मूल्याँकन
कल्पना और यथार्थ का अद्भुत संगम: बदलता नहीं नेपथ्य
– डॉ.शुभा श्रीवास्तव
लोकहित के क्षितिज पर
कर्म योग का बेड़ा उठाएँ
मनुष्य को मूल्यवान होते देखा
यह संग्रह की पहली कविता है और अपनी पहली कविता से ही उषा जी यह बता देती है कि उनके काव्य का केंद्र मनुष्य है, वह भी मूल्यवान तब है जब लोक संपृक्ति अपनी संश्लिष्टता में गुथा हुआ है। पूरे संग्रह में मनुष्य और उसकी संवेदनाएँ बिखरी पड़ी है। मनुष्य में मनुष्यता का गुण कविता की सबसे बड़ी विशेषता होती है, जो इस संग्रह में हमें दिखाई देती है। उषा जी की दृष्टि मानवीय संवेदना पर बखूबी जाती है।
संग्रह में प्रकृति-वर्णन अनेक कविताओं में आया है। प्रकृति का अपना एक राग है, उस राग का निर्माण छंद मुक्त कविताएँ बड़ी सरलता से करती हैं। प्रकृति जीवन का मूल है और जीवन में जब यह संबंध होता है तो अनायास ही कविता फूट पड़ती है। उषा जी के शब्दों में प्रकृति और जीवन कविता के रूप में इन शब्दों में आते हैं-
पेड़ों की फुनगियाँ
यूँ नाच रही थी कि
जड़ें न रहती जमीन में
तो आसमान में उड़ जाती
यह प्रकृति और जीवन का उल्लास है, जो चंद शब्दों में बयां किया गया है। पूरा संग्रह इसके रेशे-रेशे को दर्शाता है। रचनाकार को प्रकृति से वैसा ही जुड़ाव है जैसे भक्ति काल में सूर प्रेम के हर रंग को प्रकृति से उतारते चलते हैं। सूर के यहाँ प्रेम हारिल की लकड़ी है तो उषा जी के यहाँ भादो की नदी-सी हृदय की प्यास है।
संग्रह में दूसरा महत्वपूर्ण विषय है स्त्री। स्त्री के अस्तित्व का संकट, उसका भय, उसकी जिजीविषा कविताओं में अपनी पूरी संवेदना के साथ आती है। इन कविताओं को पढ़कर पाठक प्रश्न करने लगता है कि आखिर क्यों-
आखिर क्यों
गर्भ में ही बैठ गया था
बेटी होने का भय
जीवित रह गई किसी तरह
बार-बार टूटते-बनते
सपनों के बीच हो रही हूँ
स्त्री विमर्श की दृष्टि से अगर इस संग्रह को देखें तो इसमें कहीं भी पुरुष विरोध नहीं है। उषा जी के यहाँ स्त्री और पुरुष दोनों समान हैं। इस भाव बोध की ही कविताएँ हमें इसमें देखने को मिलती हैं। उषा जी कहती हैं-
पुरुष हो या स्त्री
समान है सृष्टि
जाहिर-सी बात है, उषा जी की भावना समानता की ओर है न कि स्त्री विमर्श के आडंबर की ओर। आजकल स्त्री विमर्श के नाम पर पुरुष का खुला विरोध और देह प्रदर्शन की जो प्रवृत्ति चली है, उससे यह संग्रह इतर है। यहाँ पुरुष का कोमल रूप भी है, जो प्रेम प्रदर्शन और जीवन से संबंधित है। पुरुष का अपना यथार्थ है, जिसमें यह आवश्यक नहीं है कि वह पुरुषवादी सामंती प्रवृत्ति का द्योतक हो। इस दृष्टिकोण से देखें तो यह संग्रह अपने आपमें अनूठा प्यारा है क्योंकि हम सभी जानते हैं कि स्त्री और पुरुष प्रकृति रूप में बने हैं और दोनों के बिना ही जीवन जीना असंभव है। दूर करना है हमें तो बस पुरुषात्मक सामंतवादी प्रवृत्ति को।
हर रचनाकार अपने बचपन को कभी नहीं भूलता है। उषा जी भी उन्हीं रचनाकारों में से एक हैं, जो अपने बचपन को लुका-छिपी के खेल की तरह याद करती हैं और इससे संबंधित कविताएँ उनकी ही नहीं बल्कि पाठक के भी बचपन की याद दिला देती हैं। स्मृतियों में बचपन को जीवित रखना कोई उषा जी से सीखे। इस संग्रह में बचपन पर आधारित कविता मुझे ज्यादा प्रिय रही है।
पूरे संग्रह को पढ़कर कहीं-कहीं छायावादी काव्य भाषा और बिम्ब की याद हो आती है। पूरे संग्रह की कविताओं में छायावादी पुट शायद मेरी दृष्टि का ही परिणाम है। परंतु कुछ पंक्तियाँ अवश्य ऐसी हैं, जो पढ़ने पर महादेवी की याद दिलाती हैं। जैसे-
