मूल्याँकन
एक और सिंदबाद: सार्थक गुणों की खोज की यात्रा
– डॉ. नितिन सेठी
उषा यादव एक संवेदनशील बाल साहित्यकार हैं। बाल साहित्य की लगभग सभी विधाओं को आपने अपने सजग लेखन से परिपुष्ट किया है। बालगीत, बालकहानी के साथ-साथ आपने बाल उपन्यासों पर भी अपनी लेखनी चलाई है। ‘सोना की आँखे’, ‘किले का रहस्य’, ‘हीरे का मोल’, ‘सोने की खान’ जैसे बाल उपन्यास पाठकों द्वारा खूब सराहे गये हैं। अभी हाल ही में किशोर वय वर्ग के लिये आपका एक उपन्यास प्रकाशित हुआ है, जिसका नाम है ‘एक और सिंदबाद’। यह उपन्यास किशोर वय के बालकों के मनोविज्ञान पर केंद्रित है। बालक जब अपनी किशोरावस्था में कदम रखता है तो उसके सामने खुला आकाश होता है। उसकी उन्मुक्त आकाँक्षाओं की मस्त उड़ान उसे धरती पर टिकने नहीं देती अपितु उसका ध्यान भटकाये ही रखती है। किशोर अपने ‘पीयर ग्रुप’ से प्रभावित रहता है और बहुत जल्दी ही सबकुछ प्राप्त कर लेना चाहता है। इसी जल्दबाज़ी में वह कुछ ऐसे ग़लत कदम उठा लेता है, जिसमें उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा को धक्का लगता है। ‘एक और सिंदबाद’ इसी मनोवैज्ञानिक चिंतन का प्रकटीकरण अपनी कथावस्तु में करता है। एक भले परिवार का किशोर वय बालक किस प्रकार ग़लत मार्ग चुन लेता है और उसे आगे क्या-क्या समस्याएँ देखनी पड़ती हैं, प्रस्तुत उपन्यास का मूल विषय है।
कक्षा बारह में अध्ययनरत कुशाग्र सामान्य परिवार से है। उसकी महत्वाकाँक्षाएँ और इच्छाएँ समय के साथ-साथ बढ़ती जाती हैं। साधारण आय के पिता किसी तरह दोनों बच्चों को अच्छे विद्यालय में पढ़ा रहे हैं। विद्यालय के पिकनिक कार्यक्रम हेतु पाँच-पाँच हजार रुपये जमा किये जा रहे हैं। कुशाग्र के माता-पिता इतने अधिक खर्च को वहन कर पाने की स्थिति में नहीं हैं। यहाँ से आरम्भ होता है उस अन्तद्र्वन्द्व का जिसकी परिणति भली नहीं है। कुशाग्र अपने स्कूल में ही पढ़ने वाले कक्षा छः के छात्र जूनियर कुशाग्र पर अपना रौब गाँठता है। जूनियर कुशाग्र शहर के नामी ज्वैलर्स सुधीर रामचंदानी ज्वैलर्स का छोटा बेटा है। धीरे-धीरे कुशाग्र का लालच बढ़ता जाता है और वह जूनियर कुशाग्र पर हर तरीके से दबाव बनाकर उससे धनराशि हड़पता रहता है। अंत में जूनियर कुशाग्र को अपने घर से सोने के आभूषण भी चुराने पड़ते हैं ताकि वह कुशाग्र की अनैतिक माँगों को पूरा कर सके। जूनियर कुशाग्र, कुशाग्र और उसके मित्रों की आए दिन मिलने वाली धमकियों से परेशान है और सहमा रहता है। अंत में जूनियर कुशाग्र और उसका परिवार इन सभी घटनाओं की रिपोर्ट पुलिस में लिखवाते हैं और कुशाग्र को जेल हो जाती है। परन्तु थाने में जूनियर कुशाग्र, अपने सीनियर कुशाग्र को जेल से छुड़वाने की प्रार्थना अपने माता-पिता से करता है। छोटे कुशाग्र की इस दरियादिली के साथ उपन्यास का अंत हो जाता है।
