धरोहर
क़ुर्रतुल एन हैदर
(20 जनवरी 1926 – 18 मई 2017)
कथाकार कमलेश्वर ने कभी कुर्रतुल ऐन हैदर, इस्मत चुगताई और अमृता प्रीतम की तिकड़ी के बारे में कहा था, ‘अमृता प्रीतम, इस्मत चुगताई और कुर्रतुल ऐन हैदर जैसी विद्रोहिणियों ने हिन्दुस्तानी अदब को पूरी दुनिया में एक अलग स्थान दिलाया। जो जिया, जो भोगा या जो देखा, उसे लिखना शायद बहुत मुश्किल नहीं, पर जो लिखा वह झकझोर कर रख दे, तो तय है कि बात कुछ ख़ास ही होगी।’
ब्रिटिश शासन के राजदूत एवं उर्दू के जाने-माने लेखक ‘सज्जाद हैदर यलदरम’ एवं उर्दू की लेखिका ‘नजर’ बिन्ते-बाकिर की संतान कुर्रतुल ऐन हैदर को लेखन एक तरह से उन्हें घुट्टी में मिला। उन्होंने बहुत कम उम्र में लिखना शुरू कर दिया था। उनकी पहली कहानी जब वह केवल छः साल की थीं, तभी लिख दी। नाम था- ‘बी चुहिया’। सन 1945 में जब वह सत्रह-अठारह साल की ही थीं, उनका पहला कहानी संकलन ‘शीशे का घर’ छप गया था। सन् 1947 में प्रकाशित उनके कहानी-संग्रह ‘सितारों से आगे’ को उर्दू की नई कहानी का प्रस्थान-बिन्दु समझा जाता है।
उन्होंने तकरीबन बारह उपन्यास और ढेरों कहानियां लिखीं। उनकी कहानियों में समूचे भारतीय उपमहाद्वीप का इतिहास और संस्कृति झांकती है। ‘आग का दरिया’ उनका सबसे चर्चित उपन्यास है। ‘आग का दरिया’ को जो लोकप्रियता मिली, वह किसी दूसरे उर्दू उपन्यास को नसीब नहीं हुई। उनकी दूसरी किताबों में ‘सफ़ीन-ए-ग़मे दिल’, ‘आख़िरे-शब के हमसफ़र’, ‘कारे जहाँ दराज़ है’,, ‘गर्दिशे-रंगे-चमन’, ‘मेरे भी सनम-ख़ाने’ और ‘चांदनी बेगम’ शामिल हैं। जीवनी-उपन्यासों में दो खंडों में ‘कारे जहां दराज़ है’, ‘चार नावेलेट’, ‘कोहे-दमावंद’, ‘गुलगश्ते जहां’, ‘दकन सा नहीं ठार संसार में’, ‘क़ैदख़ाने में तलातुम है कि हिंद आती है’ शामिल है।
उन्होंने हेनरी जेम्स के उपन्यास ‘पोर्ट्रेट ऑफ़ ए लेडी’ का अनुवाद ‘हमीं चराग़, हमी परवाने’ और ‘मर्डर इन द कैथेड्रल’ का अनुवाद ‘कलीसा में क़त्ल’ के नाम से किया। ‘आदमी का मुक़द्दर’, ‘आल्पस के गीत’, ‘तलाश’ उनकी दूसरी अनूदित कृतियां हैं।
कुर्रतुल ऐन हैदर के लेखन में विद्रोह का भी स्वर था। वह इस मत पर विश्वास रखती थीं कि नारी देह न तो कोई प्रदर्शन की चीज़ है, न मनोरंजन की और न लेन-देन की। वे नारी देह की बजाय उसके दिमाग पर ज़ोर देती थीं। उनका मानना था कि दिमाग़ पर बात आते ही नारी पुरुष के समक्ष खड़ी दिखाई देती है, जो कि पुरुषों को बर्दाश्त नहीं।
सन 1967 में ‘आखिरी शब के हमसफर’ के लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार प्रदान किया गया। 1984 में पद्मश्री, गालिब मोदी अवार्ड, 1985 में उनकी कहानी पतझड़ की आवाज के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार, 1987 में इकबाल सम्मान, 1989 में अनुवाद के लिए सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार, 1989 में ज्ञानपीठ पुरस्कार, और 1989 में ही पद्मभूषण से उन्हें सम्मानित किया गया।
अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो, चाहे नरक दीजो डार ~
उर्दू साहित्य की जानी मानी कथा लेखिका कुरुतल ऐन हैदर की तमाम कहानियों में ‘अगले जनम मोहे बिटिया न कीजों’ एक अहम मकाम रखती है। इस कहानी का फलक इतना व्यापक है कि इसके पहलू में नारी मन की तमाम और वेदना समाहित हैं। स्त्री प्रेम और त्याग की प्रतिमूर्ति मानी जाती है। यह उसका सबसे बड़ा हथियार है तो कहीं-कहीं यह उसकी कमजोरी के रूप में भी सामने आता है। प्रेम और समर्पण में सदियों से पगी नारी अन्तर्मन को पुरुष ने अपने हक की चीज समझ लिया और इसी के बूते वह नैतिकता, त्याग का पाठ घुट्टी में पिलाकर उसका सदियों से शोषण करता आया है। कुरुतुल ऐन हैदर ने अपनी कहानी में नारी हृदय के सच्चे उद्गारों का पूरा लेखा-जोखा सामने खोलकर रख दिया है। कहानी की मुख्य पात्र कमरून उर्फ रश्के कमर उर्फ इमरती, जमीलुन्निसा उर्फ जलैबी उर्फ जलबाला लहरी और मोती उर्फ सदक आरा बेगम हैं। तीनों नारी पात्रों की अपनी अलग-अलग विशेषता है। कमरून और जमीलुद्दीन दोनों बहनें हैं। इनके उपनामों की भी अलग कहानी है जो लगभग नारी पर खुद अपना अधिकार न होने की ही तरह है। गरीबी और लाचारी में पली दोनों बहनों को पेट की भूख शांत करने के लिए स्टेशन, चौराहों, बाजार, मेले गाना-बजाना पड़ता था लिहाजा दर्शकों ने उनका एक अलग ही नाम रख दिया इमारती और जलेबी। क्योंकि यह नाम उनकी रोटी से जुड़ा था। लिहाजा लोगों से गाने के एवज में मिलने वाली इकन्नी-दुवन्नी की तरह ही इन्होंने मजाक में दिए उनके नामों को भी सिर आंखों पर ले लिया। जमीलुन जन्म से विकलांग थी। वह बगैर बैसाखी के नहीं चल पाती थी। मगर उसमें स्वाभिमान कूट-कूट कर भरा हुआ था। परिस्थितियों की आग में तपकर नारी का कोमल मन किस तरह कठोर से कठोरतम् हो जाता है इसकी जीती जागती मिसाल है जमीलुन। उसके हृदय की कोमलता और साफगोई की झलक इसी से मिल जाती है जब वर्मा साहब ने ‘स्विंग वर्ड्स क्लब’ में उसे अच्छा ओहदा देकर उसकी गायकी और कैरियर को नया मुकाम दिया तो वह अपने पिछले दिनों को याद कर अचानक फफक पड़ती है। पूछने पर वह बड़ी साफगोई से बताती है। रश्के कमर के यह कहने पर कि उसे हमदर्दी वसूल आदि से नफरत है और शर्म भी आती है।
जमीलुन तपाक से कह कह उठती ‘हमें नहीं आती शर्म! जब कुदरत को हमारी यह दशा बनाते शर्म नहीं आई तो हमें क्यों आए’। वही जमीलुन कमरुन को दूसरा लड़का होने पर फरहाद साहब से पेंशन दोगुनी करने के नाम पर उकसाती है मगर कमरुन इसके लिए तैयार नहीं होती। बाद में जब कमरुन उर्फ रश्के कमर अपनी बेटी माहपारा को लेकर उसके इरानी मूल के पिता शब-आवेज उर्फ शबदेग से मिलाने पाकिस्तान चली जाती है और उसका बेटा आफताब जमीलुन के सोने का कंगन छीनकर बम्बई भाग है तब बेसहारा होने के बावजूद जमीलुन फरहाद की दी