स्मृति
एक दर्द की किरन है कि ज़िंदा दिखाई दे
(ख़िराजे-अक़ीदत: ज़फ़र गोरखपुरी)
पिछले दिनों लोकप्रिय शायर ज़फ़र गोरखपुरी का निधन 82 वर्ष की उम्र में शनिवार, 29 जुलाई 2017 को मुम्बई, अंधेरी (पश्चिम) में हो गया। 5 मई 1935 ई. को इनका जन्म बेदौली बाबू (बासगाँव) गाँव में हुआ। गाँव से ही शिक्षा प्राप्त कर उन्होंने मजदूरी के इरादे से मुम्बई का रुख किया। यहाँ इन्हें फ़िराक़ गोरखपुरी, जोश मलीहाबादी, मजाज़ लखनवी और जिगर मुरादाबादी सरीखे कई बड़े शायरों का सानिध्य मिला। कुछ समय तक इनका जुड़ाव प्रगतिशील लेखक संघ से भी रहा।
इनकी प्रकाशित किताबें तेशा (1962), वादिए-संग (1975), गोखरु के फूल (1986), चिराग़े-चश्मे-तर (1987) और हल्की ठंडी ताज़ा हवा (2009) हैं। देवनागरी में इनका पहला ग़ज़ल संग्रह ‘आर-पार का मंज़र’ 1997 में प्रकाशित हुआ। इन्होंने बाल साहित्य भी रचा। बाल साहित्य की इनकी दो पुस्तकें ‘नाच री गुड़िया’ (कविता संग्रह) और ‘सच्चाइयां’ (कहानी संग्रह) प्रकाशित हैं।
इन्होंने भारतीय फिल्मों के लिए भी गीत लिखे। ‘समझकर चाँद जिसको आसमां ने दिल में रखा है’, ‘क़िताबें बहुत-सी पढ़ी होंगी तुमने’ (बाज़ीगर), ‘हम जानते हैं तुम हमें नाशाद करोगे’ (खिलौना) इनके कुछ चर्चित गीत हैं। फ़िल्म ‘नूरे-इलाही’ की एक क़व्वाली ‘बड़ा लुत्फ़ था जब कुँआरे थे हम तुम’ ने अपने दिनों में बहुत धूम मचाई थी। इनकी रचनाएँ महाराष्ट्र की स्कूल और कोलेजों के पाठ्यक्रमों में भी पढ़ाई जाती है।
इन्हें महाराष्ट्र उर्दू आकादमी का राज्य पुरस्कार (1993), इम्तियाज़े-मीर अवार्ड (लखनऊ) और युवा-चेतना सम्मान समिति गोरखपुर द्वारा फ़िराक़ सम्मान (1996) से नवाज़ा गया।
‘हस्ताक्षर’ परिवार इन्हें श्रद्धा-सुमन अर्पित करता है।
पेश है उनकी कुछ प्रमुख रचनाएँ-
ग़ज़ल-
बदन कजला गया तो दिल की ताबानी से निकलूंगा
मैं सूरज बनके इक दिन अपनी पेशानी से निकलूंगा
मुझे आँखों में तुम जां के सफ़र की मत इजाज़त दो
अगर उतरा लहू में फिर न आसानी से निकलूंगा
नज़र आ जाऊंगा मैं आंसुओं में जब भी रोओगे
मुझे मिट्टी किया तुमने तो मैं पानी से निकलूंगा
मैं ऐसा ख़ूबसूरत रंग हूँ दीवार का अपनी
अगर निकला तो घरवालों की नादानी से निकलूंगा
ज़मीरे-वक़्त में पैवस्त हूं मैं फाँस की सूरत
ज़माना क्या समझता है कि आसानी से निकालूंगा
यही इक शय है जो तनहा कभी होने नहीं देती
ज़फ़र मर जाऊंगा जिस दिन परेशानी से निकलूंगा
ग़ज़ल-
मेरे बाद किधर जाएगी तन्हाई
मैं जो मरा तो मर जाएगी तन्हाई
मैं जब रो-रो के दरिया बन जाऊँगा
उस दिन पार उतर जाएगी तन्हाई
तन्हाई को घर से रुख़्सत कर तो दो
सोचो किस के घर जाएगी तन्हाई
वीराना हूँ आबादी से आया हूँ
देखेगी तो डर जाएगी तन्हाई
यूँ आओ कि पावों की भी आवाज़ न हो
शोर हुआ तो मर जाएगी तन्हाई
ग़ज़ल-
सिलसिले के बाद कोई सिलसिला रौशन करें
इक दिया जब साथ छोड़े दूसरा रौशन करें
इस तरह तो और भी कुछ बोझ हो जाएगी रात
कुछ कहें कोई चराग़े-वाक़िया रौशन करें
जाने वाले साथ अपने ले गए अपने चराग़
आने वाले लोग अपना रास्ता रौशन करें
जलती बुझती रौशनी का खेल बच्चों को दिखाएँ
शम्मा रक्खें हाथ में घर में हवा रौशन करें
आगही दानिश दुआ जज़्बा अक़ीदा फ़लसफ़ा
इतनी क़ब्रें हाए किस किस पर दिया रौशन करें
शाम यादों से मोअत्तर है मुनव्वर है ‘ज़फ़र’
आज ख़ुशबू के वज़ू से दस्त-ओ-पा रौशन करें
ग़ज़ल-
देखें क़रीब से भी तो अच्छा दिखाई दे
इक आदमी तो शहर में ऐसा दिखाई दे
अब भीक माँगने के तरीक़े बदल गए
लाज़िम नहीं कि हाथ में कासा दिखाई दे
नेज़े पे रख के और मेरा सर बुलंद कर
दुनिया को इक चिराग़ तो जलता दिखाई दे
दिल में तेरे ख़याल की बनती है एक धनक
सूरज-सा आइने से गुज़रता दिखाई दे
चल ज़िंदगी की जोत जगाएं, अजब नहीं
लाशों के दरमियां कोई रस्ता दिखाई दे
हर शय मेरे बदन की ‘ज़फ़र’ क़त्ल हो चुकी
एक दर्द की किरन है कि ज़िंदा दिखाई दे
– ज़फ़र गोरखपुरी