ज़रा सोचिए
कभी सोचा है?
– प्रगति गुप्ता
यही कुछ पाँच-छ: महीनों से एक मरीज़ा का लगभग हर महीने ही अपना प्रेगनेंसी टेस्ट के लिए आना होता था। हर बार आती तो मुझे अभिवादन करना नहीं भूलती थी। आशी नाम था उसका। सैकड़ों मरीज़ों के बीच जब कोई चला कर अभिवादन करने जैसी आदत बना लेता है तो हमेशा ही स्मृति में रहता है और अक्सर ही ऐसे औपचारिक रिश्तों में भी अनायास ही एक अनजानी-सी आत्मीयता जुड़ जाती है, जहाँ प्रश्नों को पूछने और उत्तर देने में सहजता रहती है।
तीन दिन पहले आशी आकर गयी थी पर आज उसे वापस देख; मुझे अपनी कुर्सी से उठकर आना ही पड़ा।
“क्या हुआ आशी, आज वापस प्रेगनेंसी टेस्ट क्यों करवाया?”
“कुछ नही मैम, तीन दिन पहले प्रेगनेंसी टेस्ट वीकली पॉजिटिव आया था तो सोचा वापस करवा लूँ। आज किया तो पॉजिटिव आया है।” आशी ने कहा।
“फिर क्या सोचा तुमने..आशी! तुम कुँवारी हो या शादीशुदा?” मैंने पूछा।
चूँकि आजकल किसी को भी देखकर कुँवारे होने या शादीशुदा होने का अनुमान लगा पाना बहुत ही मुश्किल होता है। सो बहुत ही स्वाभाविक-सा यह प्रश्न पूछ लिया मैंने। मैं अभी तक उसे एकटक ही देख रही थी क्योंकि उसके उत्तर की प्रतीक्षा थी मुझे।
“जी मेम! मेरा विवाह अभी नही हुआ है पर मेरा एक दोस्त है बहुत क़रीबी, जिसके साथ विवाह भी करुँगी। इतना बोलकर आशी ख़ामोश ही मुझे तकने लगी। रोज़ ही इतने लोगों को देखते, सुनते और पढ़ते मुझे भी बहुत कुछ उस अनकहे को पढ़ने की आदत हो गयी थी, जो अक्सर लोग एकदम से कहने में हिचकिचाते हैं। सो मुझे उसकी आँखों में ख़ुद के लिए कुछ तनाव-सा महसूस हुआ।
आज के समय में इस तरह के संबंधों को स्वीकारने में युवाओं को हिचक लेशमात्र भी नहीं मेहसूस होती है। वो इसको आधुनिक होने की श्रेणी में रखते हैं या आज की सच्चाई और ज़रूरत मान; स्वीकारते हैं।
“साथ रहते हो तुम दोनों? क्या करती हो तुम? कहीं नौकरी या घर पर ही रहती हो?”
“जी, हम दोनों इसी शहर में नौकरी करते हैं। एक ही कंपनी में। सो मिलते ही रहते है।”
“आशी, यह टेस्ट तो तुम घर पर भी कर सकती हो फिर यहाँ आने की क्यों ज़रूरत पड़ी तुम्हें?”
“जी, करती हूँ घर पर भी, पर क्रॉस चेक करने को यहाँ आती हूँ।”
“टेस्ट पॉजिटिव है, अब क्या करोगी तुम?”
“जी, अभी शादी नहीं हुई है तो गर्भपात ही करवाना होगा।” आशी ने तनाव में ही जवाब दिया।
वैसे तो आज का युवा वर्ग बगैर विवाह भी बच्चे पैदा करने को भी सही ठहराने में नहीं चूकता पर अभी भी शायद भारतीय परिवेश में इसको पूरी तरह स्वीकार पाना व्यवहार में नहीं आया है।
“कितनी बार ऐसा निर्णय ले चुकी हो तुम?” मैंने अनायास ही पूछ लिया।
“जी, दो बार…क्यों पूछा आपने?”
उसके प्रश्न का जवाब देने के बजाए मैंने अगला प्रश्न पूछ ही डाला।
“कभी तुम्हारा दोस्त साथ नहीं आया। बहुत प्यार करते हो न तुम दोनों? तभी साथ वक़्त भी गुज़ारते हो। कब से साथ हो?”
“जी करता तो है प्यार…दो साल से साथ हैं।
“हाँ! करता तो होगा ही तुमको वो प्यार…सोच कर बताओगी मुझे कि पिछले कुछ महीनों से ही तुम्हें प्रेग्नेंसी टेस्ट को क्रॉस चेक करने की ज़रूरत क्यों पढ़ रही है?”
शायद अभी आशी जवाब देने में असमर्थ थी और किसी गहरी सोच में होने से चुपचाप ही मुझे देखती रही। न जाने क्यों मुझे आभास हुआ कि वो भी कहीं वो सोचना चाह रही है, जो उसका लड़के के लिए लगाव सोचने नहीं दे रहा है।
“आशी, कभी सोचा है तुमने; जो तुम कर रही हो उसका नतीजा भविष्य में क्या होगा?” तुम अपने लिए खाई खोद रही हो, जिसमें गिरने के लिए सिर्फ तुम आती हो…आखिर कब तक ख़ुद पर यह टॉर्चर करोगी? सोचकर देखना।”
काफी देर तक आशी निःशब्द ही मुझे देखती रही; मानो उसके सोचने-विचारने की शक्ति उसके दोस्त की सोच से टकराकर शून्य में कहीं गुम हो गयी हो या फिर मेरी कही बातों में गुज़री ज़िन्दगी का आकलन कर; स्वयं को खोज रही हो।
बार-बार प्रेगनेंसी टेस्ट को करने के बाद भी क्रॉस चेक करना; उसके अपने अंदर दबे डर को भी इंगित कर रहा था। इतनी बढ़िया नौकरी फिर भी भावनाओं की आज के इस भागदौड़ वाले समय में युवावर्ग आधुनिकता के नाम पर जिस होड़ में जुटा है, उसमें शरीर की पूजनीयता से जुड़े मानदंड कहीं खो गये हैं। सिर्फ क्षणिक सुख सर्वोपरि हो गया है। जब भावनाओं से जुड़ी परिभाषाएँ बदलती हैं या जब शरीर से जुड़ी प्राथमिकताएँ उनकी जगह लेती हैं तो मानसिक विकृतियों का बहुत ख़राब रूप सामने आता है। यह भी पहलू बहुत सोचनीय है।
इतनी अच्छी जगह अच्छे ओहदे पर काम करने के बाद भी अक्सर ही हम सभी को जिन भावों से जुड़े पहलुओं पर भी सोचना चाहिए, सोच नहीं पाते; बस बहते जाते हैं एक अंतहीन बहाव में। अक्सर जब होश आता है तो अपना ही नुकसान कर बैठते हैं। आशी भी कुछ-कुछ ऐसे ही द्वन्दों को मेहसूस कर रही थी।
“ह्म्म्म आप ठीक कह रही हैं शायद। पर अब नहीं, मैं भी अपने इस रिश्ते की असल दिशा को ज़रूर सोचूंगी। ज़रूर सोचूंगी।
‘शुक्रिया मेम’ कहकर आशी मुझसे विदा लेकर चली गयी और मुझे एक अनकही-सी सांत्वना देकर, काफी हद तक निश्चिंत कर गयी।
– प्रगति गुप्ता