धरोहर
कठगुलाब : मृदुला गर्ग
कथाकार मृदुला गर्ग का जन्म 25 अक्तूबर 1938 में कोलकाता में हुआ है लेकिन उनकी शिक्षा–दीक्षा दिल्ली में हुई। उन्होंने अर्थशास्त्र में दिल्ली स्कूल ऑफ़ इकोनोमिक्स से एम.ए. किया। वर्ष 1975 में उनका पहला उपन्यास ‘उसके हिस्से की धूप’ प्रकाशित हुआ। अब तक उनके छह उपन्यास, अस्सी कहानियां (संगति–विसंगति नाम के दो खंडों में संग्रहीत), तीन नाटक, दो निबंध संग्रह छप चुके हैं। उनके निबंध देश–विदेश की श्रेष्ठ पत्रिकाओं में छपते रहे हैं। ‘चित्तकोबरा’ का जर्मन अनुवाद 1987 में जर्मनी में प्रकाशित हुआ। 1990 में इसका अंग्रेज़ी में अनुवाद आ गया। ‘कठगुलाब’ का अंग्रेज़ी अनुवाद ‘कंट्री ऑफ़ गुडबाइज़’ वर्ष 2003 में प्रकाशित हुआ। उनकी अनेक कहानियां अन्य हिंदीतर भाषाओं, अंग्रेज़ी, जर्मन, जापानी एवं चेक में अनूदित हो चुकी हैं। वर्ष 1988–89 में उन्हें दिल्ली हिंदी अकादमी ने, 1999 में उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान ने, 2001 में न्यूयॉर्क ह्यूमन राइट्स वॉच ने, 2003 में सूरीनाम विश्व हिंदी सम्मेलन ने, वर्ष 2013 में साहित्य अकादमी ने सम्मानित किया। ‘कठगुलाब’ को सन् 2004 का “व्यास सम्मान” मिल चुका है।
लोकप्रिय हिंदी लेखिका मृदुला गर्ग बेहद संकोची और अन्तर्मुखी व्यक्तित्व की उपन्यासकार मानी जाती हैं। कहा जाता है कि उनके सृजन से हिंदी साहित्य में एक नया मोड़ आया। ‘चितकोबरा’, ‘कठगुलाब’, ‘मिलजुल’, ‘अनित्य’, ‘एक और अजनबी’, ‘चूकते नहीं सवाल’, ‘जादू का कालीन’, आदि उनकी प्रमुख कृतियां हैं। उनका सृजन मुख्यतः भारत के बंद समाज में घिरी स्त्रियों की समस्याओं पर केंद्रित रहा है।
हमारे समाज में स्त्रियों की सामाजिक एवं आर्थिक परिस्थितियां भिन्न हैं। उनका जीवन तरह-तरह की पीड़ा एवं संघर्षों से जूझ रहा है। मृदुला जी की कृतियां इन स्त्रियों के सामाजिक और आर्थिक परिवेश की नई-नई कहानियां सुनाती हैं। उनके उपन्यासों का पाँचवाँ पात्र होता है पुरुष। उनका एक ऐसा ही उपन्यास है ‘कठगुलाब’, जो पुरुष-प्रधान समाज में जी रही स्त्री के शोषण तथा मुक्ति की व्यथा-कथा है। स्मिता, मारियान, नर्मदा, असीमा, नीरजा आदि इस उपन्यास की मुख्य स्त्री-पात्र हैं। इन सभी को पुरुषों से नहीं, बल्कि निर्लज्ज व्यवस्था से मुक्ति की तलाश रहती है। ‘कठगुलाब’ एक तरह से भारतीय स्त्रियों की पीड़ा एवं संघर्ष का एक जीवंत दस्तावेज़ है। ‘चितकोबरा’ नारी-पुरुष के संबंधों में शरीर को मन के समांतर खड़ा करने और इस पर एक नारीवाद या पुरुष-प्रधानता विरोधी दृष्टिकोण रखने के लिए काफी चर्चित और विवादास्पद रहा है तो ‘कठगुलाब’ को इसी वैचारिक पृष्ठभूमि में देखा जा सकता है।
‘कठगुलाब’ का प्रतीकात्मक अर्थ है ‘नारी की जिजीविषा।’ इस कृति में मृदुला गर्ग ने रेखांकित किया है कि स्त्रियाँ गुलाब नहीं हैं, जो उग जाने पर अपने आप खिल भी जाता है। वे कठगुलाब हैं, जिन्हें थोड़ी-सी देखभाल के साथ खिलाना भी पड़ता है।
‘कठगुलाब’ एक समस्यामूलक उपन्यास है, जिसमें ‘स्त्री मुक्ति’ से सम्बन्धित समस्याओं को उभारा गया है। इसके माध्यम से लेखिका ने अनेक देशों से आयी हुई ऐसी रिफ्यूजी औरतों की कथाओं को प्रस्तुत किया है, जो श्रम और उत्पादन के स्रोतों से कटी हुई हैं या फिर परोपजीवी लोग हैं।
