मूल्यांकन
उषा यादव के उपन्यास ‘उसके हिस्से की धूप’ में बाल-विमर्श
– डॉ. नितिन सेठी
बचपन अपने आप में एक स्वर्ग है और बच्चे खुद में जीते-जागते फरिश्ते हैं। अपनी मासूमियत, कोमलता, भावुकता और सार्वभौमिक दृष्टिकोण के कारण बचपन अपने आप में किसी वरदान से कम नहीं है। फूलों-सा हँसता-महकता बचपन अपने निष्काम प्रेम और सात्विक समर्पण से मानव सभ्यता के लिए एक आश्वस्ति भी है। ऐसे समर्पित और संवेदनशील बचपन को बचाये रखना, हमारी-आपकी-सबकी नैतिक जिम्मेदारी है।
दुखद है कि उपभोक्तावादी संस्कृति की गर्हित गाँठें, मासूम बचपन की गलबहियों को उलझाने का काम कर रही हैं। जो हाथ बचपन के नाजुक पैकर को संवारने-तराशने का पवित्र काम करते नज़र आने चाहिए, आज वही इसकी जड़ों में तेजाब डालकर इसके आश्रयहीन और अवसादग्रस्त बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे। एक विशालकाय पेड़ भी पर्याप्त धूप-पानी और जीवनदायी खनिजों के अभाव में मृतप्राय-सा हो जाता है, फिर बचपन जैसे उपवन के लिए तो विशिष्ट स्नेह-उर्वरक, प्रेम-जल और अपने हिस्से की धूप अनिवार्य ही हैं। उषा यादव के साहित्य में बाल-विमर्श से संबंधित लेखन भी प्रचुर मात्रा में प्राप्त होता है। बच्चे के बाल जीवन की विभिन्न स्थितियों-परिस्थितियों, विडम्बनाओं और विमर्शों का उषा यादव ने अपनी लेखनी से बहुत गहनता से चित्रण किया है। उषा यादव प्रसिद्ध बाल साहित्यकार भी हैं, जिन्होंने बच्चों के लिए बहुत सुंदर-सुंदर कविताएँ, कहानियाँ और नाटक-एकांकियों का सृजन किया है।प्रौढ़ साहित्य में भी उनके अनेक उपन्यास ऐसे हैं, जिनमें बाल-विमर्श एक मुद्दा बनकर उपस्थित हुआ है। ‘काहे री नलिनी’, ‘स्वांग’, ‘कथांतर’, ‘उसके हिस्से की धूप’ जैसे उपन्यास यूँ तो प्रौढ़ उपन्यास हैं, परंतु मुख्यतया बाल-विमर्श को ही लेकर चले हैं। उषा यादव का उपन्यास ‘उसके हिस्से की धूप’ सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित हुआ है; जिसमें वृंदा (बिंदो) नामक तीन वर्षीय बालिका के जीवन की कहानी बुनी गयी है।लेखिका के शब्दों में, “वृंदा की इस दास्तान के बहाने आज के संकटग्रस्त बचपन की तस्वीर यदि आपके मानस में खिंचती है और आप किसी निराश्रित-शोषित बचपन की मदद के लिए हाथ बढ़ाते हैं, तभी इस उपन्यास के लिखे जाने और पढ़े जाने की सार्थकता है। यदि इस उपन्यास को पढ़कर हमने-आपने एक-एक रोते हुए बच्चे को हँसा दिया, तो सोचिए, कितने बच्चों के चेहरे पर हम मुस्कान लाए हैं। यही सामाजिक सरोकार इस उपन्यास का अभिप्रेत है।”
‘उसके हिस्से की धूप’ स्नेहसिक्त खाद-पानी के अभाव में कुम्हलाते-कुचलते-कुत्सित होते बचपन की त्रासद कथा बनकर सामने आया है। भौगोलीकरण-नगरीकरण ने मानव की अमीर बनने की इच्छा-लालसा इतनी अधिक बढ़ा दी है कि अपनत्व की भावभूमि पर जीवनदायी यज्ञ समिधा प्रज्वलित करने के स्थान पर वह सम्बंधों की चिताएँ जलाकर अधिक प्रसन्न है। उषा यादव इस मार्मिक कथा को तीन साल की नाजुक बच्ची वृंदा की दयनीय स्थिति से आरम्भ करती हैं। गाँव का हैडमास्टर हरीसिंह एक पुत्र की चाह में लगातार सात पुत्रियाँ पैदा करता है। अपनी छठी बेटी वृंदा के जन्म से ही हरीसिंह को उससे घृणा है।