सामान्य संदर्भो में उपरोक्त कथावस्तु सामान्य-सी घटना लगती है परंतु इसके प्रस्तुतिकरण-प्रदर्शन परिणाम में एक विशिष्टता है। उषा यादव यहाँ दो किशोरवय के बालकों की मानसिक दशा को चित्रित करने में अधिक सजगता दिखाती हैं। हमारा मानसिक जीवन भाव पक्ष से संचालित होता है। भावपक्ष मानसिकता को उत्प्रेरित करता है। अब जैसा भाव सामने वाले से बालक को मिलेगा, उसका मानसिक उत्प्रेरण उसी प्रकार से होगा। यहाँ सीनियर कुशाग्र की मनोवृत्तियाँ इसीलिये हिंसक और पीड़ादायक दिखाई देती हैं क्योंकि उसे अपने माता-पिता से अपने सीमित आय के परिवेश और परिस्थितियों को जानने-समझने का मानसिक उत्प्रेरण नहीं मिल पाया। सीनियर कुशाग्र अपनी लालच व लोभी प्रवृत्ति को दिन प्रतिदिन बढ़ाता जाता है और जूनियर कुशाग्र इस अनैतिक कार्य में उसका, अनचाहे-अनजाने ही सही, सहायक भी बनता जाता है। बाल व्यवहार का जो असंतुलित रूप हमें सीनियर कुशाग्र के जीवन में दिखलाई पड़ता है, वह उसकी कुण्ठित इच्छाओं और दमित भावनाओं की एक बानगी भर है। यह कथानक के मनोवैज्ञानिक पक्ष को उजागर करता है।
लेखिका ने इस किशोर उपन्यास में सीमित पात्रों की योजना की है। यह ठीक भी है। किशोर वर्ग के बालक उपन्यास के नायक के व्यक्तित्व में खुद को रखकर चलते हैं। सीमित पात्र संख्या के साथ तादाम्त्य अधिक सरल होता है। सीनियर और जूनियर कुशाग्र का परिवार, सीनियर कुशाग्र की मित्र-मंडली, प्रधानाचार्य, पुलिस इंस्पेक्टर, कुल मिलाकर पंद्रह-बीस पात्रों के साथ पूरी कथा का ताना-बाना बुना गया है। ये पात्र आज की भौतिकवादी दुनिया के पात्र हैं। सीनियर कुशाग्र के माता-पिता अपने सीमित संसाधनों में बच्चों की देखभाल करते हैं, वहीं जूनियर कुशाग्र के माता-पिता धन की लिप्सा में तथाकथित माॅडर्न बने हुए हैं और अपने पुत्र को आया के हाथों में देकर निश्चिन्त हैं। सीनियर कुशाग्र के अभिभावक जहाँ रुपयों की कमी से बच्चों को अच्छी परवरिश दे पाने में नाकाम हैं, वहीं जूनियर कुशाग्र के अभिभावक रुपयों की अधिकता से अपने बच्चों को अच्छी परवरिश देने का दंभ भरते दिखते हैं। मगर बच्चा चाहता क्या है? वह चाहता है माता-पिता का थोड़ा-सा ध्यान उसकी ओर भी रहे। किशोरावस्था के बढ़ते बच्चों के लिये तो यह बात और भी आवश्यक हो जाती है क्योंकि यह उन्माद की अवस्था कही गई है। उषा यादव इसी उन्माद और आवश्यकता का एक सुदृढ़ ताना-बाना अपने इस किशोर उपन्यास में बुनती हैं। दोनों ही परिवारों में बच्चे हैं, माता-पिता हैं, शिक्षा के प्रति समर्पण है, बच्चों की छोटी-बड़ी आवश्यकतायें हैं। परंतु जिस तत्व की कमी है, वह है बच्चों पर दिया जाने वाला उचित ध्यान और ध्यान तभी सही प्रकार से दिया जा सकता है, जब संरक्षक इसके लिये कुछ समय निकालें। इस प्रकार यह उपन्यास आज के भौतिकवादी समय की एक सबसे बड़ी कमी की ओर इशारा करता है। आज के समय की समस्या है ‘समय की कमी’ जिस कारण बच्चों की महत्वाकाँक्षाएँ बढ़ती जाती हैं और वे धीरे-धीरे गलत मार्ग को अपनाते जाते हैं।
