‘भारत’ हमारी जननी, जन्मभूमि है, इसीलिए हम सभी इसे स्नेह से ‘भारत माँ’ कहते आये हैं। प्राचीनकाल से गाय की पूजा होती रही है, साथ ही इसके दूध और उससे बने उत्पाद हम सभी के आहार का प्रमुख हिस्सा हैं। राष्ट्र के विकास में डेयरी उद्योग की महत्वपूर्ण भूमिका से भी इंकार नहीं किया जा सकता। इसलिए गाय को ‘माँ’ का दर्जा देना तर्कसंगत है। लेकिन सेलिब्रेशन के नाम पर बन्दूक की नाल में कबूतरों को फँसाकर उन्हें हवा में ही भस्म होता हुआ देख किस माँ की आँखें नम न होती होंगी? क्या अन्य जानवरों पर अत्याचार होते देख उसका ह्रदय ग्लानि से न भर जाता होगा? आख़िर कौन सी माँ अपने बच्चों को किसी की हत्या करना सिखाती है? उन्हें रक्षक के नाम का मुखौटा लगा भक्षक बन जाता देखना भला उसे कैसे रास आ सकता है? जिसकी रक्षा के नाम पर यह खेल खेला जा रहा है, उसके ह्रदय की पीर किसने जानी है? यही खेल ‘धर्म’ के नाम पर भी सदियों से खेला जा रहा है। ‘गौ हत्या’ पर प्रतिबंध है, एकदम सही…होना भी चाहिए। पर ‘मानव हत्या’ पर प्रतिबंध है या नहीं? इसे न मानने वाले को कब सजा मिलती है?
अगर ‘धरती’ हमारी माँ है, तो ‘संस्कार’ हमारे पिता हैं। ‘मर्यादा’ हमारी मौसी है। विनम्रता, धैर्य, सहनशक्ति हमारे भाई-बहिन हैं। शालीन भाषा और सभ्यता हमारे पितामह/पितामही हैं। और इन सबसे ऊपर मानवता हम सबकी गुरु है और इस गुरु के चरणों में ही सदैव जन्नत नसीब होती है।
ईर्ष्या, द्वेष, आपसी कलह, वैमनस्यता, प्रतिशोध की भावना ये सब ज़हर हैं जो जीवन को खोखला कर अवसाद से भर देते हैं और मनुष्य स्वयं ही ख़त्म होने लगता है। ये सिर्फ हमारे ही नहीं बल्कि पूरे समाज और इंसानियत के दुश्मन हैं। जानती हूँ, मैंनें कुछ नया नहीं कहा। हममें से अधिकांश लोग इस सोच से भी इत्तेफ़ाक़ रखते होंगे। तो फिर वो कौन हैं जो हमारे समाज में आग लगाने का काम कर रहे हैं?
इधर रासायनिक हमलों और उनसे उत्पन्न हुई भयावह परिस्थितियाँ कितने ही प्रश्न हर रोज खड़ा करती हैं। क्या सचमुच इंसानियत की आँखों का पानी मर चुका है? आखिर क्यों मानवता को जीवित रखने का हर प्रयास आडंबरों और नियम कानून के बोझ तले कुचल दिया जाता है? विस्फोट के बाद कुत्सित मानसिकता और दूषित सोच से भरे चेहरे अपनी इस विजय पर विद्रूपता से ठहाके लगाते हैं। वहीं वातावरण को दूषित करते इस बारूद की गंध में खेलते उन्हीं के बच्चे कब इसे खिलौना बनाकर खेलने लगते हैं, उन्हें भी पता नहीं चलता। दोष संस्कारों का नहीं, उस माहौल का है जिसे इन मासूमों पर थोपते हुए हमारी पीढ़ी सदियों शर्मिंदा रहेगी।
प्रश्न यह है कि आख़िर कैसे इस युग का मानव स्वयं को आधुनिक और सभ्य कह पाता है? पाषाण युग इससे कही अधिक बेहतर रहा होगा।
प्रश्न यह भी है कि विकास की यह परिभाषा इतनी अज़ीब क्यों है?
ज्ञान का दुरुपयोग किस हद तक विध्वंसता में परिवर्तित हो सकता है, दुर्भाग्य से हम और आप..उन्हीं पलों के साक्षी बनते जा रहे हैं। नन्हे बच्चों को सुनाने के लिए अब परियों और राजकुमारों की कोई कहानी शेष नही रही…! अब बम है, बंदूक है, लाशें है…दुर्गंध है।
तमाम सुख-सुविधाओं के बीच चलते जीवन में कितनी बातें हैं जो हैरान और दुःखी कर जाती हैं। कहीं पशु-हत्या के एवज़ में किसी इंसान को मौत के घाट उतार दिया जाता है। तो कहीं कृषि प्रधान देश का गौण होता कृषक, परिस्थितियों के आगे घुटने टेक स्वयं ही वृक्ष पर झूल जाता है। प्रेम रहेगा या नहीं, होना चाहिए भी कि नहीं इसका निर्णय या तो भीड़ तय करती है या पंचायतें! ख़ून का रिश्ता हो तो कानून, सबूत मांगता है। देशभक्त और देशद्रोही की बनी नई परिभाषाओं के बीच कुछ कह देना भी अब ख़तरे से खाली कहाँ रहा!
आख़िर किसे नहीं होता अपने देश से प्रेम? पर जो बातें दुःखदायी हों, फिर उनकी तरफ इशारा कौन करे? नित लोग जीते भी हैं, मरते भी……हँसते भी हैं, रोते भी! आह, न जाने कैसा दौर है ये कि अब इन बातों से ज़्यादा फ़र्क़ ही नहीं पड़ता और तमाम दुःखों के बीच भी
ज़िन्दगी आसानी से गुजरना सीखने लगी है।
इसी सन्दर्भ में के. पी. अनमोल की एक ग़ज़ल के कुछ अशआर याद आ रहे हैं –
एक दिन यह हादसा हो जाएगा
आदमी से रब ख़फ़ा हो जाएगा
किसने सोचा था कि मज़हब एक दिन
खौफ़ के सामान सा हो जाएगा
ज़ह्नो-दिल के बीच फिर से ठन गई
आज शायद फैसला हो जाएगा
अस्ल में दुनिया समझ तब आएगी
जब दुखों से साबका हो जाएगा