रचना-समीक्षा
एक महत्त्वपूर्ण सरोकार की कहानी ‘अनुभव’ : के.पी. अनमोल
गंगानगर (राजस्थान) से प्रकाशित मासिक पत्रिका ‘अंजुम’ के सितम्बर 2015 अंक में बीकानेर की कथाकार/कवयित्री आशा शर्मा जी की एक कहानी ‘अनुभव’ पढ़ी। कहानी हमारे समाज में वृद्धों की उपेक्षा का कड़वा सच हमारे सामने रखती है और हमें वृद्धों का महत्त्व भी समझाती है।
आशा जी बीकानेर में विद्युत विभाग में अभियंता के बतौर कार्यरत हैं और साथ ही कुछ वर्षों से साहित्य साधना में भी रत हैं। इनकी कुछ कविताएँ और कहानियाँ मैं पहले भी पढ़ चुका हूँ। यह देखकर अधिक प्रसन्नता होती है कि आशा जी का रचनाकर्म महत्त्वपूर्ण सामाजिक मुद्दों पर होता है।
यह कहानी भी सास-बहु के पारिवारिक संबंध पर आधारित है। कहानी की प्रमुख पात्र वर्षा अपने नौकरी पेशा पति और बच्चों के साथ ख़ुशहाल जीवन जी रही है। घर के कामों के बाद मिले ख़ाली समय को काटने के लिए उसने घर में ही एक ब्यूटी पार्लर खोल रखा है, जो कि ख़ूब अच्छा चल भी रहा है।
परिवार, पति, बच्चों और पार्लर में खोयी रहने वाली वर्षा को आभास ही नहीं होता कि इन सबके बीच उसकी ज़िंदगी इस क़दर उलझकर रह गयी है कि वह अपनी सेहत का ख़याल ही नहीं रख पा रही। कुछ दिनों से उसे कमर दर्द भी रहने लगा है।
अपनी एक नियत जीवनचर्या में बंधी वर्षा को जब पता चलता है कि कुछ दिनों के लिए उसकी सास उनके साथ रहने आ रही है, तो आजकल के ‘ट्रेंड’ के अनुसार उसका भी सिरदर्द शुरू हो जाता है। सास के आने से पूर्व ही उसे सास के आने के बाद की स्थिति को सोच-सोचकर चिडचिडाहट होने लगती है। वह समझ रही है कि सास के आने से उसे ‘हर काम में रोक-टोक’ और ‘बेवजह के हुकम’ का सामना करना पड़ेगा।
लेकिन सास के वापस लौटने के बाद वर्षा की मन:स्थिति, उसकी दैनिकचर्या की तरह बिल्कुल अलग होती है। बल्कि अब तो उसे सासू माँ का वापिस जाना खल रहा है।
दरअसल सासू माँ के आने को लेकर वर्षा ने जो क़यास लगाये थे, वे सब गलत निकले। सासू माँ ने तो आकर वर्षा का जीवन ही बदल दिया। वर्षा जो दिन भर परिवार और पार्लर के बीच मशीन सी दौड़ती रहती थी, अब उसे ये दोनों ज़िम्मेदारियों के निर्वाह के बाद भी अपने लिए समय मिलने लगा था। सासू माँ की अनुभवी आँखों ने उस कमी को पकड़ लिया था, जिसे वर्षा नहीं देख पा रही थी और उस कमी को दूर करने में उसका बराबर सहयोग भी किया। अब वर्षा को यह अहसास हो चुका था कि बुज़ुर्गों के अनुभव का कोई विकल्प नहीं होता।
कहानी तो वर्षा को सासू माँ के अनुभव और स्नेह का अहसास कराकर खत्म हो जाती है, लेकिन पाठक के लिए कई प्रश्न व सबक़ छोड़ जाती है।
वर्षा की सासू माँ के आने से पहले उसके विचार हमें सोचने पर विवश करते हैं कि आज हम कितने स्वार्थी हो गये हैं कि अपनी दिनचर्या में ख़लल ना हो इस वजह से घर के वृद्धों की उपेक्षा करना शुरू कर देते हैं, बिना यह सोचे कि हम उन्हीं लोगों की वर्षों की मेहनत और क़ुर्बानियों से कुछ बन पाये हैं।
हम उनके अहसानों को भुलाकर उनसे आँखें चुराने लगते हैं, जिन्होंने हमारे लिए अपने जीवन के कई अमूल्य वर्ष क़ुर्बान किये हैं और अब जब उन्हें हमारी ज़रूरत है, तब हम बहाने कर उन्हें टालना शुरू कर देते हैं।
सासू के जाने के बाद वर्षा को बहुत ख़ुश देखकर लेखक का यह कहकर चुटकी लेना, “बहुत ख़ुश लग रही हो, सासू माँ को विदा कर दिया क्या?” महज़ एक व्यंग्य नहीं है, बल्कि वह चुल्लू है जिसमें हमें डूब मरना चाहिए। रचनाकार ने इन शब्दों के माध्यम से हमारे हाथों में सच दिखाने वाला आईना पकड़ाया है, जिसे देखकर हम लोगों के सर शर्म से झुक जाने चाहिए।
शायद यह इस दौर की सबसे निचले स्तर की गाली है कि हम घर से माँ-बाप/ सास-ससुर को विदा कर उनसे पल्ला छूटने पर ख़ुश हो मुस्कुराते हैं।
कहानी में कहानीकार ने वृद्धों के महत्त्व को बहुत ही सहज तरीक़े से स्थापित किया है और बताया है कि वे अंत तक हमारे लिए किस प्रकार उपयोगी हैं। कहानी की भाषा बिल्कुल आपकी-मेरी भाषा है और कहानी के पात्र हर घर के पड़ौस के लोग। कहानीकार को एक महत्त्वपूर्ण सरोकार की रचना के सृजन और पत्रिका को एक ज़रूरी रचना के प्रकाशन पर साधुवाद।
समीक्ष्य कहानी आप यह तस्वीर डाउनलोड कर पढ़ सकते हैं-
– के. पी. अनमोल