मूल्यांकन
कल्पना से यथार्थ की यात्रा ‘रेत पर लिख कर मेरा नाम’: शुभम् श्रीवास्तव ओम
युवा कवयित्री ज्ञानेश्वरी ‘सखी’ सिंह का प्रथम काव्य-संग्रह ‘रेत पर लिखकर मेरा नाम’ साहित्य साँकल को अपनी प्रेमानुभूतिपरक कविताओं से खटखटाने की कोशिश कर रहा है। कवयित्री की कुल 81 छोटी-बड़ी कविताओं की यह यात्रा, प्रेम की काल्पनिक धरा से प्रारम्भ होकर यथार्थ की ज़मीन पर समाप्त होती है। संग्रह का केन्द्रीय कथ्य प्रेम ही है किन्तु कवयित्री के मौलिक चिन्तन और गैर बनावटी प्रस्तुतीकरण से ये कवितायें पाठक हृदय तक अपनी पूरी अनुगूँज के साथ पहुँचने का सामर्थ्य रखतीं हैं। संग्रह की भूमिका में प्रख्यात गीत कवि डाॅ. कुँवर बेचैन का यह कथन भी महत्वपूर्ण है- “इस संग्रह की कवयित्री ने मानवता के उस सख्य-भाव को जीवित रखने का प्रयास किया है, जो मानव को मानव से जोड़ता है, जो इंसान को इंसान बनाये रखता है।”
इंसान को इंसान बनाये रखने और मानव को मानव से जोडे़ रखने के लिए अपनत्व का होना आवश्यक है और इसके लिये सम्बन्धों में भरोसा और प्यार-
रिश्ते मैले न हो जाएँ
इसके लिए कुछ करना ही पड़ता है
——————
रिश्ते लिबास न बन जाएँ
इसलिए हम एक काम करते हैं
इन रिश्तों मे थोड़ा-सा
भरोसा और प्यार भरते हैं।
कवयित्री ने स्वयं को केन्द्र में रखते हुए आस-पास बिखरे भावों को कविता के शक्ल में ढालने की कोशिश की है। प्रेम उनके काव्य का प्रधान कथ्य है और उनकी कविता की परिभाषा भी प्रेमाधारित है-
जब सपने अधूरे रह जाते हैं
तो कविता बन जाते हैं
———–
तब कवि करता है
एक नई शुरूआत
अधूरापन मिटाने की।
वर्तमान अराजक समय में कवि की भूमिका को परिभाषित करते हुए ‘सुसंभाव्य’ के सम्पादकीय में दयानन्द जायसवाल जी कहते हैं- “सभ्यता के शिखर पर बैठे इंसान की लुप्त होती इंसानियत टूटती-बिखरती मर्यादाओं को बचाने के लिये संजीवनी के साथ साहित्यकार को ही आगे आना होगा, क्योंकि साहित्यकार ही जीवन-जगत को निरन्तर बेहतर बनाने के सपनों को साकार कर सकता है।” कवयित्री की कविता यात्रा भी इन्हीं अधूरे सपनो को कविता बनाकर अधूरेपन को मिटाने की कोशिश ही है।
कवयित्री की रचनओं में व्याप्त प्रेम कहीं भी अमर्यादित नहीं होता। एक सहज शील और संकोच का शाब्दिक आवरण रचनाओं में सर्वव्याप्त है, जिससे कविता कहीं भी मांसल नहीं होने पाती। उनका प्रेम अलौकिकता का भी परिचायक है, जो पूर्णत्व की प्राप्ति हेतु व्याकुल है-
तेरा आलिंगन/शाश्वत सत्य
बाकी सब/निर्मूल व व्यर्थ
प्रेम की मर्यादा शील और संकोच समाहित किये ये पंक्तियाँ उस आवरण का स्पष्ट रेखांकन कर जाती हैं-
मैं नहीं चाहती कोई जाने
मेरी हर रचना में
तुम्हारी ही छवि है
तुम्हारे ही एहसास हैं
सब समझेंगे मेरी सोच
बस तुम तक ही पहुँचती है
मेरी रचनाओं की सीमा
तुम पर ही आकर रूकती है
नायक को प्रेम-आमंत्रण की इन पंक्तियों की सादगी और सांकेतिकता तो अद्वितीय ही है-
जाड़े की सर्द रात से
कहीं जम गए हैं
तेरे मेरे एहसास।
आओ प्यार का
अलाव जलाएँ
एहसासों को पिघलाएँ।
वहीं दूसरी ओर ’ठूँठ’ और ‘थकन’ शीर्षक की कविताएँ नायक के न होने पर कवयित्री की मनोदशा का सूक्ष्म चित्रण है। संग्रह की अधिकतर कविताएँ कवयित्री और नायक के मध्य हुये वार्तालाप की भाँति है, जिनमें प्रेम के बहुरंग उभरते जाते हैं और फिर एक कविता-श्रृंखला का निर्माण होता जाता है।
कवयित्री कल्पना के इस धरातल पर अधिक देर न ठहरकर वास्तविकता की ओर उन्मुख होती है और फिर उसका ध्यान वर्तमान की विद्रुपताओं की ओर स्वतः ही जाता है। ‘आधा समाज-एक औरत’, ‘एक बदसूरत जिन्दगी का सच’, ’कब तक फैलेगा वहशीपन’,‘फिजा के मरने पर’ ऐसी ही कवितायें हैं, जो वर्तमान का सच बयान करतीं हैं। पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैैं-
सुना है आज फिज़ा मर गई
पहले फिजा में बहार की खबर आई
फिर फिज़ा में उतार की खबर आई
फिर फिज़ा उजड़ गई
और आज मर गई।
अस्तु यहाँ यह कहा जाना बिल्कुल भी अनुचित नहीं होगा कि- कवयित्री का प्रेम और कल्पना से यथार्थ की ओर उन्मुख होना इस बात का संकेत देता है कि आने वाले दिनों में इनकी लेखनी और भी संवेदनशील होगी तथा सामाजिक विद्रुपताओं पर निर्णायक प्रहार करने में अहम भूमिका निभाएगी और इस कथन को अक्षरशः सत्यापित करेगी कि- “कविता का उद्देश्य बेहतर मानव का निर्माण करना है।”
समीक्ष्य पुस्तक- रेत पर लिखकर मेरा नाम
रचनाकार- सखी सिंह
प्रकाशक- माण्डवी प्रकाशन, ग़ाज़ियाबाद
मूल्य- 150 रूपये मात्र
– शुभम श्रीवास्तव ओम