धरोहर
कालिदास एवं उनके काव्य में प्रकृति-वर्णन !
भारतीय साहित्य के विभूति सम्पूर्ण कविकुल सम्राट कालिदास काव्य जगत के दैदीप्यमान रत्न हैं। काव्य रसिकों ने इन्हें कविता-कामिनी-विलास कहा है। समालोचकों ने प्राचीन कवियों की गणना में कालिदास को ‘कनिष्ठिकाधिष्ठित ‘बताकर उनकी स्पर्धा में ठहरने वाले किसी अन्य प्रतिस्पर्धी कवि के अस्तित्व की संभावना का ही खंडन किया है –
”पुरा कवीनां गणनाप्रसङ्गे कनिष्ठिकाधिष्ठित कालिदासः।
अद्यापि तत्तुल्य कवेर्भावदनामिका सार्थवती बभूवः।।”
जैसी किंवदन्ती कालिदास की श्रेष्ठता का प्रतिपादन करती है। आचार्य आनन्दवर्धन ने भी कवि की गणना विश्व विख्यात महाकवियों में की है –
”अस्मिन्नतिविचित्रकविपरम्परावाहिनि संसारे कालिदासप्रभृतयो द्वित्राः पञ्चषा एव वा महाकवय इति गण्यते। ”
अर्थात् इस अतिविचित्र कवियों की परम्परा को वहन करने वाले संसार में कालिदास आदि दो तीन या पांच छः ही कवि गिने जाते हैं। ”(ध्वन्यालोक 1/6)
महाकवि हमारे राष्ट्रीय कवि हैं तथा भारतीय संस्कृति के प्रमुख परिपोषक भी। इनकी काव्य वाणी में संपूर्ण भारत की संस्कृति बोलती है। कालिदास ने जैसा मानव हृदय के सूक्ष्म से सूक्ष्म भावों का निरीक्षण किया वैसा अन्य ने नहीं ,कालिदास अन्तर तथा बाह्य दोनों जगत् के सूक्ष्म निरीक्षक कवि हैं।
संस्कृत साहित्य के उपवन में कालिदास का समागम एक ”वसन्त दूत” के रूप में हुआ है। उन्होंने संस्कृत भाषा को वाणी दी, नए भाव, नई दिशाएँ, नए विचार और नई पद्धतियाँ दी हैं।
कालिदास संस्कृत के सबसे बड़े कवि और नाटककार हुए। परवर्ती संस्कृत ,हिंदी एवं कुछ विषयों में विदेशी कवि भी कालिदास के ऋणी हैं। जर्मनी के प्रसिद्ध कवि ”गेटे” के ”फ़ाउस्ट” नामक नाटक में शाकुन्तल का प्रभाव परिलक्षित होता है। महाकवि कालिदास के विषय में बड़े-बड़े विद्वानों विचार प्रकट किये हैं।
मैकडोनल के शब्दों में ”कालिदास की कविता में भारतीय प्रतिभा का उत्कृष्ट रूप समाविष्ट है। उनके काव्य में भावों का ऐसा सामंजस्य है जो अन्यत्र देखने को नहीं मिलता। (ए हिस्ट्री ऑफ़ संस्कृत लिट्रेचर, पृ. 553)
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में ” भारतीय धर्म, दर्शन, शिल्प और साधना में जो कुछ उदात्त है, जो कुछ ललित और मोहन है, उनका प्रयत्न पूर्वक सजाया सँवारा रूप कालिदास का काव्य है।”
कालिदास की बराबरी तो आज तक कोई और कवि कर ही नहीं पाया। उनकी सभी रचनाओं में अत्यंत प्रेम और भाव विभोर कर देने वाली अविनाशिनी शक्ति विद्यमान है। अतः दो सहस्र वर्षों बाद भी उनकी रचनाएँ यथावत आनंददायक हैं। संस्कृत के सुप्रसिद्ध कवि बाणभट्ट ने लिखा है –
”निर्गतासु न वा कस्य कालिदासस्य सूक्तिषु।
प्रीतिर्मधुरसान्द्रासु मञ्जरीष्विव जायते॥”
मेघदूत की प्रशंसा करते हुए मनोमुग्ध होकर यूरोपीय विद्वजनों ने अपने योरोप के साहित्य में किसी काव्य को इसकी समता के योग्य नहीं माना। मिस्टर मोन फांचे (Mr. Mon Fanche) ने कहा है –
”There is nothing so perfect in the elegiac litreature of Europe as the Meghaduta of Kalidas.”
