उभरते-स्वर
कविता लिखती हुई स्त्री
कल तक जो सपनों को
कैद में रखा करती थीं
आज वे ही स्त्रियाँ दिखीं मुझे
कविता लिखती हुईं
धरातल और आसमान
के बीच फर्क करवातीं वो स्त्रियाँ
शब्द शब्द में भेद मितातीं
अपने वजूद का एहसास करवातीं
समाज को ख़ुद से परिचित करवातीं
मैं मैं हूँ ये जतलातीं
कविता लिखती हुई ये स्त्रियाँ
कभी-कभी अपने ही बनाये
विचारों में उलझती और सुलझती ये स्त्रियाँ
एक दूसरे पर फब्तियाँ कसती हुईं
न जाने कब
अपने ही लिखे और कहे शब्दों से मुकरती हुई ये स्त्रियाँ
आज फिर
अनजाने में मुझे मिलीं
ये स्त्रियाँ
और मैंने आज फिर से देखा इन्हें
कविताओं और शब्दों के
जाल को बुनते और खोलते हुए
जहाँ सिर्फ नज़र आया
बाज़ार
अपने ही द्वारा बुने गये
शब्दों को कुकुरमुत्ता कहते हुए
दिखीं मुझे ये स्त्रियाँ
कविता लिखती है जब कोई स्त्री
अपनी भावनाओं को
शब्दों में कैद कर
आसमान से फूलों की तरह बिखेरती हैं
ये स्त्रियाँ
आज फिर से
जज़्बात में समाती हुई मिलीं मुझे
कविता लिखते हुए
ये स्त्रियाँ
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मैं बस देह नहीं हूँ
अक्सर मेरी ज़ुल्फ़ों से खेलते हुए
तुम्हारी उँगलियाँ
मेरे होठों को छूतीं
वक्षों को टटोलती हुई
कमर पर आकर टिक जाती हैं
और मैं
अरमानों की चिता सजाये बैठी हूँ
जानती हूँ
ये प्रेम
ये एहसास
ये स्पर्श
बस बंद कमरे के भीतर
अँधेरी रातों के लिए सजाते हो
आज मैं
चीख-चीख कर कहती हूँ
सपनों की घुटन में
नहीं जीना है मुझको
मैं बस देह नहीं हूँ
मैं बस देह नहीं हूँ
– रश्मि सिंह