विशेष
कर्नल रोहित मिश्र – Mission Fight Back
पापा आप तो बड़े हैं !!
किसी ने कुछ कहा नहीं
किसी ने कुछ सुना नहीं
किसी ने कुछ किया नहीं
तभी तो कुछ हुआ नहीं
“किसी ने कुछ किया नहीं तभी तो कुछ हुआ नहीं”- एक बहुत ही मार्मिक वीडियो देखते हुए जिसमें यह पंक्तियां एक कविता/ गीत के रूप में बोली जा रही थी, मेरी आंखें डबडबा गई मन जैसे बिंध सा गया किसी गहरी पीड़ा के साथ।
‘किसी ने कुछ कहा नहीं’…… जाने किस-किस की अनकही अनसुनी दास्तां शोर मचाने लगी मेरे भीतर। कभी तो ‘किसी ने’ इसलिए ‘कुछ कहा’ नहीं क्योंकि इतने कम महीने, साल की उम्र थी उस ‘किसी की’ कि उसके पास सिवाय रुदन के कोई और अभिव्यक्ति ही नहीं थी, अपनी पीड़ा बताने की और कभी जब बताने लायक उम्र थी तो उसे वह गंदी, घिनौनी, खुरदरी- छुअन उस शख्स ने दी जो बहुत करीबी था। घर में, समाज में उसका एक रुतबा था वह बताती भी, तो कोई यकीन न करता और अगर उस ‘किसी ने’ कभी अपनी दादी नानी माँ या टीचर को बताया भी तो उसने कहा,’……..शी……चुप, किसी से कहना मत।’ कभी-कभी यूँ भी हुआ जिन्हें बताया उन्होंने तरस जताया, गले लगाया और आप बीता कोई ऐसा हादसा सुना के जाने क्या जताना चाहा, शायद यह कि इसे सहना ही हमारी जात की नियति है या फिर ये कि ये होता आया है, होता रहेगा, आवाज उठाने की कोशिश करना बेकार है। कभी किसी ने दुत्कारा भी, यहाँ तक कहा, “तेरे साथ ही ऐसा क्यों हुआ? वहां और लड़कियां भी तो थी?” जिसने चाहा उसी को कसूरवार ठहरा दिया, शर्म और संकोच से भर दिया, जो पहले से ही बेइंतहा परेशान थी।
नतीजन, वह चुप होती गयी, डरी-सहमी सी हमेशा आसान शिकार में बदलती रही- अगर कभी उसने आवाज उठाई, रोकने की कोशिश की तो उसकी शारीरिक और सामाजिक दुर्बलताओं का फायदा उठाते हुए इसे दबाने को और बाकियों को सबक सिखाने के लिए उसके चेहरे पर तेजाब फेंका, बलात्कार किया, जिंदा जलाया गले में उसी का दुपट्टा डाल पेड़ पर लटकाया और इसे आत्महत्या बताया।
कैंडल मार्च हुए, टीवी पर बहस छिड़ी रही कुछ दिन, चाय की चुस्कियों पर अफ़सोस जताए गए पर कुछ हुआ नहीं। हाल ही में एक डॉ. के सामूहिक बलात्कार के बाद और उसे जिंदा जला देने के बाद, जब उसका शरीर पोस्टमार्टम के बाद परिजनों ने अग्नि के हवाले किया होगा, तो यकीन कीजिये उसकी चिता ठंडी हो जाने के बाद भी बहुत सी लड़कियों के कानों में गूंजती रही होंगीं उसकी चीखें, मदद के लिए लगायी गयी उसकी गुहार, रोज छूती होंगी कई लड़कियां उसकी चिता को और महसूस करती होंगीं अपने बदन को छूते हुए अंगारों की तपिश; उस चिता से जो बुझ कर भी न बुझी।
नहीं बुझती किसी चिता की आग बुझ कर भी- जैसे 16 दिसंबर 2012 में हुए निर्भया कांड की पीड़ा से, भय से, आतंक से मुक्त नहीं हो पाई थी ‘वेदिका’ इस कांड के एक साल बाद भी। ‘वेदिका मिश्रा’ 13 साल की बच्ची जो निर्भया के लिए निकाले जा रहे कैंडल मार्च में जाना चाहती थी इंडिया गेट पर, वह चली तो गई पर कहीं अंकित हो गए उसके पिता के शब्द जिन्होंने सुरक्षा कारणों से, या यूँ कहो कि यह समझते हुए भी कि इस तरह के प्रयासों से कुछ नतीजे निकलने वाले नहीं, उसे अनुमति देने में असहमति दिखाई थी और कहा था “वेदिका, यह सब तरीके इतने कारगर नहीं, ज़रा बड़े हो जाओ और फिर कुछ ऐसा ठोस कदम उठाओ जिन से ऐसी पीड़िता लड़कियों की सहायता हो और गलत काम करने वालों को सबक मिले।” पिता को लगा बात आई-गई हो गई।