एक अन्य जर्मन विद्वान ने कहा है –
”There exist for instance in our European litreature few pieces to be compared with the Meghaduta in Sentiment and beauty.”
अभिज्ञानशाकुंतलम कालिदास की सर्वोत्कृष्ट रचना है। यह सात अंक का नाटक है इसमें हस्तिनापुर के राजा दुष्यन्त और महर्षि कण्व की पालिता धर्म-कन्या शकुन्तला की प्रणयगाथा निबद्ध है। महर्षि कण्व की अनुपस्थिति में उनके तपोवन में दुष्यंत और शकुन्तला का प्रथम मिलन होता है, और वही मिलन ”गन्धर्व विवाह” का रूप धारण कर लेता है। राजा दुष्यंत महर्षि कण्व के आगमन से पूर्व ही अपनी राजधानी को प्रस्थान करते समय अपनी प्रियतमा शकुन्तला को स्वनामांकित मुद्रिका देते हुए कहते हैं कि – यह मेरी याद दिलाएगी। इसी बीच अतिथि सत्कार में शकुन्तला की असावधानी दुर्वासा ऋषि के शाप का कारण बनती है। किन्तु उसकी दोनों सखियों को यह रहस्य पता है कि शापवश राजा शकुन्तला को देखकर तब तक नहीं पहचान सकेगा , जब तक वह किसी ”अभिज्ञान” का दर्शन ना कर ले। महर्षि कण्व आश्रम में लौट कर शकुन्तला के ”गन्धर्व विवाह” का समाचार ज्ञात करके प्रसन्न हैं तथा उसे गर्भवती जानकार राजा के पास भेजना चाहते हैं। आश्रम से राजधानी जाते समय सखियाँ शकुन्तला को बताती हैं कि यदि राजा पहचानने से तुम्हें भूल करे तो उसे नामांकित मुद्रा दिखा देना। राजा शकुन्तला को शापवश नहीं पहचान पाता तो शकुन्तला उसको मुद्रिका दिखाना चाहती है किन्तु वह अँगूठी तो ”शक्रावतार ” में शची तीर्थ के जल को प्रणाम करते समय उसके हाथ से गिर जाती है। कुछ दिन बाद ही वह अँगूठी राजा के पास पहुँचती है, तब वह सम्पूर्ण घटना का स्मरण करके शकुन्तला की खोज में जाते हैं। अंत में पुनर्मिलन के साथ नाटक समाप्त होता है।
कालिदास ने अभिज्ञान-शाकुन्तल में महाभारत के ”शकुन्तलोपाख्यान ” के इतिवृत्त को अपनी नवनवोन्मेष शालिनी प्रतिभा से सरस एवं गरिमामय बनाकर प्रस्तुत किया है। चतुर्थ अंक में उनकी कला चरमोत्कर्ष पर है –
”काव्येषु नाटकं रम्यं, तत्र रम्या शकुन्तला।
तत्रापि चतुर्थोङ्कस्तत्र श्लोकचतुष्टयम्।। ”
और -”कालिदासस्य सर्वस्वमभिज्ञानशकुन्तलम्॥”
”अभिज्ञानशाकुन्तल ”संस्कृत साहित्य का सर्वोत्कृष्ट नाटक है। इसके सात अंकों में दुष्यंत शकुन्तला के प्रेम, वियोग और पुनर्मिलन का वर्णन है।
महाकवि कालिदास ने अपने नाटकों में तत्कालीन समाज का चित्रण यथास्थान किया है। उस युग के सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक, धार्मिक एवं पारिवारिक जीवन का यथार्थ चित्रण अभिज्ञानशाकुन्तल में मिलता है ।
