मूल्यांकन
कविता की स्वदेशी तेजस्विता
आज के समय में डॉ. विजय बहादुर सिंह चौहान की पहचान भवानीप्रसाद मिश्र रचनावली के सम्पादक के रूप में है। इस पुस्तक ‘कविता की स्वदेशी तेजस्विता’ में उन्होंने भवानीप्रसाद मिश्र के समग्र लेखन को समेटने की कोशिश की है, जिसे कुछ भागों में बांटा है-
आग और पानी का मेल था कवि का व्यक्तित्व
एक बेहद सरल और सहज व्यक्तित्व का कवि जो महानगर में रहकर भी अपने ठेठ गंवई देसीपन को बचाकर रख पाया और ये सहजता साधारण दिखकर भी असाधारण है, ऊपर से नारियल-सा कवच धारण करता है और अंदर से कोमल है। हरिशंकर परसाई ने उनके लिए लिखा है, “ऐसा आदमी कम होता है जो एक साथ डर और आकर्षण पैदा करे।” शहर के लोग कहते हैं अजीब प्राणी है, जिसके दिल में ज़रूरत से ज़्यादा आग और आँखों में ज़रूरत से ज़्यादा पानी है। वे कभी भी किसी के पिछलग्गू होना नहीं स्वीकारते, इसलिए अपनी असाधारणता को भी साधारण बनाये रखते हैं। उनकी कविता लोकबोध की अखण्ड यात्रा है, इसीलिए वे आग और पानी के कवि हैं।
एक असहमत कवि
उनका मानना था कि कविता की अभिव्यक्तियाँ साफ-सुथरी और दो टूक होनी चाहिए। कवि को किसी वाद विशेष से बंधे रहकर सृजन नहीं करना चाहिए, ऐसा सृजन कवि से उसकी स्वाधीनता छीन लेता है। कवि की अपनी मौलिक और स्वतंत्र दृष्टि होनी चाहिए, जितनी दूर तक उसकी निगाह जाती है, उतना ही उसके रचनाकर्म का स्वाभाविक विकास होता है। कवि को अपनी आत्मा की स्वाधीनता के उजाले में अन्यायी सत्ता से आँखें मिलाने का साहस तभी मिल सकता है।
उनका मानना था कि कविता में न तो प्रचार हो, न वर्गपरक हो और न ही प्रयोगवादियों की तरह अतिबौद्धिक और दुरूह …कविता तरल, सरल, सहज प्रवाहमयी और प्रांजल हो। कविता में से कवि की आत्मा झाँकती हो, सहज संप्रेषणीय हो। इतना कि उसने अपने समय के समाज को इतना समझ लिया हो कि समाज उसकी रचनाधर्मिता से प्रवाहित हो रहा हो। कवि बूँद होकर समुद्र में समाया हो और बूँदें ही समुद्र की हर लहर में उछालें भरती हों। कविता सम्पूर्ण के लिए हो, मात्र कवि समुदाय के ही लिए नहीं, कवि लोक का कवि हो तो साहित्य का स्वतः ही हुआ समझो। तुलसी, मीरा, सूर, कबीर इसी परम्परा के कवि हैं। वे लोक के, जन के कवि पहले हैं, साहित्य के बाद में। देश हमेशा कविता में एक जीते जागते यथार्थ के रूप में मौजूद होना चाहिए, जिसमें खेत-खलिहान, जंगल, पहाड़, नदी सब समाहित हों। जिसमें से कवि की जिजीविषा झाँकती हो भले ही वो उदास हो, व्यथित हो, बैचेन हो, पर निराश नहीं।
मैं सन्नाटा हूँ फिर भी बोल रहा हूँ
है यह रहस्य मैं इसको खोल रहा हूँ
या
सतपुड़ा के घने जंगल ऊंघते अनमने जंगल
कोई है कोई है कोई है जिसकी ज़िन्दगी दूध की धोई है
उनकी कविताओं में सूक्ष्म व्यंजना है, असहमति के स्वर हैं किन्तु पलायन और नैराश्य नहीं, यही एक असहमत कवि के तीव्र स्वर हैं जो किसी वाद के झंडे तले अपनी आब नहीं खोते और अपनी स्वाधीनता में मुखरित होते हैं।
कवि की जनपक्षधरता
किसी भी वाद,विचारधारा और सिद्धांत का लेबल उन्होंने अपने ऊपर न चस्पा होने दिया। न ही वे छायावादियों से अलौकिक, न ही प्रयोगवादियों से गर्वोन्मत्त, न प्रगतिवादियों से चपल और व्यवहारिक बल्कि वे साहित्य के तमाम मज़मों और जलसों से दूर न रहकर भी अपनी साहित्य साधना में रत रहे। उन्होंने स्कूलों में पढ़ाई जा रही सभ्यता की शिक्षा को नकार कर अपनी नई परिभाषा गढ़ी।