अपनी बेलौस अभिव्यक्ति, प्रखर कथा सृष्टि और गहरे यथार्थ बोध से समकालीन हिन्दी कथासाहित्य को जीवन्त करने वाली मृदुला गर्ग स्त्री जीवन की समग्रता की लेखिका हैं, उनके उपन्यासों में स्त्री विमर्श को रचनात्मक आयाम मिला है। नारी जीवन की त्रासदी, उसके संघर्ष के साथ संकल्प और मुक्ति की आकांक्षा को भी इन्होंने अपने उपन्यासों में मुखर किया है। ‘चितकोबरा’ उपन्यास से प्रसिद्ध हुई मृदुला गर्ग की कथा चेतना का रूप कठगुलाब में देखने को मिलता है। यह उपन्यास निश्चित रूप से नारी जीवन की हताशा की नहीं, बल्कि सशक्तिकरण के प्रयत्नों को रेखांकित करता है।
वास्तव में ‘कठगुलाब’ एक समस्यामूलक उपन्यास है, जिसमें स्त्री मुक्ति से सम्बन्धित समस्याओं को उभारा गया है। यह स्त्री मुक्ति का आधार पश्चिमी फैमिनिज्म से लिया गया है। वास्तव में लेखिका के विचारों का आख्यात्मक प्रोजेक्शन (प्रक्षेपण) है। इसके माध्यम से लेखिका ने अनेक देशों से आयी हुई ऐसी रिफ्यूजी औरतों की कथाओं को प्रस्तुत किया है, जो श्रम और उत्पादन के स्रोतों से कटी हुई हैं या फिर परोपजीवी लोग हैं। इनकी जिन्दगी को अपनी सार्थकता कठगुलाब (बोसाई) में दिखाई पड़ती है।
उपन्यास की कथा में स्मिता मारियान, असांना नर्मदा और नीरजा प्रमुख स्त्री पात्र हैं तो पुरुष पात्रों में इविंग, गैरी विपिन….आदि हैं। मारियन के जीवन की कथा करूण परन्त दिलचस्प है। मारियन तलाकशुदा है, जिसका पति सप्ताह के अंत में कभी-कभी मिलने आ जाता है। वर्जीनिया उसकी माँ है जो एक शरीफ और धनी इंसान से दूसरी शादी कर लेती है और सारी जिन्दगी वह अपने सौन्दर्य और जवानी को बचाये रखने के लिए पैसे उड़ाते रहती है। पैसा खर्च करने में उसे आनंद आता है। मारियन एक टिपिकल अमेरिकन औरत है। मारियन अपनी माँ के विपरीत है। वह लालची नहीं बल्कि संतोषी है, तभी तो वसियत में मिले (पिता द्वारा) तीन कमरे में मकान को पाकर संतुष्ट हो जाती है। आगे चलकर मारियन इविंग से शादी कर लेती है, जो एक फेक राइटर के साथ-साथ झूठा मेमिनिस्ट भी है। इविंग टिपिकल अमेरिकन जंगली का उदाहरण पेश करता है जो औरतों को बहला-फुसलाकर उसके घर पर ऐश करता है। इस प्रवृत्ति का व्यक्ति किसी भी तरह का दायित्व लेने से घबराता है, तभी तो जब मारियन गर्भवती होती है तो उसे बहला-फुसलाकर उसका गर्भपात करवा देता है। और एक समय ऐसा आता है जब मारियन कमजोर पड़ती है तो उसे तलाक दे देता है। इतना ही नहीं, मारियन की सम्पति न की सम्पत्ति भी हड़प लेता है। लेकिन मारियन हिम्मत से काम लेती है। रॉ की मदद से केस लड़कर संपत्ति वापस ले लेती है, फिर एक बच्चे की चाहत में गेरे से दूसरी शादी करती है पर गर्भपात के कारण माँ नहीं बन पाती। अंत में अनाथाश्रम से बच्ची को गोद लेती है, जो गेरे को नागवार गुजरता है। फलतः वह मारियन को छोड़कर न्यूजर्सी चला जाता है।
