जो दिल कहे
कम अंक आना असफलता की निशानी नहीं
अभी बहुत समय नहीं बीता है जब विभिन्न बोर्ड परीक्षाओं के रिजल्ट जारी हुए थे। बेहतर प्रदर्शन करने वालों के लिए प्रशंसा और थोड़े कम अंक अर्जित कर पाने वालों के लिए सहानुभूति संदेशों से सोशल मीडिया भरा पड़ा था। प्रशंसात्मक संदेश तो कमोबेश वैसे ही थे, जैसी की रीति है, पर सहानुभूति वाले संदेशों में प्रकारांतर से सफलता-असफलता के अर्थ को भी व्याख्यायित करने की कोशिश हो रही थी। जिन विद्यार्थियों के कुछ कम अंक आ गए थे, उनके लिए ऐसी सूक्तियां खूब लिखी गईं कि एक अंकपत्र जीवन की सफलता-असफलता निर्धारित नहीं कर सकता। यह एक पड़ाव मात्र है और आगे सफल होने के खूब मौके आएंगे।
इन सूक्तियों को व्यावहारिक रूप देने के लिए ऐसे अनेक उदाहरण भी दिए गए, जब बोर्ड परीक्षाओं में कम अंक लाने वाले विद्यार्थियों ने आगे जीवन में खूब सफलता पाई। जो उदाहरण बार-बार और अधिक प्रामाणिक सफलता के रूप में दिए गए, वे थे सिविल सेवा की परीक्षा में उत्तीर्ण होना। कई सिविल सेवकों ने ट्विटर पर अपने बोर्ड अंकपत्रों को यह कहते हुए साझा भी किया कि कैसे बोर्ड परीक्षाओं में कम अंक आने के बावजूद वे आगे चलकर प्रशासनिक अधिकारी बन गए।
इन सभी अभिव्यक्तियों के केंद्र में यही भाव था कि बोर्ड परीक्षाओं में कम अंक आना असफल हो जाना नहीं है। साथ ही कला और खेल जगत में कोई मुकाम हासिल कर पाए व्यक्तित्व का भी उदाहरण दिया गया कि कैसे उन्हें बोर्ड परीक्षाओं में अच्छे…अंक नहीं आए थे, लेकिन आज वे अपने पेशे में सफल हैं। निश्चित रूप से ऐसे उदाहरण एक अच्छे उद्देश्य के साथ साझा किए गए कि विद्यार्थियों पर अंकों का ऐसा अनुचित दबाव न पड़ जाए कि वे इससे उबर ही न पाएं। वे इसे एक पड़ाव के रूप में देखें और यहां से आगे बढ़ें। लेकिन इन सब के बावजूद इस पूरे विमर्श में सफलता को जिस रूप में व्याख्यायित किया गया, वह समस्याजनक है। थोड़ी गहराई से नजर डालें तो इस विमर्श में सफलता का मूल अर्थ कभी बदला ही नहीं, बल्कि उसे थोड़ी दूर ले जाकर रख दिया गया।
यानी अभी का अंकपत्र भले ही सफलता का पैमाना नहीं हो सकता, लेकिन आगे का अंकपत्र हो सकता है। अगर यह भाव नहीं होता तो फिर सिविल सेवकों के उदाहरण कैसे दिए जाते? अगर सिविल सेवा परीक्षा में उनके अंक कम आते तो न वे अधिकारी बन पाते ओर न ही उनकी मिसाल दी जाती। ऐसे में सफलता का पूरा रहस्य तो अंकपत्र में ही छिपा रह गया! बस अंकपत्र का समय और रूप बदल गया, लेकिन इसकी शक्ति बरकरार रही। इस प्रकार सफलता का अर्थ अच्छे अंक प्राप्त करना ही हुआ, चाहे इस परीक्षा में या फिर उस परीक्षा में। तो जिनके अंक कम आ गए और मिसाल नहीं बन पाए, वे असफल हो गए।
इस तर्क प्रणाली से देखें तो जिनके कम अंक आते हैं, वे असफल होते हैं, मामला बस असफलता की श्रेणी का है। बोर्ड परीक्षाओं के अंक इस श्रेणी की शुरूआत में हैं तो असफलता का दायरा भी विरल है जो आगे की प्रतिस्पर्धा में सघन होता जाता है। कुल मिला कर सारा मामला यहां आकर टिकता है कि सघन क्षेत्र की सफलता विरल क्षेत्र की असफलता को ढक देती है, इसलिए विरल का शोक नहीं मनाना चाहिए। ऐसी पद्धति में सिर्फ गिनती के लोग ही आखिर सफल हो पाएंगे और शेष असफल मान लिए जाएंगे।
यहां एक सामान्य जिज्ञासा हो सकती है कि कला, खेल या फिर ऐसे ही किसी अन्य क्षेत्र में सफल होने के लिए तो अंकों की जरूरत नहीं पड़ती, फिर उसे किस प्रकार देखा जाए? बारीकी से देखें तो यहां भी एक प्रणाली है। एक कलाकार और एक सफल कलाकार के बीच का अंतर किस प्रकार निर्मित होती है? कुछ कलात्मक कुशलता, उसको पुष्ट करते भरकर और इसके साथ ढेर सारी उपलब्धियों का अंतर ही एक सफल कलाकार और कलाकार के बीच फर्क पैदा करता है।
निश्चित रूप से ये अंतर बुनियादी और वास्तविक हैं, लेकिन क्या वास्तव में ये सफलता और असफलता के निर्धारक हैं? क्या एक सामान्य मूर्तिकार, जो रोज अपने सौंदर्यबोध को ठोस आकार दे रहा है, वह उपलब्धियों का अतिरेक हासिल किए बिना सफल नहीं हो पाएगा? क्या इस संपूर्ण प्रक्रिया को मनोयोग से पूरा करना सफलता नहीं है? क्या एक कलाकार को अपनी रचना से मिलने वाला सुख किसी सफल कलाकार के सुख से किसी भी प्रकार कमतर होता है? अगर नहीं तो फिर सफलता-असफलता की यह कसौटी किस प्रकार निर्मित की जाती है?
दरअसल, हम एक शक्ति की उपासना पर अधिक बल देते हैं। जिस लक्ष्य को प्राप्त करने पर जितनी शक्ति हासिल होती है, चाहे वह भौतिक हो या किसी अन्य प्रकार की वैधतामूलक हैसियत, हम उसे उतनी ही बड़ी सफलता मान लेते हैं। सफलता की परिधि शक्ति के केंद्र से तय होती है। इसलिए जब हम सफलता-असफलता पर प्रशंसा या सांत्वना दे रहे होते हैं तो हमारा आशय उससे जुड़ी उपलब्धियों की मात्रा से ही होता है। कहने को हम ऐसा नहीं कहते, पर हमारी बात यही कहती है।
– नीरज कृष्ण