उभरते स्वर
एक नए भोर की ओर
हल्की कुनकुनी ठंड में
एक कप कॉफी लिए हाथ में
मेज़ पर फैले काग़ज़ों पर
सोच रही थी
एक नज़्म तराश दूँ
मानों मन के बोझ को
इन पन्नों पर उतार दूँ।
हाँ, बोझ ही तो बन जाती हैं वो बातें
जो हम किसी से कह नहीं पाते
अंदर ही अंदर उलटते-पलटते
कभी ठंडे तो कभी आग उगलते
अपने को ही हैं जलाते।
सोचा इन पन्नों पर उन्हें सजा दूँ
शब्दों का जामा पहना दूँ
क्यों न कोई नाम भी दे दूँ
इस दुनिया को कोई पैग़ाम भी दे दूँ
काग़ज़ पर उतरकर
शब्दों का जामा पहनकर
बोल उठी वो बातें
पन्नों पर बिखर-बिखर कर।
मन भी ख़ुश था
बढ़ चला एक नई डगर की ओर
नई आशा, नई उम्मीद लिए
एक नए भोर की ओर।
******************
अधूरी कविताएँ
मेरी कुछ कविताएँ
अधूरी ही रह गयीं
स्याही तो ख़त्म
नहीं हुई थी मगर
हवा के इक झोंके से
पन्ने गये थे बिखर
मुद्दतों बाद उन पन्नों को पाया है
कुछ पन्ने तो कोरे हैं
तो कुछ पर कोई कहानी है
कैसे पूरी करूँ मैं
अपनी कविता!
हालात की मजबूरी है
मेरी कविताएँ तो अधूरी हैं।
– नमिता सिंह