कथा की दूसरी एवं तीसरी प्रमुख पात्र के रूप में स्मिता है। भारत लौट कर अपनी प्रोजेक्ट के लिए काम शुरू करती है। इसके लिए ‘फिल्ड वर्क’ नर्मदा से आरंभ करती है। नर्मदा एक नौकरानी है जो स्मिता की बहन नमिता के घर उसके हिंसक बीमार पति की सेवा करती है। नर्मदा की कथा में वही दर्द और पीड़ा है, जो स्मिता में दिखती है। दोनों की कथा में बहुत हद तक समानता है। अन्तर सिर्फ इतना हद तक समानता इतना है कि स्मिता अपने जीजा से तंग आकर भारत छोड़ देती है, परन्तु नर्मदा का जीजा उससे जबरदस्ती ब्याहकर अपने पास रखता है। परन्तु, जब उसका शरीर भोग की स्थिति में नहीं रहता तो उसे निकाल फेंकता है। यहाँ स्पष्ट रूप से पुरुष मानसिकता की स्वार्थलिप्सा दिखती है।
उपन्यास की चौथी नारी पात्र असीमा है। यूं तो इसका नाम सीमा है। परन्तु कराटे सीख कर उसने अपना नाम असीमा रख लिया। असीमा एक ‘मिलीटेंट फेमिनिस्ट’ है जो अपनी माँ को बहुत प्यार करती है। माँ के आत्मसम्मान पर उसे गर्व भी है। उसकी माँ परम्परागत भारतीय नारी की प्रतिमूर्ति है, जो अपने कामुक पति की दूसरी शादी पर आपत्ति भी नहीं करती। असीमा अपने भाई के रईस मिजाज को पसंद नहीं करती और कभी -कभी उसकी हरकतों से चिढ़कर आक्रोश में अपने बाप को हरामी नं० एक और भाई को हरामी न02 कहती है। वह सहनशील भी है, परन्तु जब उसका पति ज्यादती करता है तो वह बर्दाश्त नहीं करती। बल्कि, पलटकर कराटे की चाल चलती है। इस खेल का वह आनंद का अनुभव करती है। और तब पिता को दी गयी उपाधि को वापस लेकर पति को सौंपती। यह विद्रोही नारी मुक्ति का एक पहल है।
तबतक स्मिता अपना दूसरा प्रोजेक्ट लेकर ‘प्रोजेक्ट डिप्राइन्ड गर्ल्सचाइल्ड’ लेकर वापस आती है और बाद में सभी किसी न किसी रूप में असीमा की माँ द्वारा बनायी गयी ‘सलका संस्था’ से जुड़ जाती है। नीरजा उपन्यास की एक मुंहफट एवं खुले विचारों की पात्र है, जो नमिता (स्मिता की बहन) की बेटी है। वह शादी के बिना ही बच्चे पैदा करने में विश्वास करती हैं। बच्चे उसे पसंद हैं, परन्तु शादी नहीं। क्योंकि शादी से स्वतंत्रता छीन जाती है। अतः कथा प्रवाह के क्रम में उसकी मुलाकात विपिन से होती है। दोनों प्रेम के साथ-साथ रहते हैं। खुलापन, स्वतंत्रता दोनों को पसंद है। परन्तु नीरजा के खुलापन के आगे उसका कुछ नहीं चलता। अपनी बेवसी में जब वह कहता है कि तुम्हारे लिए स्पर्श से ज्यादा कुछ नहीं हूँ . . . . . . . . . जबाव में . . . . . . कोई भी मर्द इससे ज्यादा कुछ नहीं होता। (वहीं)- सुनकर तिलमिला उठता है, अन्दर ही अन्दर टूट जाता है। ऐसा सोच भी नहीं सकता था कि नीरजा का खुलापन इस हद तक . . . . . . . . . . । विपिन के लिए सब कुछ यंत्रवत हो जाता है। उसके विचारों में परिवर्तन आता है और अंत में वह गोधड़ा नाम के कस्बे में गरीब औरतों के लिए लघु-उद्योग एवं बच्चों के लिए स्कूल खोलने की योजना बनाता है।
विपिन को असीमा के प्रति वही प्यार बना हुआ है। असीमा के पुरुषत्व गुणों का कायल है वह। कहता है- यदि मेरा गर्भ होता तो मैं असीमा से उसमें बीज डालने को कह सकता था। पूर्ण रूप से प्रस्तुत उपन्यास की कथा में ‘ प्लाजिबिलिटी दिखाई पड़ती है। प्रत्येक पात्र अपनी कथा को स्वयं सुनाता है। अत: कथा के पूर्वत्व में व्यवस्थित करने की आवश्यकता नहीं पड़ती हैं, आवश्यकता होती है तो लेखिका को प्रोम्पटिंग की, जिसके माध्यम से सभी पात्र अपनी-अपनी बातें करती हैं। कथा में कुछ पात्रों को छोड़कर अधिकांश स्त्री पात्र मध्यवर्गीय, शिक्षित, स्वावलम्बी और स्वतंत्र हैं। पुरुष पात्रों के रूप में विपिन मुख्य पात्र है, कथावाचक का काम करता है। सम्पूर्ण बौद्धिक कथा को प्रस्तुत करती नजर आती है।