अंतस चेतना की प्रतिकृति
धूप सदृश्य प्रेम
उषा जी के प्रकृति चित्रण में भी यही झलक अपनी निरंतरता को बनाए हुए है। इन कविताओं को पढ़कर छायावादी प्रकृति चित्रण की याद आ जाती है। जैसे-
चाँदनी की अविरल शीतल फुहारें
स्तब्ध करती
सौंदर्य के अतिरिक्त
प्यास को
अतृप्त व्यास हो
यह कविता संग्रह पूर्णत: मुक्त छंद में रचा गया है पर कहीं-कहीं तुकांत पद के उदाहरण भी दिखाई दे देते हैं। वैसे यह संग्रह मुक्त छंद का ही संग्रह कहा जा सकता है। तुकांत कविता में लय भाव के कारण अनायास ही आ गये हैं। जैसे उषा जी कहती हैं-
स्वयं दूषित कर
प्रकृति दूषित
मूल्य क्या
जिससे वह पोषित
पूरे संग्रह की कविताओं को पढ़कर यह निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि उषा जी की भाषा बड़ी सधी हुई है। संस्कृतनिष्ठ शब्द कविताओं के सौंदर्य की श्री वृद्धि करते हैं। जैसे निष्कल, वर्तुल, कलरव, आर्द्रता, निष्कर्ष, वर्गीकरण इत्यादि। मुझे उषा जी की भाषा में शब्द ऐसे लगते हैं जैसे मोतियों से टंके हो। यह एहसास मुझे ही नहीं, हर पाठक को होता है। उनकी भाषा परिपक्व है। वह भावाभिव्यक्ति में सक्षम है। भाषा के उदाहरण के रूप में मैं एक कविता प्रस्तुत करना चाहती हूँ-
हृदय में प्रवाह मान
प्रणय पारस धर्मी
विरह का प्रतिरूप है
उषा जी की भाषा में अलंकार अपने प्रचलित रूढ अर्थों में बिल्कुल नहीं हैं बल्कि वह नवीन रूप में हैं। अगर हम उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा इत्यादि के पारंपरिक रूप की बात करेंगे तो शायद हमें निराशा हाथ लगेगी। परंतु अलंकार हैं और वह सरलीकृत हैं यह अवश्य है। इसे हम एक उदाहरण के द्वारा समझ सकते हैं। उषा जी कहती हैं-
दो दीप सदृश्य
एक-दूसरे के समक्ष
आत्मवृत्त से प्रकाशित
यहाँ हम देख रहे हैं कि पारंपरिक उपमा हमें नहीं दिखाई देती है परंतु भावार्थ करने पर उपमा अनायास ही हमें दिखाई देने लगता है। हाँ, यह अवश्य है कि प्रतीकों का प्रयोग उषा जी ने पारंपरिक ही किए हैं नवीन नहीं। जैसे चातक नदी इत्यादि प्रतीक इन कविताओं में आए हुए हैं, जो अपने नवीन अर्थ नहीं रखते हैं जो परंपराओं से चलते चले आ रहे हैं, उन्हीं अर्थों में यह प्रयुक्त हुए हैं। स्वप्न पतंग से जैसी उपमा उषा जी की कल्पना को भी उभारती हैं। कहीं-कहीं पर मुझे भाषा थोड़ी क्लिष्ट लगी है क्योंकि अब कविता में कठिन नहीं, सरलता पर जोर है। परंतु कुछ शब्द ऐसे हैं, जो कविता में मुझे रूकावट से लगते हैं। जैसे दूर्निवार, संवेग, भाव का अन्वेषण इत्यादि। वैसे हर व्यक्ति की अपनी एक अलग शैली होती है, उषा जी की शैली यही है कि वह संस्कृतनिष्ठ शब्दों का ज्यादा प्रयोग करती हैं और भावों की अभिव्यक्ति इसी के माध्यम से करती हैं। एक उदाहरण और प्रस्तुत है-
उन्मुक्त उड़ान भरती चेतना
निर्धारित एकांत में
स्वप्न शोध लिए प्रतीक्षा करती है
इस तरह की कविताएँ कहीं-कहीं सरसता को कम कर देती हैं पर हो सकता है कि भावों की अभिव्यक्ति के लिए इसी भाषा की आवश्यकता रही हो।
उषा जी के संग्रह में कल्पना यथार्थ का अद्भुत संगम है। अपनी इन्ही विशेषताओं के कारण यह संग्रह पठनीय है।
समीक्ष्य पुस्तक- बदलता नहीं नेपथ्य
विधा- काव्य
प्रकाशक- साहित्य संचय प्रकाशन
मूल्य- 150 रुपये मात्र
– डॉ. शुभा श्रीवास्तव