उभरते स्वर
काश! मैं मौन रहती
तुम्हारी बोलती आँखों में
श्रद्धा थी, स्नेहऔर प्रेम था
देखकर मुझे खिल जाना तुम्हारा
सच था, यह मेरा भ्रम न था
सौ शब्दों-सी वो मौन की भाषा थी
जीवित मेरी शुष्क-सी अभिलाषा थी
मौन एक अभिव्यंजना मूक अभिव्यक्ति थी
असम्भव से प्रणय की मिथ्या स्वीकृति थी
आदि से पहले सुनहरे स्वप्न का अंत न होता
अमिय से अपनत्व पर यूँ सर्पदंश न होता
तुमसे प्रश्न करके ना यूँ पराई बनती
मृगतृष्णा ही सही मौन, काश! मैं मौन रहती।
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प्रतिपल मौत
चिलचिलाती धूप में मजदूरों का पसीना बहाना,
अरबपतियों का उनको अँगूठा दिखाना,
बसों की प्रतीक्षा में लोगों का मेला,
सड़क पर खाली कारों का रेला,
सब देखकर लगता है- पल पल मौत है।
चार कमरों के घर में दो लोगों का रहना,
एक झोंपड़ी में दस लोगों का जीवन बिताना,
पूँजीपतियों की दावतें, बर्बाद होता खाना,
मासूम बच्चों का कूड़े से चुनकर उसे खाना,
सब देखकर लगता है- पल पल मौत है।
बच्चों का तन कर राष्ट्रीय-गान गाना,
और बड़े होकर राष्ट्र-विरोधी नारे लगाना,
बड़े नेताओं का उनके समर्थन में आना,
भारत माँ का वो पल-पल आँसू बहाना,
सब देखकर लगता है- पल पल मौत है।
खिलाड़ियों की जीत पर करोड़ों की बरसात,
सीमाओं पर परिवारों की आशाएँ तैनात,
बर्फ़ ओढ़कर उनका चले जाना,
परिजनों का पुरस्कारों से संतुष्ट हो जाना,
सब देख कर लगता है- पल पल मौत है।
बेसहारा ग़रीबों को सीढ़ी बनाना,
चंद लोगों का चढ़कर कुर्सी हथियाना,
मैले मन को कपड़ों की चमक में छिपाना,
सफाईवाले को कूड़ेवाला कहकर बुलाना,
क्या बदलेगा कुछ या सहते रहेंगे- ये प्रतिपल मौत?
– मधु शर्मा कटिहा