यात्रा-वृत्तान्त
ऐलीफेंटा- 02
यात्राओं से मेरा सरोकार महज़ घूमना-फिरना भर नहीं, वरन् धरोहरों से, प्रकृति से, संस्कृति और लोकजन से एक आत्मीय मित्रता का रिश्ता कायम करना है। ये यात्राएँ मुझे सदैव पूर्ण करती हैं। ऐतिहासिक स्थल हों या मंत्रमुग्ध करता प्रकृति का सानिध्य, मुझे सब अपनी ओर खींचता है, उनमें बंधी कहानियों, रोचक किस्सों और शिल्प के नेपथ्य की ओर।
पिछले वृत्तांत में मैंने आपको एलीफेंटा गुफाओं में कैलास विराजे शिव-पार्वती से मिलवाया था बाकी मेरे संग आगे चलने के लिये पिट्ठू बस्ता लटका लीजिये।
त्रिमूर्ति:
त्रिमूर्ति ऐलीफेंटा की सबसे महत्वपूर्ण व अद्भुत मूर्ति है। यहाँ उत्कीर्ण देवाधिदेव महादेव की प्रतिमाओं में ये सबसे तेजमयी और अद्भुत मूर्ति है। इसमें त्रिदेव ध्यानमग्न बैठे हैं, बारीक शिल्प द्वारा स्टोन कार्विंग की गयी है। शिव के हाथ में कुछ नारियल या मोदक जैसा कुछ रखा है। इस प्रतिमा की डीटेलिंग कमाल की है। मुकुट पर टंगी माला और उसके लटकते झूलते मोती। यह प्रतिमा अपनी भव्यता के गुणगान स्वयं ही कर देती है। यह एकमात्र साबुत मूर्ति है।
कैलास उठाने की कोशिश करता रावण:
कहते हैं अहंकार बुद्धि हर लेता है, वही भाव इस प्रतिमा में मुस्कुराता है। यह मूर्ति कैलास पर्वत पर सपरिवार विराजमान शिव-पार्वती के इर्दगिर्द अन्य देवी-देवता व गणों की है। राजबैठक-सा आभास देती हुई इस संयुक्त प्रतिमा में शिव-सती के चरण कमलों के समीप भृंगी ऋषि का कंकाल भी रखा स्पष्ट दिखता है। सीधे हाथ के पास गणनायक गणेश विराजे हैं।
कैलास को अहंकारवश और शक्तिप्रदर्शन के औचित्य से उठाने के प्रयास में लिप्त रावण की मूर्ति ज़्यादा ही खण्डित की जा चुकी है। पौराणिक कथाओं में जाकर देखूँ तो साधारण असुर प्रवृत्ति के रावण की घोर तपस्या से प्रसन्न होकर देवाधिदेव महादेव ने उसे वर माँगने के लिये कहा।
महाशिव ने अन्य देवी-देवताओं के मना करने के बाद भी रावण को महाशक्तिशाली होने का वरदान प्रदान किया। नारद मुनि के उकसाने पर इस मद में डूबे रावण ने वर के रूप में मिली असाधारण शक्ति का परीक्षण करने हेतु कैलास पर्वत को लंका उठा लाने की चेष्टा की। अहंकार इतना बड़ा था कि सपरिवार शिव को भी वो लंका में लाने की सोचने लगा। यह बात शिव समेत सभी देवों को नागवार गुज़री तो महाशिव ने मदान्ध रावण के अहंकार को मात्र अपने एक अंगूठे से पर्वत को तीन लोकों के भार जितना दबा कर स्थिर कर के चूर-चूर कर दिया था।
तत्पश्चात् शिव के संपूर्ण भार से भारी हुए पर्वत के नीचे दबे रावण की साँस घुटने लगी। वह मूर्छित होने लगा तब उसे भान हुआ कि उसकी अपार शक्ति भी भगवान शिव के मात्र एक अंगूठे के समक्ष भी शून्य सम है। (यहाँ का शिल्प भी सभी भाव दर्शाता है।)
अपने भाईयों व मंत्रिमंडल के परामर्श पर रावण पुनः सहस्रों वर्षों तक शिव की आराधना में लीन हो गया। तत्पश्चात् भगवान् शिव ने प्रसन्न होकर वरदान के रुप में उसे चंद्रहास नामक एक अजेय तलवार दी एवंम् रावण द्वारा गाये गये स्तुति मंत्र को शिव ने ‘शिव ताण्डव स्त्रोत’ का नाम दिया।
शिव योगी:
इस प्रतिमा चित्र में भगवान् शिव योगमुद्रा में हिमालय पर्वत पर विराजे हैं । माता सती की मृत्यु के पश्चात् दुख-वियोग में आँखें बंद किये महाशिव ध्यानमग्न हैं । ऊपरी भित्ति पर उत्कीर्ण शिल्प विभिन्न देवी-देवताओं, भूत-गणों आदि को दर्शाता है । अपने सभी गणों से घिरे शिव को उनके कमल पुष्पी आसन सहित नागों ने अपने ऊपर धारण किया है।
