उभरते-स्वर
काश मैं भी
ओ परिन्दे!
काश मैं भी तुम्हारी तरह बन पाऊँ
कभी यहाँ जाँऊ, कभी वहाँ जाँऊ
न कोई रोक सके, न कोई टोक सके
काश मैं भी तुम्हारी तरह बन पाऊँ
कभी इस पेड़ पर तो कभी उस पेड़ पर
कभी आसमान में ऊपर तक जाँऊ
तो कभी धरती को भी चलकर नाप लूँ
काश मैं भी तुम्हारी तरह बन पाऊँ
मैंने तुम्हें दूर से निहारा है
तुम्हें न कोई चिन्ता है, ना कोई फ़िक्र
तुम आज़ाद हो कुछ भी करने को
मैं भी आज़ाद होना चाहता हूँ तुम्हारी तरह
काश मैं भी तुम्हारी तरह बन पाऊँ
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मैं समय हूँ
मैं समय हूँ
कल भी था, आज भी हूँ, कल भी रहूँगा
सदियों से चला आ रहा हूँ
न जाने कितने आये कितने गये
पर मैं न रुका हूँ, न रुकूँगा
मैं समय हूँ
तू रुक जाना कहीं भी
कहीं से भी चल पड़ना
मैं निरन्तर बिना रुके चला आ रहा हूँ
चलता ही रहा हूँ, चलता ही जाऊँगा
मैं समय हूँ
मैंने कई उत्थान, कई पतन देखे हैं
देखे कई शासन, कई शासक हैं
किसी को ज़मीन से आसमान की तरफ जाते देखा है
किसी को आसमान से ज़मीन की तरफ आते देखा है
तू रुका है कई बार पर मैं नहीं
मैं समय हूँ
तूने दोष दिया है मुझे कई बार
अपने आप में झाँक कर देख एक बार
मैं कल जैसा था, आज भी वैसा ही हूँ
तेरी तरह बदलना फ़ितरत नहीं मेरी
मैं समय हूँ
– श्याम राज