देशावर
उड़ान
मैं अकेला
ख़ुश था बड़ा, मैं अकेला।
आज़ाद था दिल और
मस्ती भरा था जहाँ।
अचानक आ गए तुम
मेरे नभ की क्षितिज पर!
नज़र मिली, मिल गए दिल।
एक-दूजे का हाथ थाम,
भरी हमने ऊँची उड़ान।
झूम उठा प्रेम का पतंग,
लहराती हवाओं के संग!
पर,
संचार कहाँ था हमारे वश में?
धर्मो की बाड़ों में
फँस गए धागे ऐसे कि
संतुलन खो दिया हमने।
कठिनाईयों की गाँठे पड़ती गई,
सजती गई बंधनों की जंजीरें।
हर धर्म प्रेम सिखाता है,
पढा भी था धर्म ग्रंथो में,
अब समझ में आए
उनके गूढ़ अर्थ!
प्रेम जीता जैसे लक्ष्य भेदा,
ख़ुदको अर्जुन मान लिया!
नव्वे तीर बिन्धेगी छाती,
यह ना क्यों जान लिया?
– अश्विन मॅकवान