उभरते स्वर
कभी उफ़ न करना
मैं नारी!
समझता कौन है
मेरा दुख-दर्द?
उपदेश और वर्जनाएं
उनके नीचे दबी -कुचली
मेरी संवेदनाएं!
कितना आसान है ये कहना-
जाकर ससुराल में सब सहना
सब कुछ चुप रहकर ही सहना
मुंह से कभी उफ़ न करना।
पति प्यारे को दिल में रखना,
सास-ससुर की सेवा करना।
जेठ-जेठानी का मान रखना,
ननद-देवर से सदा स्नेह रखना।
कल जब बनोगी मां तो
बच्चों पर ममता लुटाना
रातों की अपनी नींद उड़ाना,
सदा अपने उन्हें गले लगाना।
मुंह से कभी उफ़ न करना।
स्कूल, कॉलज उन्हें भेजना,
रोज सुबह टिफिन बनाना।
कपड़े भी इस्त्री करना,
रोज ही होमवर्क कराना,
मुंह से कभी उफ़ न करना।
बेटी को ससुराल भेजना,
घर में अपने बहू ले आना।
अपने सारे फर्ज निभाना,
अब भी तुम आराम न पाना
मुंह से कभी उफ़ न करना।
कब आएगा बदलाव ?
क्या नारी ऐसे ही
घुट -घुटकर मर जाएगी?
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मैं पत्थर हूँ
मैं कभी थी जीवंत मिट्टी
जिसमें उगते थे उम्मीदों के पौधे
छा जाती थी हरियाली
खिल जाते थे अनगिनित फूल
आती थीं बहारें
लेकिन
अब कभी नहीं आता
मेरे जीवन में वसंत
नहीं खिलते उम्मीदों के फूल
सह-सहकर आघात
मैं पत्थर हो चुकी हूँ
मुझे पिघलाने की कोशिश न करना!!
जाओ!
मैं शापित
अहिल्या जैसी हो सकती हूँ
लेकिन तुम नहीं हो राम
जो करोगे मेरा उद्धार
इसलिए
मैं जैसी हूँ
मुझे वैसी ही रहने दो।
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बेटियां
माँ की प्यारी, पिता की लाडली
होती है बेटियां
बहुत प्यारी लगी
पहली बार जब
अपने हाथ से
पकाकर खिलाई
उन्होंने रोटियां
आज बेटों से कम नहीं
किसी भी जगह
अपनी मेहनत से भी
कमाकर, माँ-पिता को
पालती भी हैं बेटियां
बीमार पिता के लिए
रातभर जागती भी हैं
माँ के लिए भी
सखी से भी प्यारी सखी
ऐसी ही होती हैं
आजकल कल की
हमारी प्यारी बेटियां
कल पिता खड़े होते थे
बनकर उनकी छत
बचाने को उन्हें
दुनिया की बुरी नजर से
आज पिता की झुकती
कमर का सहारा बन
वे बनी हैं उनकी लाठी
जिसने अंगुली पकड़
चलना सिखाया
आज उसी माँ की
ऐनक बनी हैं
ऐसी ही प्यारी
होती हैं बेटियां
घर की रौनक
आँगन की तुलसी
और बाहर
हमारी शान होती हैं बेटियां
– नीता सैनी