कुछ महीनों के बाद वेदिका के साथ एक सीनियर लड़के ने स्कूल में अभद्र व्यवहार किया, बच्ची सहम जाती है और ज्यादा धक्का उसे इस बात पर लगता है कि अच्छी खासी डील-डौल वाले पुरुष अध्यापक जो ये सब देख रहे थे, नजरअंदाज करके गुजर गए। यही तो करते हैं हम सब- देख कर अनदेखा करना, भीड़ से बच के निकलना, साधारणतः सब सोचते हैं- बेगानी आग में क्यों कूदना, नाहक परेशानी मोल क्यों लेनी? यह कौन सी मेरी बेटी है! भगवान जाने क्या लफड़ा है, छोड़ो जाने दो दफा करो, वगैरह-वगैरह। कुछ दिन परेशान रहने के बाद अंत में वेदिका अपने पिता रोहित मिश्रा को (जो कि उस वक्त फौज में कर्नल थे) को बताती है, कर्नल परेशान हो स्कूल जाते हैं, उस लड़के की शिकायत दर्ज करवाते हैं- एक अजीब सी लड़ाई शुरू होती है। वेदिका का स्कूल बदला जाता है। सबसे ज्यादा दर्दनाक और शर्मसार करने वाली बात यह है कि उन्हीं बच्चियों को अजीब सी नजरों से देखा जाना शुरू कर दिया जाता है जो पहले से ही मानसिक तनाव से गुजर रही होती है। शायद इस तरह की मानसिकता हो गई है हमारी कि इस तरह के दुर्व्यवहार को हम बेहद सहज लेकर चलने लगे हैं।
खैर! वेदिका की हिम्मत बढ़ी जब उसे उसके माता-पिता का भरपूर साथ मिला। एक दिन बड़ी मासूमियत के साथ एक साल पहले अपने पिता से हुई उसकी बातचीत का हवाला देते हुए उसने रोहित मिश्रा से कहा, “पापा, मैं तो इतनी बड़ी नहीं हूं पर आप तो बड़े हो- आप कुछ क्यों नहीं करते लड़कियों की सुरक्षा के लिए। तब तक क्यों इंतजार करना जब तक मैं बड़ी न हो जाऊँ, अपने लिए कुछ करने के लिए, हम सब सहेलियां सोचती रहती हैं कि क्या किया जाए। पापा हम अभी से Fight back क्यों न करें?” ये थे पहली बार बोले गए दो शब्द जिन्होंने बाद में Mission Fight Back का रूप धारण किया। कर्नल रोहित मिश्रा ने महसूस किया कि वेदिका और उसकी सहेलियां निर्भया कांड भूली नहीं है और वह अपनी और बाकी लड़कियों की सुरक्षा को लेकर बातें करती रहती हैं, चिंतित हैं। उस वक्त तो वो कुछ कह न सके, पर सोंच चलती रही निरंतर।
फौज से रिटायर होने के बाद उन्होंने इस विषय पर काफी रिसर्च की और पाया कि औरतों की स्थिति भारत में सुरक्षा पैमाने पर बहुत ही भयावह है। अपनी सोच से मेल खाते दोस्तों से बात की जिनमें एक हैं जसपाल राणा जो कि अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त Shooting Champion हैं। फिर मुलाकात की राज खत्री से- जो मुंबई बॉलीवुड के सफल व्यवसाई हैं। राज खत्री ने महसूस किया कि केवल शारीरिक प्रशिक्षण ही काफी नहीं है इस काम को बहुआयामी करना होगा, और फिर उन्होंने कई पुलिस अफसर, पीड़ित महिलाएं, N.G.O.’s और बहुत लोगों ने से बात की। Armed Forces, शिक्षा, खेल, मीडिया और भी कई क्षेत्रों से लोग जुड़े और लड़कियों को आत्म-रक्षा, आत्म-विश्वास और आत्म-सम्मान से भरने का सिलसिला शुरू हुआ, Mission Fight Back के बैनर तले।