हुई मदद नहीं लेती है। उसे इस बात को लेकर फरहाद से बेहद चिढ़ रहती है कि तमाम प्यार-मुहब्बत की दौलत लुटाने के बावजूद वह रश्के कमर से निकाह नहीं पढ़वाते हैं, उसे महज खेलने की चीज बनाकर रख देते हैं। यहां तक कि वर्मा साहब के स्विंग बड़र्स क्लब का काम बंद हो जाने और आकाशवाणी में गाने से बीमारी की वजह से लाचार होने के चलते उसे न तो माहवार पेंशन, न ही गाने के पैसे ही मिलते हैं। तब भी वह फरहाद साहब से कोई मदद नहीं लेती है। जब तक बस चलता है वह खाट पर पड़े-पड़े ही चिकन के कुर्ते में तुरपाई का काम करती है जिसके एवज में उसे २० रुपये मासिक मिल जाते है। इसके अलावा वह घर के एक हिस्से को किराये पर उठा देती है जिससे उसे कुछ और पैसे मिल जाते हैं। उन्ही से वह जैसे-तैसे अपना गुजारा करती है। आखिरी दिनों में उसके दोनों पाँव शून्य हो जाते है। घर में इलाज के लिए पैसे नहीं होते। इस बीच फरहाद साहब कई बार उसकी दशा पर तरस खाकर मदद के लिए पैसे भिजवाते हैं। मगर वह नहीं लेती। अंत में जब किरायेदार हफीजून ने चुपके से संदेश भिजवाया तो आगा फरहाद ने कुछ रुपये भेज दिए अपने सेक्रेटरी के हाथ। जब स्वाभिमानी जमीलुन को इस बारे में पता चला तो उसने उन पैसों से हफीजुन के आदमी बफाती को नया रिक्शा दिला दिया तथा जो पैसे बचे थे उससे उनके बच्चों के लिए नए कपड़े सिलवा दिए। लेकिन खुद के लिए धेला नहीं रखा।
कहानी में जमीलुन और कमरुन दो अलग-अलग नारी चरित्रों के रूप सामने हैं। कमरुन जहां सीधी-सादी प्रेम की प्रतिमूर्ति के तौर पर हैं तो जमीलून बिल्कुल यथार्थ के धरातल पर वास्तविकता का प्रतिनिधित्व करने वाली। उसने परिस्थितियों से समझौता कर लिया था। ऐसा लगता है कि जन्म से विकलांग होने के चलते उसमें दुनिया को एक तटस्थ व्यावहारिक नजरिये से परखने की क्षमता पैदा हो गई थी। यहाँ तक कि उसने अपनी बहन को भी आगाह किया जब वह शदबेग के प्यार में न्यौछावर हुई जा रही थी। मगर सच्चे प्यार की तलाश में भटकती कमरुन को उसकी हिदायतें नागवार गुजरी और उससे उसकी काली जबान को कोसने तक से परहेज नहीं किया। नारी चरित्र के बारे में कहा गया है कि अपने ख्यालों में वह एक समय में केवल एक ही पुरुष के प्रति समर्पित रहती है। कमरुन इस इबारत की मिशाल है। सबसे पहले तो उसने आगा फरहाद में अपना सच्चा प्यार तलाशने की कोशिश की। इसके लिए उसका समर्पण बगैर किसी स्वार्थ और धन लिप्सा के था। यहाँ तक कि जब जमीलुन उससे आफताब के नाम पर हिस्सेदारी के लिए दावा करने को कहती है तो उसे बुरा लग जाता है। आगा फरहाद की उपेक्षा से वह अपने प्यार का सम्बल शदवेगा में खोजती है। शदवेग उसे बड़े-बड़े सपने दीखते हुए शादी का वायदा करता है। इसी बीच उससे कमरून को एक बेटी महापारा होती है जिसका हिंदी नामकरण वर्माजी आम्रपाली के नाम से करते हैं। माँ की ममता उसे इस बात पर सोचने के लिए मजबूर करती है कि कहीं उसकी महापारा