कविताएँ
(चंद्रभान बिश्नोई राजस्थान की पत्थर नगरी जोधपुर के निवासी हैं। पेशे से अध्यापक हैं और अपनी भारी और साफ़-सुथरी आवाज़ के बूते आकाशवाणी केंद्र में अनाउंसर की हैसियत से दखल रखते हैं। शौकिया तौर पर कविता भी करते हैं तो साथ ही साहित्य पढ़ने की भी अच्छी रूचि रखते हैं।
ये सही है कि चंद्रभान के अन्दर का युवा कवि हालांकि अभी मंजे हुए रचनाकारों की तरह सुगढ़ और परिपक्व कविताएँ नहीं लिख पाता लेकिन इनकी रचनाओं में भविष्य के अच्छे रचनाकार की संभावनाएं ज़रूर मिलती हैं। प्रकृति से लगाव और उसका प्रभावशाली चित्रण इनकी कविताओं में सहज दिखलाई पड़ता है। गहन चिंतन दृष्टि, बिगड़ते पर्यावरण और गुम होती मानवता की चिंता इनकी कविताओं को मुखर बनाती हैं।)
खेजड़ी का पेड़
सुदूर रेगिस्तान में खड़ा
खेजड़ी का पेड़
सोचता है
काश! मैं भी
नदी के किनारे होता
मैं यूँ ठूंठ नहीं होता
मेरी छाँव भी घनी होती
लू के झोंके
झकझोर नहीं पाते मुझे
लेकिन जबसे उसे मालूम हुआ
नदी के किनारे
उसकी जड़ें उससे
दूर नहीं फैल पाती
वहाँ वह इस विराट को
नहीं पा सकता
तब से
उसे अपने
रेगिस्तान में होने का
कोई मलाल नहीं है
अब वो खुश है
अपनी दूर तलक
गहराई तक जाती जड़ों को
देखकर
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हरियल पेड़ की छांव में
खेत के उस पार खड़े
हरियल पेड़ को काटने से पहले
ज़रा सोच लेते
अपने फायदे
याद कर लेते वो दिन
जब गर्मियों में दादाजी
चारपाई बिछाये
घंटों तक सोये रहते
हरियल पेड़ की छांव में
सोच लेते बच्चों का बचपन
कितना हरा-भरा होता
हरियल पेड़ की छांव में
कुछ नहीं तो
ज़रा सोच लेते
अपना ही स्वार्थ
इस उदास जीवन में
मन कितना खिला-खिला होता
हरियल पेड़ की छांव में
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अपना अस्तित्व
सितारों से दूर
ज़मीं का इंसान
सोचता है
कि कैसा है वो जहान
जहाँ शीतलता है
चांद की चांदनी है
दुनिया के शोरगुल से दूर
एकांत का व्योम है
बंधन का अभाव है
उड़ने के लिए सारा आसमान है
तपती धरती से दूर
भागना चाहता है
हर कोई
लेकिन
कल्पनाओं को त्यागकर
यह कोई नहीं सोचता
कि जड़ों से विलग होकर
किसी पेड़ का अस्तित्व
संभव है क्या?
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विराट की ओर
जाने अनजाने
न जाने कितनी बातें
चुभती हैं कील की तरह
अपनों के ज़ख्म
चोट कर जाते हैं
गहरे तक
आखिर क्यों रिश्तों की डोर
कमजोर पड़कर
टूटने की जिद करती हैं?
क्योंकि हम भीतर से
विराट नहीं है
भीतर से विराट होना
टकराव का खत्म होना है।
– चन्द्रभान विश्नोई