जयतु संस्कृतम्
कविता
गीताजयन्त्युपलक्ष्ये
येन गीता सुगेया न गीता सखे
येन गीता सुपेया न पीता सखे।
येन गीता न बुद्ध्या गृहीता सखे
तेन मूढेन वेला व्यतीता सखे।।१।।
कृष्णवाणी सुधेयं सुगीता सखे
ब्रह्मजीवैकतेयं सुगीता सखे।
संस्कृतेः रक्षिकेयं सुगीता सखे
कल्पवृक्षात्मिकेयं सुगीता सखे।।२।।
मातृरूपाsस्मदीया सुगीता सखे
श्रोतृपेया सुरम्या सुगीता सखे।
सर्वशान्तिप्रदेया सुगीता सखे
सर्वथा सर्वसेव्या सुगीता सखे।।३।।
आत्मपार्थस्य भक्तिर्हि गीता सखे
भारतस्यात्मशक्तिर्हि गीता सखे।
व्यक्तिमात्रस्य मुक्तिर्हि गीता सखे
सर्वसामान्यदृष्टिर्हि गीता सखे।।४।।
ज्ञानलीनस्य लाभाय गीता सखे
ज्ञानहीनस्य लाभाय गीता सखे।
ज्ञानदूरस्य लाभाय गीता सखे
ज्ञानदग्धस्य लाभाय गीता सखे।।५।।
सर्वबुद्ध्या सुपूज्या सुगीता सखे
वन्दनीया मदीया सुगीता सखे।
जीवनस्य प्रमूल्या सुगीता सखे
नान्यकाचिद्यथेयं सुगीता सखे।।६।।
सर्वकष्टाच्च मुक्त्यै सुगीता सखे
सर्वसिद्ध्यै समृद्ध्यै सुगीता सखे।
भारतीयत्ववृद्ध्यै सुगीता सखे।
सर्वतस्सर्वशान्त्यै सुगीता सखे।।७।।
ज्ञानमाप्तुं रट त्वं सुगीतां सखे
भक्तिमाप्तुं पठ त्वं सुगीतां सखे।
शक्तिमाप्तुं स्मर त्वं सुगीतां सखे
मुक्तिमाप्तुं भज त्वं सुगीतां सखे।।८।।
– डॉ. शशिकान्त शास्त्री