भी उसी की तरह जिन्दगी भर ठोकरें न खाती रहे, जबकि उसके बाप की ब्रिटेन, लंदन और पाकिस्तान में करोड़ों का कारोबार है। पिता से मिलाने के लिए और अपने सच्चे प्यार को दुबारा हासिल करने की लालसा उसे पाकिस्तान ले आती है। भूख और गरीबी से परेशान होकर माहपारा अपनी मां से अलग रहने लगती है। उसकी शोहबत गलत लोगों के साथ हो जाती है। उसके ठाठ-बार रईसों और अय्याशों वाले हैं जिसे देखकर रस्के को काफी चिंता होती है। और एक दिन यह उसे पता चलता है कि उसकी माहपारा कराची गैंगवार की शिकार बन गई है। इस दुःख ने रश्के कमर को पागल बना दिया। वह उसकी लाश के पास जोर-जोर से चिल्लाती है- ‘वर्मा साहब आपकी आम्रपाली नहीं रही।’
विडंबना दोनों ही नाम हिन्दू होने की वजह से उसे पाकिस्तान में भारतीय जासूस मानकर और मानसिक रोग चिकित्सालय भेज दिया जाता है। जापानी दंपत्ति की मदद से वह जैसे-तैसे फिर मुंबई होते हुए लखनऊ आती है। यहां भी उसे अपना लुटा-पिटा संसार ही हाथ आता है। आगा फरहाद जो ले देकर महापारा में एक सहारा बचे थे उन्हें भी कैंसर जैसी लाइलाज बीमारी ने जकड़ लिया। वे अपना-कराने के लिए बाहर रहने वाले अपने दामाद के यहां चले जाते हैं, इस दुविधा के साथ कि वे फिर लौट कर आ पाएं या नहीं। हालांकि, अपने आखिरी खत में उन्होंने रश्केकमर और जमीलुन से माफी माँग ली, लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है, न तो जमीलुन और न ही कमरून के पहाड़ जैसे दुखों को।
कुरुतुल ऐन ने अपनी कहानी में नारी जीवन की जिस त्रासदीपूर्ण स्थितियों का बखान किया है उस पर हिन्दी के प्रख्यात कवि जयशंकर प्रसाद की ये पक्तिया बिल्कुल सटीक बैठती हैं – ‘अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी / आँचल में है दुध और आंखों में पानी’। कहानी के पुरुष पात्र आगा फरहाद, नरेन्द्र कुमार वर्मा और शदबेग भोगवादी संस्कृति के प्रेरणा-पुंज के रूप में हैं। इनके लिए स्त्री की देह उसके हुनर और कौशल का महत्व महज भोगवादी नजरिये से ही है। इससे ज्यादा उनके लिए स्त्री की कोई अहमियत नहीं। दरअसल कहानी में जमीलन, कमरून और मोती को इन्होंने सिर्फ अपने मंसूबों को पूरा करने का महज औजार बनाया। इसके लिए जैसे चाहा उनक इस्तेमाल किया मगर इन्हें इनका वाजिब हक कभी नहीं दिया। यहां तक कि वर्मा साहब ने जमीलुन को जलबाला लहरी नाम इसलिए दिया क्योंकि इससे उसके बंगाली होने का बोध हो और श्रोता उसे बाहर का समझे। अपने साथ रहने वाली मोती का बदलकर उसे सदल आरा बेगम कर दिया। आदर्श की तमाम बातों की फूंक मारने वाले वर्मा साहब ने मोती को कभी बीबी का दर्जा नहीं दिया जबकि वह वर्षों उनके चरण पीती रही। मगर किस्मत का लेखा कौन बाच पाया है। वर्मा साहब ने अंत में एक मोटी गुजराती डॉक्टरनी से शादी कर ली। उधर एक कार्यक्रम के दौरान एक अमेरिकी को सदफ पसंद आ गई। वह उसे कोर्ट मैरिज कराकर अपने साथ विदेश