कालिदास की लोकप्रियता का कारण उनकी सरल परिष्कृत और प्रसाद गुण पूर्ण शैली है कालिदास में कल्पना की ऊँची उड़ान है, भावों में गम्भीरता है। विचारों में जीवन की घनी अनुभूति है, भाषा में लोच और प्रांजलता है। उनकी कविता में मादकता है, घटना संयोजन सुविचारित है। बाह्य एवं अन्तः प्रकृति का सूक्ष्म विश्लेषण हुआ है। चरित्र चित्रण में वैयत्तिकता को प्रधानता दी गई है, वर्णनों में अलंकारों की प्रधानता न होकर प्राकृतिक सुषमा की प्रमुखता है। उनकी भाषा में प्रवाह है और शब्द कोष वृहद है। उनकी उपमाएं बेजोड़ होती हैं इसीलिए उनके विषय में ”उपमा कालिदासस्य”यह कथन सुविश्रुत है। कालिदास प्रतिभासम्पन्न महाकवि एवं नाटककार हैं। वे साहित्य प्रकाश के दैदीप्यमान नक्षत्र हैं। उनकी रचनाओं में स्वर्गीय आनन्द, भौतिक विलास, दैवी दिव्यता, मानवीय मनोज्ञता और सात्विक सम्मोहन एक साथ सुलभ होकर निदर्शित है।
कालिदास की रचनाओं में सभी नाट्य कला सम्बन्धी विशेषतायें हैं, तथापि इनका प्रकृति चित्रण अप्रतिम एवं अत्यंत रमणीय है। कालिदास की काव्य कला का विकास ही प्रकृति वर्णन से आरम्भ होता है।
कालिदास प्रकृति के कुशल चितेरे हैं। उनका प्रकृति वर्णन सूक्षम और यथार्थ है प्रकृति को जितना महत्त्व पूर्ण स्थान कालिदास के काव्य में मिला है उतना परवर्ती साहित्य में नहीं। नारी सौंदर्य एवं नायिकाओं के अलंकरण के लिए भी वे प्राकृतिक उपादानों का ही ग्रहण करते हैं। जैसे वसंत पुष्पों से अलंकृत पार्वती –
”अशोकनिर्भत्सितपद्मरागमाकृष्टहेमद्युतिकर्णकारम् |
मुक्ताकलापीकृत्सिन्दुवारं वसन्तपुष्पाभरणं वहन्ती ||” (कुमारसम्भवम् 3/53)
अर्थात अशोक के पुष्प से पद्मराग मणि का तिरस्कार करने वाले, सोने की कान्ति को ग्रहण करने वाले हार के समान किये गये निर्गुण्डी के पुष्पों वाले ऐसे वसन्त ऋतु के फूल रूप भूषण को धारण करति हुई (पर्वतराज कन्या दिखाई पड़ी।)
मेघदूत गीतिकव्य तो प्रकृति काव्य ही है। उनका मेघ एक प्रकृति का ही अंग है; तथा उसका सारा कार्य व्यापार प्रकृति क्रीड़ा ही है। भारत वर्ष के भव्य प्राकृतिक दृश्य इस गीतिकाव्य में देखने को मिलते हैं। अतः यह कहना अत्युक्ति नहीं होगी कि कालिदास मूलतः प्रकृति के ही कवि हैं ।
कवि की सर्वप्रथम रचना ”ऋतुसंहार” है। इसमें कवि ने विभिन्न ऋतुओं से मानवों पर पड़ने वाले प्रभावों का तथा उनके परिणामों का सुन्दर सरस वर्णन किया है। उन्होंने प्राकृतिक दृश्यों पर चेतन धर्म का समारोप कर उसका आलंकारिक चित्र प्रस्तुत किया है और कहीं कहीं प्रकृति को शुद्ध आलम्बन रूप में रखकर उसके प्रति अपना अनुराग व्यक्त किया है।
आज के आधुनिक एवं भौतिकवादी युग में लोग प्रकृति को भूलते जा रहे हैं। प्रकृति मानव की सहचरी एवं साक्षात परमात्मा का रूप है और इसके साथ तादात्म्य में रखने से ही परमानंद की प्राप्ति होती है; क्योंकि मनुष्य जब सभी प्रकार के कृत्रिम साधनों से उब जाता है, नीरस हो जाता है तो उसको वास्तविक सुख प्रकृति के गोद में ही प्राप्त होता है। विश्व कवि कालिदास ने अपने काव्य से प्रकृति-चित्रण के दृश्यावली को सजीव, साक्षात रूप में हमारी आंखों के सामने चित्रित करते हैं।