*आप सभ्य हैं क्योंकि हवा में उड़ पाते हैं ऊपर, आप सभ्य हैं क्योंकि आग बरसा देते हैं भू पर/ आप सभ्य हैं क्योंकि धान से भरी है आपकी कोठी, आप सभ्य हैं क्योंकि ज़ोर ज़ोर से पढ़ पाते हैं पोथी*
कवितायेँ में जो चिंतायें हैं वे दर्शाती हैं सभ्यता का असली अर्थ भोग नहीं वरन मानवीय होना है, नीति सम्मत आचरण करना है। अपने सुखों को सुनिश्चित करते हुए दूसरों के सुखों के निमित्त भी कुछ करने की भावना मन में होना है जबकि पश्चिम की सभ्यता सिर्फ अपने सुखों और स्वार्थों की चिंता करती है, उसी के लिए जीती है। देखा जाये तो एक हद तक अमानवीय भी।
समकालीन कविता के इतिहास में सभ्यता की मशाल बन आगे चलने वाले कवियों में एक नाम भवानीशंकर मिश्र का भी है जो लोक के कवि हैं पाठकों का एक बहुत बड़ा तबका इनकी कविताओं को जीता है,.यही इनकी पक्षधरता है।
*पूरब की ओर मुँह खड़ा किये कवि*
वे एक विरले कवि थे,वे कविता से किसी चमत्कार या विचित्रता की अनुभूति न कराकर जीवन को उसके वैसे ही रूप में व्यक्त करने के हामी थे। उनकी कविताओं में हम अपने आसपास के गतिशील संसार में विचरते महसूस करते हैं,.जैसे कविता के बीच में कुछ दृश्यों में हम स्वयं को एकाकार पाते हैं। भवानीप्रसाद ने इस समय की प्रचलित कविताई से खुद को दूर रखा *कबीर,तुलसी,प्रेमचन्द,गोर्की की तरह वे सदा जनमानस के साथ लोक में रहे* वे कहते थे जैसा बोलते हो वैसा ही लिखकर दिखाओ। जैसे हो वैसे ही रहो एक ऐसी चेतना विकसित करो जो आत्मरति ग्रस्त न हो न ही किन्हीं बौद्धिक दंभों और आत्मछलावों की अभिव्यक्ति हो। उनके दर्शन में भारतीय साहित्य और संस्कृति में मनुष्य कभी प्रकृति से विलग नहीं रहा किन्तु बाद में जो शहरीकरण और औद्योगीकरण की संस्कृति जन्मी उसने प्रकृति से हमें काट दिया और इसकी पीड़ा हम झेल रहे हैं,.इस सन्दर्भ में कवि का ये कहना गौरतलब है—– *मैंने कवि बनने के दौरान पश्चिम को कम प्राचीन भारतीय साहित्य को खूब पढ़ा और इस पढ़ाई ने ही मेरे कवि को गढ़ा* *खुशबू के शिलालेख* (1973) फूल की तरह छोटा एक टुकड़ा बादल का क्षितिज पर जाते हुए सूरज के वृंत पर खिल गया है। अद्भुत और अनिवर्चनीय आनन्द अनुभूत कराती है ये कविता
कवि का पुरुषार्थ यही है कड़ियों से छिटके पड़े जीवन को कड़ी से कड़ी जोड़ते हुए कवि अपने समय की फौरी किन्तु ज़रूरी मानी जाने वाली कविता से भिन्न दिशा की ओर चला गया है मगर उसके अपने खुद के शब्दों में सबसे प्रधान दिशा तो पूरब ही है।
*विरोध की आज़ादी का कवि*
किसी भी कवि के लिए प्रत्यक्ष राजनीति की भागीदारी कोई शर्त नहीं मानी गई। कभी इस आधार पर किसी कवि का मूल्यांकन करना भी साहित्य समीक्षा की कोई श्रेष्ठता या कसौटी नहीं माना गया। कोई कवि आंदोलन में भाग न ले पर यह तो देखा ही जाता है कि जब देश की जनता अपनी ही अलोकतांत्रिक सत्ता शक्तियों के प्रति किसी ज्वारग्रस्त महासागर की तरह क्षुब्ध -प्रक्षुब्ध थी,हमारे लेखक और कविगण कहाँ कहाँ किन दरारों में रेंग फिर रहे थे?
