे ही रखना चाहता है। जब-जब सतह फोड़कर यह सच सामने आने की कोशिश करता है। उसे बेशर्मी से दबाने की पुरजोर कोशिश की जाती है।
चित्रा मुद्गल का ‘पोस्ट बॉक्स नं. 203 नाला सोपारा’ मुंबई की रक्तवाहिनी लोकल ट्रेन के वेस्टर्न उपनगर का लगभग आख़िरी स्टेशन है नाला सोपारा। यहाँ अधिकतर वह लोग रहते हैं, जो शहर में घर नहीं ले सकते या किराया दे पाने में असमर्थ हैं। विनोद इसी उपनगर में रहने वाली अपनी बा को पोस्ट बॉक्स के पते पर चिट्ठियाँ लिखता है। विनोद उर्फ़ बिन्नी (किन्नर) को अपनी प्राणों से प्रिय माँ के बीच संवाद के लिए चिट्ठियाँ क्यों? ये दूरियाँ समाज ने बनाई हैं, जिसे न चाहते हुए भी बा और बिन्नी मानने को मजबूर हैं। विनोद हिजड़ा है लेकिन उसकी परवरिश एक आम बच्चे की तरह होती है। बा का लाड़ला, बेहद होशियार। उसे लेकर माँ के सपने हैं, सपने तो विनोद के भी हैं। पर सब बिखर जाते हैं, टूट जाता है परिवार।
इन सभी उपन्यासों में इस समाज के जीवन का रूबरू चित्र प्रस्तुत होता हैं कि किस प्रकार इन्हें समाज की प्रताड़ना सहनी पड़ती है।इसमें यह भी बताया गया है कि समाज भी इनके लिए कुछ नहीं करती। कभी-कभी इन्हें कीड़े-मकौड़े की तरह भगाया जाता हैं। इन सभी परिदृश्य से तंग आकर हिजड़े कहते हैं कि– “हिजड़े कोई हिंसक जानवर नहीं हैं, जो गाँव में रहेंगे तो लोगों को मारकर खा जायेंगे। उन्हें भी भगवान ने ही बनाया है।” मेरी समाज से गुजारिश हैं कि इन्हें भी अपने जैसा ही समझे। इन्हें भी मानव समझे न कि उपहास का पात्र। इनसे बात करें और सम्मान दे।
– भगवती