कर्नल मिश्रा के शब्दों में Mission Fight Back लड़कियों को Combat Training देने का नहीं, बल्कि उस सोच को तोड़ने का भी है जिसके तहत लड़कियां खुद को असहाय और कमजोर मानती हैं। एक 10 साल की लड़की जब अपने 3 साल के भाई को राखी बांधती है तो महसूस करती है कि यह मेरा रक्षक है। हमें भाई के सक्षम होने पर कोई एतराज नहीं है लेकिन मैं अबला हूं, कोई आए और मेरी रक्षा करें, मुझे जुल्मों सितम से बचाए- बहन के ऐसे भाव पर एतराज है।
रोहित मिश्रा ने बड़े सरल, सहज पर दृढ भाव के साथ कहा कि ये अबला नारी वाली मानसिकता ही तो तोड़नी है। आज जब हम इतने डरे हुए हैं, समाज में हर दिन छेड़-छाड़, यौन उत्पीड़न, हत्या, बलात्कार जैसी घटनाओं के चलते हर पुरुष पर ही संदेह होने लगता है- ऐसे समाज में एक बदलाव की करवट लेते हुए तीन दोस्तों ने शुरू किया औरतों को अपनी सुरक्षा हेतु आत्म-निर्भर बनाने का एक मिशन, जो अपने आप में ही एक मिसाल है कि यहाँ अच्छा भी होता है।
Mission Fight Back तीन चरणों का क्रमबद्ध प्रोग्राम है। 28 दिन की बहुपक्षीय आत्म-रक्षा की Technique, Psychometric Analysis Test (PTA) और एक Mobile Safety App .
Psychometric Analysis Test (PTA)
उन लड़कियों को पहचानने में सहायक है जो पीड़िता है, पर या तो वो कह नहीं पाई या उन्हें सुना और समझा नहीं गया। ऐसी बच्चियों को मां-बाप और स्कूल की नजर में लाया जाता है। फिर जिन लड़कियों और महिलाओं को जो ये ट्रेनिंग ले चुकी हैं और उन्होंने Mobile Safety App डाउनलोड कर रखी है उनसे इन लड़कियों के लिए सहायता मांगी जाती है। आप भी सहमत होंगे कि जब तक पीड़िता का मन शांत न होगा, अनकहा दर्द शब्दों में न ढलेगा वह किसी हमदर्द, दोस्त पर विश्वास न कर पाएगी, तब तक उसका आहत मन किसी सिखलाई के लिए तैयार न होगा। बातचीत के दौरान उन्होंने बताया कि यह ट्रेनिंग जिसमें शरीर के साथ-साथ मानसिक सबलता भी प्रदान की जाती है, इसके बाद वह प्रशिक्षित लड़कियाँ हमेशा के लिए अपनी आत्म-रक्षा के लिए स्वयं अपनी व औरों की रक्षा के लिए सदैव वचनबद्ध रहती हैं।
अब तक Mission Fight Back हजारों लड़कियों को ट्रेन कर चुका है। Mission Fight Back के C.E.O. के शब्दों में उनकी टीम प्रयासरत है न केवल पूरे भारत में बच्चियों को यह ट्रेनिंग देने के लिए बल्कि विदेशों में भी। क्यूंकि यह एक स्वपोषित संस्था है और पूरी टीम ट्रेनिंग के लिए विभिन्न शहरों, प्रांतों में जाना होता है-सो एक शुल्क राशि तय है। अधिक जानकारी प्राप्त करने के लिए मैं, कर्नल रोहित मिश्र का फोन नंबर दे रही हूं +91 8449451111, जो देहरादून के निवासी हैं, ताकि पाठक आवश्यकता महसूस करें तो उस संपर्क कर सकें।
अंत में मैं वेदिका से कहूंगी, वेदिका बेटा जब तूने वह मोमबत्ती जलाई होगी, जाने तूने खुद से, अपने परिवार से, समाज से क्या उम्मीद जगाई होगी उस लौ में, जो आज Mission Fight Back नामक पावन यज्ञ की वेदी में कितनी सारी लड़कियों और महिलाओं के लिए आत्म-विश्वास, आत्म-रक्षा और आत्म-सम्मान की पावन अग्नि बनकर प्रज्जवलित हो उठी है।
Mission Fight Back की सम्पूर्ण टीम को, उन लड़कियों को, स्कूलों को, परिवारों को मेरा सलाम जिन्होंने इस मुहिम की सार्थकता को समझा, इसके सहभागी बने। रोहित मिश्रा सर,आपको कोटि-कोटि धन्यवाद महिला वर्ग को यह विश्वास दिलाने के लिए कि ऐसी सोच वाले पुरुष भी होते हैं।
– मीनाक्षी मैनन