इन सभी गीतिकाव्यों तथा नाटकों में महाकवि कालिदास ने प्रकृति-चित्रण को तथा प्रकृति चित्रण में वर्ण (रंग)- संयोजन की छटा, रसप्रभाव-प्रवणता और मौलिक उद्द्भावानाओ को कोमलकांत पदावली में चित्रित किया है कि इस को हृदयंगम करते ही दुख-दैन्य भरे पापतापमय संसार का साथ छूट जाता है।
प्रकृति-सम्राट महाकवि कालिदास ने प्राकृतिक दृश्यों की मंदाकिनी को भारतवर्ष के काव्य-भूतल पर अविछिन्न काव्यधारा के रूप में प्रवाहमान किया है। इस काव्यधारा ने कहीं सूर्योदय के समय निकलने वाली लालिमा को, कहीं हिमालय, मेघ, पशु-पक्षी, लता, सरिता आदि के सौन्दर्य को, तो कहीं खेत और खलिहानों, वनों और उद्धयानों, नदियों और तगाडो को तो कहीं फल-फूलयुक्त वनस्पतियों, चौकड़ी भरते हिरण, वराह, नृत्य करते मयूरों, आकाश में उड़ते हंस, बक आदि का ऐसा सजीव चित्रित किया है; मानो यह प्रकृति के रूप में साक्षात दृष्टिगोचर हो रहे हों।
पृथ्वी और स्वर्ग लोक के अखिल सौन्दर्य, लावण्य एवं रमणीयता को यदि एक ही नाम से व्यक्त करना हो तो केवल कला की अथाह अनुभूति का प्रमाणिक नाम ‘ऋतूसंघाराम’ कहने से ही सब स्पष्ट हो जाता है। यह महाकवि की प्रथम रचना है। जिसमें प्रकृति-चित्रण के अनेकानेक चित्र अनायास ही परिलक्षित होते हैं एक श्लोक में कवि ने कहा है—
“विपांडूरं कीटरजस्त्रिन्नावितमं भुजंग्वाद्रकगतिप्रसपिर्तम”।
अर्थात जब बरसात का पानी घरों के दीवारों से प्रथम बार टेढ़ी-मेढ़ी लकीरें बनाता हुआ पीले-पीले के सूखे पत्तों को हटाता हुआ ऐसा प्रतीत होता है, मानो काला भुजंग वन में विचरण कर रहा हो।
‘मेघदूत’ में भी प्रकृति के अनुपम वर्णन की छटा हमें बहुत ही प्रभावित करती है, कोई यक्ष जब पहाड़ी ढलान पर मेघ को देखता है तो वह यह मेघ से अत्यंत प्रभावित हो जाता है और उसी समय वह यक्ष कह उठता है- “धूमो ज्योतिः सलिलमरुतां संनिपातः क्व मेघः”।
इस प्रकार धुँआ, अग्नि, जल और वायु के समन्वित रूप मेघ का ऐसा आकार कालिदास चित्रित करते हैं, मानो आकाश में मेघ स्वयं ही पर्वतशिखर- जैसा सजीव हो उठता है, न केवल मेघ अपितु मानचित्र से हिमालय की तराई में बसी अलका तक के वर्णन में कालिदास ने प्रकृति के विभिन्न क्षेत्रों का इतना हृदयग्राही वर्णन किया है कि पाठक आत्ममुग्ध, मंत्रमुग्ध हो उठता है।
हम यदि महाकवि कालिदास के ‘कुमारसंभव’ को देखें-पढ़ें तो उसने भी प्रकृति-चित्रण के ऐसे रमणीय चित्र विद्यमान हैं, जो हमे सहज ही आकृष्ट कर लेते हैं। प्रथम सर्ग के प्रथम श्लोक में – “अस्युत्तरस्याँ दिशि देवतात्मा” (1/1) इस श्लोक में हिमालय का कालिदास ने ऐसा विशद चित्रण किया है, मनो वह प्रकृति को मापने का एक अति विशाल शुभ्रदंड हो। ‘कुमारसंभव’ में शिव के महिमामय स्वरूप का दर्शन भी प्रकृति-चित्रण को परिलक्षित करता है- चर्म पर बैठे समाधिस्थ शिव का जटा-जूट सर्पों से बंधा है, अपने कुछ-कुछ खुले नैनों से शारीर के भीतर चलने वाले सब पवनों को रोककर शिव इस प्रकार अचल बैठे हैं, जैसे ना बरसने वाला श्याम जलधर (बादल) हो, बिना लहरों वाला निश्चल गंभीर जलाशय हो या अचल पवन में विद्यमान दीपशिखा वाला दीपक हो।