*सानुपात इन झुकावों से जी सज गया है और जब कभी झाँकता हूँ भीतर तो वहाँ एक तरह का साफ सुथरापन लगता है इनके कारण भीतर का वातावरण अपना ही कुछ रहस्यमय लगता है*
किसी विचार को मुखौटा बना कर पहनने वालों की भीड़ में विचार के प्रति जैसी गहरी निष्ठा और उसकी ताकत के प्रति जैसा अखण्ड विश्वास कवि भवानीप्रसाद मिश्र के पास था,.इसके असंख्य प्रमाण उनकी कविताओं में बिखरे पड़े मिलते हैं।
*हमने जो दाने बीने हैं क्या वे भूख के लिए नहीं बीने हैं अल्पना के लिए बीने हैं और उससे भी ज़्यादा क्या किसी कल्पना के लिए बीने हैं*
पता नहीं हमारे समय की कविता के लिए ये प्रश्न कितने प्रासंगिक हैं जिसे इस कविता में उन्होंने रघुवीर सहाय से पूछा था।
*कविता की स्वदेशी तेजस्विता*
कवि भवानीप्रसाद मिश्र अपने समय के कवियों में अपना मौलिक व्यक्तित्व लेकर आये थे, किसी की छाप उन पर नहीं थी। तमाम तरह के दर्शन,वाद,विचारों से बाख़बर रहते हुए भी उनकी दृष्टि उस सत्य और जीवन अनुभव पर टिकी रहती थी जिसे सिर्फ काव्य प्रतिभा ने ही नहीं एक सम्पूर्ण दुनिया ने अपने आसपास से अर्जित किया था। उनके जैसा बनने की बहुतों ने कोशिश की किन्तु सम्भव नहीं हो सका,.उनमें सहजता नैसर्गिक थी जो सबमें नहीं मिलती।
1930 की जनवरी में सत्रह साल के किशोर कवि भवानीप्रसाद मिश्र की कविता ने खुद अपने लिए जो चारित्रिक शील तय किया था वह ज़माने के सारे कवियों से भिन्न था।
यह कि– *तेरी भर न हो तो कह और सारे ढंग से बहते बने तो बह जिस तरह हम बोलते हैं उस तरह तू लिख और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख*
काव्य वस्तु से अधिक जब कवि कथन की प्रबलता के साथ काव्येत्तर प्रतिमानों यथा नयापन आधुनिकता का आग्रह अधिक हो तब भवानीप्रसाद मिश्र कहते हैं कवि न नया होता है न पुराना वह केवल कवि होता है। और प्रत्येक स्थिति में उसके होने का सबसे बड़ा निर्द्वंद अर्थ होता है कि जब भय और स्वार्थ से तमाम अभिजात,अनाभिजात बौद्धिक आवाजें जिस तिस रणनीति के तहत चुप्पी साध लेती हैं या हामीकार बन जाती हैं कवि की आवाज़ आरपार के इस अँधेरे को चीरती हुई सुनाई देती है।
ऐसा वही कवि कह सकता है जो दुर्गम और पथरीले बीहड़ इलाकों से गुज़रा हो,.जो बानी की आवाज़ को सहज मान अभिव्यक्त होता रहा हो। ऐसा ही कवि जो सन्नाटे से संवाद कर सकता हो कवि के लिए बुनियादी कसौटी यही है,.कि उसकी कविता की सहज प्रवृति तो उस लोक के प्रति होनी चाहिए जिसमें धरती, आकाश, हवा, पानी आग के साथ समूचा जीवजगत साँस ले रहा है,.जहाँ पहाड़ों का मौन संवाद भी है,.नर्मदा का रव भी और पहाड़ी झरनों का झरझर संगीत भी और ये तमाम ध्वनियाँ,ब्रम्हाण्डीय अनुगूंजें उनकी कविताओं में स्वर समारोह संयोजित करती हैं। यह समकालीन कविता की एक दुर्लभ उपलब्धि है।