‘ कठगुलाब मृदुला जी के विचारों का आख्यात्मक प्रोजेक्शन (प्रक्षेपण) है। जिसमें स्त्री-पुरुष के सम्बन्धों के असर होते चले जाने की कथा के माध्यम से लेखिका ने अपूर्व, अतृप्त मातृत्व से उपजे अवसाद एवं उसे फिर से धो डालने के प्रयास को सफलता से चित्रित किया है।
‘कठगुलाब’ प्रतीकात्मक अर्थ को धोतित करता है। उपन्यास के लगभग सभी स्त्री पात्र तमाम क्रूरताओं, कडुवाहटों, मानसिक तनावों एवं नफरत के उन्मादों को झेलने के बाद ‘कठगुलाब’ की तरह बेहद सख्त और भूरी हो गई हैं। अंदर से वह अभी भी कोमल, नरम और सदाबहार है। जिसे (हार्दिकता) संवेदनात्मक आस्था से सींचने की जरूरत है। जरूरत है तो विश्वास के साथ स्नेहित स्पर्श देने की।
वैचारिक स्तर पर यदि देखें तो यह स्पष्टतः कहा जा सकता है कि कथानक के प्रतीकात्मक होने का दो कारण दिखता है- प्रथम, पुरुष की संवेदनहीन और स्वार्थी मनोवृत्ति का। (ड्रैक्यूला) 21वीं शदी में दुनिया की आधी आबादी पुरुषों की हैं। अतः इन प्रवृत्तियों के कारण सृष्टि के आदिकाल से ही स्त्री को चूस कर रक्तहीन कर दिया है। अभ्यासवश स्त्री क्षणिक स्पर्श कठगुलाब की तरह अंकुआ तो जाती है, परन्त रूप से खिलने का साहस नहीं जुटा पाती। रतन माली का कोढ़ का प्रतीक है। पुरुष की उस लाला प्रवृत्ति का, जो स्त्री को सिर्फ भोग्या के रूप में चाहती है। यह प्रवृत्ति उस बीमारी की तरह है जिसे सिर्फ संवेदना और आत्मविश्वास से दूर किया जा सकता है।
कथा के ताने-बाने में बनावटपन है। अतः कोई भी चरित्र पूर्ण रूप से जीवंत नहीं हो पाया है। जिसके कारण कथा की गति में अवरुद्धता आ जाती है। कोई भी पात्र संतुष्ट नहीं दिखता। सबों की चाहत कहीं न कहीं दमित और क्षुब्ध है। सभी पात्र स्त्री हो या पुरुष अपनी योग्य परिस्थितियों को छोड़कर नयी जमीन की तलाश करते हैं, जहाँ नयी परियोजनाएँ एवं उद्योग-धंधे की शुरूआत की जा सके। इस तरह लेखिका ने नारी की मानसिक पीड़ा और यंत्रणा का सामान्यीकरण किया है।
कथा में पात्रों के अनुकूल भाषा का सर्जन कर लेखिका ने अपने अनुभव एवं कुशलता का परिचय दिया है। सांझी दुनिया बनाने के लिए परस्पर दोनों जातियों को सौहार्द, प्रेम और करुणा का सांझा स्पर्श देना होगा, तभी हम ‘कठगुलाब ‘ को छोड़ सुगंधित गुलाब की खेती कर पायेंगे।
अपने शीर्षक की प्रतीकात्मकता के बावजद यह उपन्यास नारी जीवन के धुंधलेपन का नहीं, रौशनी के और उसके प्रस्थान को व्यंजित करता है। निश्चित रूप से इस उपन्यास में नारी जीवन के यथार्थ के साथ आपसी भावी दिशा और संघर्ष की परिनीति की ओर संकेत है। कथा शिल्प के दृष्टि से इस उपन्यास में लेखिका को पूरी सफलता मिली है। संवेदना और शिल्प दोनों ही स्तरों पर यह उपन्यास पाठकों को आकर्षित करता है और अपने कथारस से उनको अप्लावित करता है।
– नीरज कृष्ण