उपन्यास की भाषा-शैली सामान्य ही है और यह बात ही उपन्यास की पठनीयता में अभिवृद्धि करती है। किशोरवय के बच्चे अधिक दार्शनिक बातों को आत्मसात कर पाने में सफल नहीं होते। उन्हें तो अपने परिवेश से जुड़े हुई कहानियाँ ही आकर्षित करती हैं। ‘एक और सिंदबाद’ में बच्चों के परिवेश से जुड़ी कथावस्तु दर्शाई गई है। विद्यालय, कैंटीन, मित्र-मंडली, मनपसंद मोबाइल, कम्प्यूटर, बाइक ये सब पाठकों को अपनी चमक-दमक से आकर्षित किये रहते हैं। सामान्यतया इंटर काॅलेजोें में यह समस्या भी पाई जाती है कि छोटी आयु वर्ग के बच्चे, बड़ी आयु वर्ग के बच्चों के व्यवहार और उद्दंडता से त्रस्त रहते हैं। सामान्यतया यह ‘रैगिंग’ जैसी कुत्सित वृत्ति पर एक प्रहार भी है। सीनियर कुशाग्र की माँ कुशाग्र को सदैव सही रास्ते पर चलने और अपनी पारिवारिक स्थिति को भली-भांति समझने का सुझाव देती रहती है। उसके अनेक संवाद ऐसे रचे गये हैं, जिनमें मातृत्व का गुण और नैतिकता की भावना दृष्टिगोचर होती है। उपदेशाात्मक शैली के संवाद यहाँ द्रष्टव्य हैं परंतु यह कोरी उपदेशात्मकता नहीं है अपितु इसमें एक यथार्थ बोध भी है। सीनियर कुशाग्र के सम्वाद कुशाग्र की मनोवृत्ति की पूर्ण झलक दे देते हैं। उसकी लालच, क्रूरता, कठोरता, असत्यवादिता और अति महत्वाकाँक्षा कुल मिलाकर उसे एक नकारात्मक चरित्र के रूप में हमारे समक्ष उपस्थित करते हैं। सीनियर कुशाग्र के संवाद असभ्यता, निराशा, अनमनेपन का मिला-जुला रूप कहे जा सकते है। इसी प्रकार जूनियर कुशाग्र और उसके माता-पिता के संवाद सभ्यता और संस्कारों की बानगी हैं।
‘एक और सिंदबाद’ शीर्षक अपने प्रतीकात्मक रूप से बहुत कुछ कह जाता है। सिंदबाद जहाजी की कहानी प्रसिद्ध है, जिसमें अमीर सिंदबाद गरीब सिंदबाद को खिलाता-पिलाता है और उसकी मदद करता है। यहाँ दोनों कुशाग्र अपने-अपने चरित्रों में वैभव और वंचना के वचनों की अभिव्यक्तियाँ हैं। यहाँ धन के साथ-साथ मन का वैभव भी उल्लेखनीय पक्ष है। जूनियर कुशाग्र अपने संस्कारों में कहीं अधिक सीनियर दिखाई देता है। जब वह अपने पिता से कहता है, “यदि आप भैया को जेल जाने से बचा लेंगे, तो अपनी ईमानदारी, सच्चाई और साहस दिखाकर यह एक और सिंदबाद बनकर दिखा देंगे।” उपन्यास का यह सबसे मार्मिक व महत्वपूर्ण स्थल सिद्ध होता है। उषा यादव चाहे किसी भी आयु वर्ग के लिये कथा साहित्य रचें, उनकी यह विशिष्टता रही है कि वे अपनी कहानी को इस प्रकार से बुनती हैं कि पाठक अनायास ही उससे बँधा-सा चला जाता है। इस उपन्यास में भी वे अपने इसी लेखकीय कौशल को पुनः सिद्ध कर पाने में पूर्णतया सफल हुई हैं। यह उपन्यास इस आपाधापी के युग में बढ़ते बच्चों को एक प्रेरणा और सीख देता है कि ‘बुरे काम का बुरा नतीजा।’ सत्य, संतोष, सहानुभूति, सजगता, साहचर्य और सांत्वना आज भी सबसे बड़े गुण हैं, ‘एक और सिंदबाद’ इसे प्रमाणित करता है।
समीक्ष्य पुस्तक- एक और सिंदबाद
रचनाकार- उषा यादव
विधा- बाल साहित्य
प्रकाशन- प्रभात प्रकाशन
संस्करण- प्रथम, 2018
पृष्ठ- 184
मूल्य- 350 रुपये
– डाॅ. नितिन सेठी