इस विशाल संयुक्त प्रतिमा-चित्र में गरुड़ पर विराजे भगवान विष्णु भी उत्कीर्ण हैं तो हंस पर विराजे ब्रम्हा जी, खण्डित हुये ऐरावत इंद्र, केले के पत्ते पर गरुड़ की सवारी करते विष्णु, भंगित शीषों वाले सात घोड़ों के रथ की सवारी करते सूर्य देव। इनके अलावा माला जपते एक ऋषि, घुटनों तक वस्त्र धारण किये देवियाँ, हाथों में जल का कलश लिये चंद्रदेव भी ।
बुरी तरह खण्डित कर दी गयी इस प्रतिमा में से महाशिव की बंद आँखें और चेहरे के सती वियोग में लिप्त भाव जस के तस बरकरार हैं । वियोग में शिव की विरक्ति इस शिल्प ने जीवंत कर दी है ।
शिव-सती की कथा ,पिता दक्ष द्वारा शिव का अपमान और सती की मृत्यु से क्रोधित शिव के ताण्डव की उत्पत्ति हम सभी जानते ही हैं और वो पार्वती जी बन कर पुनः अवतरित हुई यह भी ,,,यह कथा इस प्रतिमा के संग मन को आच्छादित कर लेती है ।
शिव-पार्वती विवाह:
पूर्व वर्णित मूर्तियों के अतिरिक्त एक और भित्ति पर उत्कीर्ण किया गया है शिव- पार्वती के विवाह का अद्भुत दृश्य । इन्हें भी खण्डित कर दिया गया है । सुखद आश्चर्य यह है कि….कुटिल मंशायें इन मूर्तियों में उकेरे भाव -भंगिमाओं को ध्वस्त नहीं कर सकीं ।
देवी माता पार्वती के मुखमण्डल की आभा और विवाह के अवसर पर नववधू की सी लजाती भंगिमायें आज भी बरकरार हैं । मुझे लगता है धरोहरों में बसे शिल्पकारों के मन के जुगनू इन्हें जगमग रखते होंगे ।
गंगा धारण करते शिव:
शिव -पार्वती युक्त यह बड़ी संयुक्त प्रतिमा अपनी सुंदरता को स्वयं बयान करती है । खण्डित होने के बाद भी इसमें उत्कीर्ण शिव का जनेऊ,जटा,उनकी भुजाओं पर लिपटे नाग महाशिव रूप को सामने ला देते हैं । इस मूर्ति में पावनी गंगा नदी भगवान शिव की जटाओं में प्रवेश करती दिखाई गई हैं । ये मूर्ति तीनों नदियों गंगा,सरस्वती, यमुना का तीन सिरों वाला नारी रूप है ,जो जटा से होती हुई घुंघराली धाराओं में से नीचे आती दिखती हैं । साथ ही देवी-देवता,गण-दूत समेत बृह्मा जी कमल पर विराजे हैं । शेषनाग और विष्णु भी उकेरे गये हैं । शिव-पार्वती जी के गले की कंठी बड़ी सुंदर दर्शाई गई है । खण्डित होकर भी यह अपने अद्भुत शिल्प पर इतराती है ।
अर्धनारीश्वर रूप:
अपने आधे नर और आधी धारी स्वरूप को उकेरती यह सुन्दर प्रतिमा शिव के इस स्वरूप को बख़ूबी दर्शाती है ।शिव ने अपनी शक्ति को सृष्टि के निर्माण हेतु पृथक किया था । तब से यह रूप सृजन और नर-नारी के एक समान महत्व का द्योतक है । इस प्रतिमा को भी खण्डित किया गया है बाबजूद इसके अर्धनारीश्वर शिव अपने नर रूप को नन्दी पर टिका कर खड़े हैं । और शिव-शक्ति की चारों भुजाओं में से शक्ति की एक भुजा में कंगन पहने और उससे आईना पकड़े हुये हैं एवम् कटि प्रदेश के उभरते लोच को दर्शा रही है । इसमें भी सभी भूत-गण,ब्रह्मा, विष्णु, इंद्र आदि देवता है । शिव की जटाओं में उलझा अर्धचन्द्र भी मुस्कुरा रहा है ।
विराट देवाधिदेव महाशिव के विविध रूपों को मन के भीतर टाँक लेने और आजीवन मुग्ध होते रहने का शिवमूर्तियों का पड़ाव यहाँ आकर थमता है। ऐलीफेंटा की इन अद्भुत गुफाओं में हर पल भगवान शिव का अस्तित्व महसूस होता है, मैं प्रतिमाओं में उनकी सभी कथाओं को जीवंत होते महसूस कर सकी हूँ ,तो आप भी निश्चित ही करेंगे।
अगली यात्रा पर फिर से गुफ़ाओं में ले चलूँगी। तब तक के लिये आज्ञा दें।
– प्रीति राघव प्रीत