पश्चिम के अंधड़ में भटकी कविता अपने मूल स्थान पर लौटने को बेक़रार है,..पुकार रही है और उसे इस अंधड़ से निकालेगा वही कवि जिसका स्व थोडा-सा भी जाग जाए, जिसकी रीढ़ सीधी हो, आँखे सजग हों और चित्त निर्भय। ऐसे ही कवि हैं जिनकी मुद्रा कभी निस्तेज नहीं होती।
*मैं सन्नाटा हूँ फिर भी बोल रहा हूँ*
घर -परिवार, देश और समाज इनके लिए कोई अलग-अलग घेरे नहीं थे इसलिए कवि को सतपुड़ा के जंगल और पहाड़ किसी देश से कम नहीं लगा करते थे।
*बन सके तो धँसो इनमें, धँस न पाती हवा जिसमें*
चुनौती,ललकार और कुछ-कुछ उपदेश भी कवि इसकी साधना उम्र भर करता रहा।
सन्नाटा सितम्बर 1936 की रचना है। जब वे इंडियन प्रेस इलाहाबाद की ओर से छिंदवाड़ा की संस्कृत शिक्षकी छोड़ राष्ट्रभाषा प्रचार का काम देख रहे थे। गुजरात प्रदेश के बड़ौदा शहर के किसी होटल या लॉज में अपने दिन काटते हुए यहीं किसी दिन उन्होंने सन्नाटा लिख डाली थी। जिसमें एक राजा की एक रानी है और रानी का एक प्रेमी है जो पागल है और इनकी कहानी सुनाने वाला एक नैरेटर है-सन्नाटा जो उस पागल बांसुरी वाले की कहानी सुनाता है।
*मैं सूने में रहता हूँ ऐसा सूना जहाँ घास ऊगा रहता है ऊना और झाड़ कुछ इमली के कुछ पीपल के अंधकार जिनसे होता है दूना*
सन्नाटा उनकी ऐसी कविता है जो यथार्थ को उसके बेडौल नग्न रूप में प्रस्तुत करती है। सन्नाटा सूत्रधार भी है कथानायक भी और गायक भी देखिये एक नाटकीय पंक्ति– लो पहले अपना नाम बता दूँ तुमको, फिर चुपके चुपके धाम बता दूँ तुमको, तुम चौंक नहीं पड़ना यदि धीमे धीमे मैं अपना कोई काम बता दूँ तुमको पाठक को अपनी गिरफ़्त में लेने का यह नाटकीय कौशल कॉलरिज की राइम ऑफ़ दी एशियन्ट मेरिनर में दिखाई देता है,.जिसमें एक बूढ़ा नाविक जब तक किसी को अपनी पूरी गाथा नहीं सुना डालता, बैचेन रहता है।
सन्नाटा के माध्यम से उन्होंने *मूल्यबोध* को रचा है जिसकी वर्णात्मक शैली और कथ्य उनकी काव्य सामर्थ्य को बताती है।
*वाणी की दीनता अपनी मैं चीन्हता*
*कवि का कहना था कि कवि के शब्द कर्म प्रेरित हों, कोरे विचारों से फूटे शब्द न हों, कवि द्वारा जिए गए और कमाए गए शब्द हों इन शब्दों में ही कवि का सागर हरहराता है*
किसान की तान गाती है,अंकुर हंसता है,कोयल का गान रस घोलता है,सावन बरसता है।
वाणी का बड़प्पन यही है कि वह समय के अँधेरे में किसी रोशनी की तरह चमके किन्तु जब तक शब्द और कर्म एक नहीं होंगे जीवन के अनुभव की आँच में नहीं तपेंगे चमक आएगी कहाँ से? यह तब ही सम्भव हो सकेगा जब कवि भी समूचे निसर्ग और सभ्यता का हिस्सा हो सके, कविता उसका अंशकालीन *शब्दव्यापार* न हो। बल्कि उसे अपने शब्दों पर मर मिटने की दीवानगी आती हो।
*कवि भवानीप्रसाद मिश्र की भाषादृष्टि*