यदि ‘रघुवंशम्’ को ही ले तो इसमें महाकवि ने प्रकृतिक छटारूपी मंदाकिनी को इस प्रकार प्रवाहित किया है, मानो संसार के समस्त रसिक जन उसमें गोता लगाते लगाते थक गए हों, भूल गए हों। ‘रघुवंशम्’ के द्वितीय सर्ग श्लोक- “पुरस्कृता वत्त्मरनी” में राजा दिलीप और धर्मपत्नी सुदक्षिणा के बीच नंदिनी गाय इस प्रकार से जो चित्रित होती है, मानो दिन और रात के मध्य संध्याकालीन लालिमा हो। ऐसा चित्र कालिदास जी उपस्थित कर सकते हैं। अन्य कवियों के लिए सर्वथा दुर्लभ हो और अकल्पनीय ही है।
यदि हम ‘अभिज्ञानशाकुंतलम्’ को लें तो उसमें भी प्राकृतिक दृश्यों का ऐसा अद्भुत और मर्मस्पर्शी वर्णन है कि पाठक उसमें अभिभूत-सा हो जाता है। अभीज्ञान की नायिका अप्रतिम सुंदरी शकुंतला प्रकृति के साक्षात पुत्री परिलक्षित होती है। तपोवन के मृगों, पशु-पक्षिओं, तथा लता-पादपों के प्रति उसका हृदय बांधव-स्नेह से आप्लावित है। तपोवन की पावन प्रकृति की गोद में पली निसर्ग कन्या शकुंतला जिस समय आश्रम-तरुओं को सींचती हुई हमारे सम्मुख आती है, उस समय आश्रम के वृक्षों के प्रति शकुंतला का स्नेह ऐसा प्रतीत होता है, मानो वे उसके सहोदर हों। शकुंतला के विदाई के समय लताओं के पीले-पीले पत्ते इस प्रकार आभाहिन दृष्टिगोचर होते हैं, हिंदी को मानो वे स्वयं अश्रुपात कर रहे हो।
ऐसा ही चित्र ‘विक्रमोर्वशीयम्’ के प्रथम अंक में भी है- “अविर्भुते शशिनी तमसा मुच्यमानेव रात्रिः:”। यहाँ चंद्रमा उदित हो रहा है और रात्रि अंधकार के परदे से निकलती जाती है तथा धुंए का आवरण क्रमशः अदृश्य होता चला जा रहा है, कगारों के गिरने से प्रकृतिक छटा की अभिव्यक्ति को चित्रित करता है, यह भी अन्यत्र दुर्लभ है।
महाकवि कालिदास ने अपने काव्यों और नाटकों में प्राकृतिक दृश्यों को ऐसा चित्रांकित किया है, जिसका सौंदर्य देखते ही बनता है। कालिदास की सौंदर्य-दृष्टि भी भारतीय संस्कृति के मूल्यों और आदर्शों के अनुरूप पवित्र और उदार है। तपस्या से अर्जित सौंदर्य को ही महाकवि कालिदास सफल मानते हैं। महाकवि के साहित्य का सौंदर्य और उनकी सौंदर्य-दृष्टि अनुपम है, अतुलनीय है, जिसका अनुकीर्तन शताब्दियों से हो रहा है और सदैव-सदैव होता भी रहेगा।
महाकवि की सात कृतियाँ विश्व प्रसिद्ध हैं –
गीतिकाव्य एवं खंडकाव्य-
1- ऋतूसंघाराम 2- मेघदूतम
महाकाव्य-
3- कुमारसंभवम् 4- रघुवंशम्
नाटक-
5- मालविकाग्निमित्र 6- विक्रमोर्वशीयम् 7- अभिज्ञानशाकुंतलम
– नीरज कृष्ण