ले गया। कहानी में न सिर्फ देसज बोलों का इस्तेमाल किया गया है बल्कि इसमें भाषा को चुटीला बनाए रखने को मुहावरों का भी इस्तेमाल किया गया है। कहानी की शुरूआत ही ‘लगा के चंदन चले गुसाई’ के बोलों पर भूरे कौव्वाल की हाँक से होती है जिसमें कालीन मुस्लिम समाज के नई रीति रिवाज पिछड़ेपन और मान्यताओं की दास्तान छिपी हुई है। उसे मेले पर हण्डेशाह के बारे में बताते हुए कुर्रुतुल बड़ी साफगोई से इस बात को स्वीकार करती हैं कि थे कभी ये भी या नहीं, किसी को नहीं पता; मगर यहां लगने वाले मेले में तेली, जुलाहे, कुंजड़े, कसाई, भड़भूजे, किसान, खेतिहर-मजदूर और गरीब गुरबे गरीबामटू उर्स में जुटते हैं और अपने मंसूबों मनौतियों को पूरा करने के लिए दुआ माँगते हैं।
कहानी के संवाद कहीं-कहीं इतने संजीद और मारक हैं कि दिल को छु लेते हैं। ऐसा ही एक संवाद कराची मेंपुलिस के मुर्दाघर का है जहां रश्के कमर अपनी बेटी महापारा का लाश लेने जाती है।
“मरने वाली के बाप का नाम?” पुलिस-अफसर पूछता है।
“बाप का नाम….कुदरते खुदा लिख दीजिए”।
“अजीब नाम है”!
“हर नाम अजीब होता है। ”
” मकतूल का पासपोर्ट नंबर….”
” सिफर…. सिफर…सिफर…”
“ठीक-ठीक बताओ। ”
“लाश का पासपोर्ट नंबर? जीरो…जीरो..जीरो.. ”
“लाश का पासपोर्ट? हा..हा..हा”
“बहुत बड़ी मंजिलें अदम..अदम..अदम..अजी छाप-तिलक सब छीनी मेसे नेहा लगाय के…छाप-तिलक – खुसरो निजाम के बली- बली जाऊं …बलि बलि बलि।” उसने फिरकी की मानिंद चक्कर लगाना शुरू कर दिया। उसका जुड़ा खुल गया और लंबे लंबे बाल शानों पर बिखर गए। अब वह जबान निकालकर लट्ट की तर घुमाने लगी..। जैसे जिंदगी के मरघट पर काली नाचती है। दो सिपाही उसे मुश्किल से पकड़कर बाहर एम्बुलेंस तक ले गए।
कुरुतुल ऐन हैदर के समृद्ध लेखन ने उर्दू साहित्य की आधुनिक धारा को एक दिशा दी है। १९४७ में प्रकाशित इनके पहले कहानी संग्रह ‘सितारों से आगे’ को उर्दू बन्ई कहानी का प्रस्थान बिन्दु माना जाता है। ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ प्राप्त कुरुतुल ऐन यह कहानी उनके कला-कौशल और चिंतन शैली का एक श्रेष्ठ उदाहरण है, जो इस बात का सबूत है कि इनकी कहानियों में किस तरह विस्तृत फलक में भारतीय महाद्वीप के इतिहास एवं संस्कृति की पृष्ठभूमि निहित रहती है। यह कम बड़ी बात नहीं है कि नारी के दुखों को उजागर करने के लिए कुरुतुल एन ने एक बेहद गरीब और खानाबदोश टाइप तबके की दशा पर अपनी लेखनी चलाई। जमीलुन जो जन्म से लंगड़ी थी और जिसके पैदा होते ही उसकी माँ चल बसी। बहन रश्के कमर के उसका लालन-पालन खाला ने किया। तीनों बेसहारों के सरपरस्त बने जुम्मन मियां खुद सगे नहीं थे। उनका कोई परिवार ही नहीं था। लिहाजा मजदूरों की चौकड़ी ने मिलकर जीवन की गाड़ी साथ-साथ आपसी सहयोग से खींचने का बीड़ा उठाया। एक और कथा पात्रा मोती उर्फ सदफआरा के पिता उसको बड़ी कम उम्र में ही कर बड़े लगभग