वे कहते थे. कवि की पकड़ उसकी भाषा के माध्यम से पाठकों के ह्रदय तक होनी चाहिए, किसी भी भाषा का स्वरूप उसकी बोलचाल से जितना निकट होगा उतना संवरेगा, किसी भी शैली या शिल्प में गठी कविता हो अन्ततः वह होती तो लोक के मन की अभिव्यक्ति ही है अतः उसे अपना यह शील नहीं छोड़ना चाहिए।
आज की कविता प्रगतिशील और आधुनिक होने के नाम पर एक वर्ग विशेष के द्वारा उन्हीं के लिए लिखी जा रही है,जहाँ सिर्फ *मैं* है यही मैं तय करता है जीवनशैली ,यही लोगों को बताता है,.सिखाता है सिर्फ खुद से प्यार करना औरों को नकारना स्वयं को श्रेष्ठ साबित कर दूसरों को हेय समझना जैसे वे कुछ हैं ही नहीं,ऐसी दुनिया रचकर जिसमें अपने देश समाज के लोगों से उनके सच्चे और बुनियादी अनुभवों से कोई वास्ता ही नहीं हो। इसीलिए कवि ने सचेत होकर अपने कवि के लिए दो अनिवार्य शर्तें रखीं।
*यह कि तेरी भर न हो तो कह और बहते बने सादे ढंग से तो बह जिस तरह हम बोलते हैं उस तरह तू लिख*
कहना यह चाहिए कि यह केवल भाषा का प्रश्न नहीं है,राष्ट्रीय चेतना और जन चेतना का भी है। जो कविता में कहा गया, बजना भी चाहिए। वे कहते हैं मैं अर्थ नहीं अक्षर लिखता हूँ। और उनके इस दावे का सर्वश्रेष्ठ प्रमाण उनकी कविता *गीतफरोश* है।
*अपनी स्वाधीनता का समारोह रचता कवि*
उनकी अपनी स्वनिर्मित शैली थी जिसके बरअक्स *दूसरा सप्तक* के पहले कवि होकर भी वे न शमशेर के साथ हैं, न नरेश मेहता और न ही धर्मवीर भारती के। यदि कुछ निकटता पाई जाती है तो रघुवीर सहाय से, जिनके काव्य-शिल्प को लेकर उन्होंने चर्चित काव्य-संवाद किया है।
कवि बनकर स्वयं को अन्य लोगों से विशिष्ट या अद्वितीय समझना-समझाना भी उनकी दृष्टि में कविता से अतिरिक्त लाभ कमाना है। वे दिल्ली में रहकर भी कभी दिल्ली जैसा सोच और लिख नहीं पाये। वे एक सम्पूर्ण जीवन के प्रवाहमान कवि होकर जिये। ये सम्भवतया हिंदी के पहले कवि हैं जो बार-बार जंगल या अरण्य को याद करते हैं। एक आंचलिक गन्ध। से जीवन को महकाने वाला कवि नदी, पहाड़, बीहड़ सबको रचता रहा। वे अपनी परम्पराओं पर पड़ी हुई धूल को उसकी परतों को हटाकर चेतना के विकास को तरज़ीह देते थे।
वे मानते थे, कविता का स्वावलम्बन यही है। उसकी सच्ची स्वाधीनता इन्ही गुलामियों से मुक्त होने में है। इस रूप में वे बीसवीं सदी के एक ऐसे सांस्कृतिक योद्धा रहे जिन पर उन सारे लोगों की नज़र पड़ना चाहिए जो इस ग्लोबल आंधी में अपना घर परिवार,खेत खलिहान समाज और देश किसी भी हालत में बचाना चाहते हैं। और वे सारे मनुष्य भी जिन्हें लोकतन्त्र और उसकी स्वाधीनता प्रिय है।
समीक्ष्य पुस्तक- कविता की स्वदेशी तेजस्विता
रचनाकार- भवानीप्रसाद मिश्र
संपादक- डॉ. विजय बहादुर सिंह चौहान
– आरती तिवारी अंजलि