बूढ़े व्यक्ति को बेच देते हैं जिसकी जल्द ही मृत्यु हो जाती है। ले-देकर बेसहारा मोती वर्मा साहब में अपनी बाकी बची जिंदगी का सहारा खोजती है मगर वह पालतू बिल्ली से ज्यादा ऊंचा ओहदा उसे कभी नहीं देते है। कहानी का अहम हिस्सा जमीलुन और कमरूल द्वारा एक-दूसरे को लिखी गई दर्द से सनी चिट्ठियां इतनी बड़ी है कि मिलकर अलग एक कहानी बन सकती है। मगर इसे लेखिका की बेजोड प्रस्तुतिकरण ही कहा जाएगा कि ये कहीं से भी बीच से ठुसी हुई नहीं लगती, बल्कि कहानी का अहम हिस्सा मालूम होती है। शब्दों की कसावट और घटनाओं का वर्णन इतना सटीक बन पड़ा है कि २३ पृष्ठ की यह कहानी कहीं से पाठकों से अलग नहीं होती है। शुरू से अंत तक पाठक इसके सम्मोहन में बंधा रहता है। कहानी का अंत भी स्त्री की दशा की तरह ही है।
अवध के अंचलों में कहानी का शीर्षक एक लोकाक्ति के रूप में काफी से प्रचलित रहा है-
‘ओ रे विधाता विनती करूँ तोरी पैंयाँ पडूँ बारम्बार,
अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो, चाहे नरक दीजो डार।’
लोकोक्ति की सम्पूर्ण व्याख्या प्रस्तुत करती है कुर्रुतुल ऐन की यह कहानी। कहानी को पढ़कर आसानी से समझा जा सकता है कि क्यों स्त्री का जीवन अभिशाप है और कई मायनों में यह नरक से भी बदतर है। क्यों औरत बेटी बनकर जनने के बदले विधाता से नरक का असह्य कष्ट मांगती है? जाहिर है अगर कमरून, जमीलन और मोती लड़का बनकर संसार में पैदा हुई होती तो उन्हें इतने कष्ट नहीं उठाने पड़ते। इस लिहाज से देखा जाए तो उक्त कहानी नारी जीवन की त्रासदी का दस्तावेज है जिसे पढ़कर उन दुखों से अवगत हुआ जा सकता है जो स्त्री होने के अभिशाप के रूप में सिर्फ वही झेलती है। क़ुर्रतुल ऐन की कहानी में स्त्री के दर्द भरे जिस कोने को छुआ गया है वे आज भी कमोबेश उसी रूपों में विद्यमान हैं। इनमें कोई खास फर्क नहीं आया है। ऐसे में कहानी की प्रासंगिकता अपने समकाल में भी बरकरार है।
मानविकी, समाज, इतिहास, दर्शन, राजनीति, अध्यात्म, सभ्यताओं के संघर्ष और सांस्कृतिक परिवर्तनशीलता पर बेबाकी से अपने विचार रखने वाली कुर्रतुल ऐन हैदर ने सदैव से रचनात्मक विविधता में रंग भरे, फिर चाहे वह उपन्यास, कहानी, लेख, समीक्षा, संस्मरण, आत्मकथा, रिपोर्ताज, अनुवाद हो या फिर पेटिंग या फ़ोटोग्राफ़ी।
क़ुर्रतुल ऐन हैदर आज़ादी के बाद भारतीय फ़िक्शन का सबसे मजबूत स्तंभ मानी जाती थीं। वह साहित्य अकादमी में उर्दू सलाहकार बोर्ड की दो बार सदस्य रहीं। विजिटिंग प्रोफेसर के रूप में वह जामिया इस्लामिया विश्वविद्यालय, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से जुड़ीं। वह कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में अतिथि प्रोफेसर भी रहीं। ऐनी आपा ने जीवन भर लिखा और जमकर लिखा। कुर्रतुल ऐन हैदर माला का एक मनका है जो आमिर खुसरो, तुलसीदास, कबीर जैसे मानकों से बनी है।
– नीरज कृष्ण