यही पारिवारिक कलह की जड़ है। आधा आषाढ़ निकल जाने पर भी अमरपुरा गाँव में बारिश नहीं हुई है।इंद्रदेव को प्रसन्न करने के लिए हरीसिंह अपनी कुटिल योजनाओं से वृंदा को भी ‘तप’ पर बैठने के लिए मजबूर कर देता है। उसका कथन द्रष्टव्य है, “और नहीं तो क्या। हरीसिंह की आवाज में गुमान भर गया था।मामूली लड़की मत समझिए मेरी बिंदो को। गाँव के दुर्गा मंदिर में रोज सुबह अपनी माँ के साथ पूजा करने जाती है।जब तक देवी मैया को जल न चढ़ा दे, मजाल है पानी की एक बूँद तक गले के नीचे उतर जाए। तब तो उसे तप में जरूर बैठाना चाहिए। गाँव के प्रधान राधा माधव गद्गद हो उठे थे।चार नाम तो पहले ही तय हैं, पाँचवा आपकी बिंदो का रहा। इस नन्ही कली की गुहार ही इंद्र भगवान के कानों तक पहुंच जाए तो पूरे गाँव का कल्याण हो जाएगा।” विभिन्न धार्मिक अनुष्ठानों के बीच यह तप भी भगवान इंद्र को प्रसन्न करने की कवायद है। वृंदा और अन्य चार बच्चियों का यह तप सफल हो जाता है।अमरपुरा में अमरों के लोक से अमृत रूपी जल बरसा है। हरीसिंह जितना भाव-विह्वलहै, अमरपुरा के लोग उतने ही श्रद्धावनत और उसकी पत्नी सुनीता देवी स्वरूपा वृंदा के साथ डरी-सहमी-सकुचाई-घबराई सी। तीन साल की बिंदो (वृंदा) जप-तप-साधन से बेगानी अपनी ही छोटी-सी दुनिया में मस्त-व्यस्त है।एक निरीह बच्ची पर धर्म के तथाकथित ठेकेदारों की जान लेवा साधना अंतर्मन को उद्वेलित करती है।
धन लोभ और सम्मान की चाह हरीसिंह को और पागल कर देती है। धीरे-धीरे वह बिंदो को देवी के अवतार के रूप में गाँव भर में प्रचारित करता है।स्वयं तीन साल की वृंदा, उसकी बहनें, उसकी सखियाँ और साथ ही पूरा समाज धीरे-धीरे वृंदा को दैवीय रूप में स्वीकार करते जाते हैं। “वृंदा ने चौंककर सवालिया नजरों से पिता का चेहरा देखा। हरीसिंह ने कोमलता से उसकी पीठ सहलाते हुए कहा- पिछले साल की बात याद कर बेटी, जब पानी न बरसने पर गाँव में पूजा-पाठ हुआ था। तू पहली बार तप पर बैठी और उसी दिन पानी बरस गया। तब सारे गाँव ने यही कहा था न कि तू देवी है।” बिंदो की माँ सुनीता ही अकेले इस अधर्मलीला का विरोध करती है। एक अनपढ़-अकेली और तकी दुहाई आस्था-चमत्कार के नक्कार खाने में तूती बनकर सिमट जाती है।समय के साथ सुनीता एक पुत्र को जन्म देती है। हरीसिंह इसे भी वृंदा मैया का आशीर्वाद बता कर पूरे गाँव में इस बात का प्रचार-प्रसार कर देता है। धर्मभीरु, भोली-भाली जनता के लिए बस इतना ही इशारा काफी है। सच्ची-झूठी कहानियों के माध्यम से वृंदा मैया की महिमा का महल बनाकर हरीसिंह खूब आर्थिक लाभ कमाता है।आज वृंदा मैया को मंदिर में मूर्ति के स्थान पर साक्षात् देवी के रूप में विराजित किया जाता है। हरीसिंह के डराने-धमकाने और यातनाएँ देने पर वृंदा इस काम के लिए भी तैयार हो जाती है। पाँच वर्षीय बच्ची मंदिर में देवी का विग्रह बनकर विराजित है। धर्मभीरु, समाज तो आस्था-श्रद्धा के नाम पर उल्टे पाँव चलने को भी तैयार रहता है। परंतु सच है कि ईश्वरीय विधान में अनावश्यक हस्तक्षेप सभ्यता के अवसान का आरम्भ ही बनकर आता है। घंटों एक ही स्थिति में भूखे-प्यासे बैठे रहने के कारण आज वृंदा अशक्त-असहाय और विकलांग हो चुकी है। शारीरिक पीड़ा से अधिक छोटे बच्चों को मानसिक अवसाद कष्ट देता है।खेलने-खाने-पहनने पर प्रतिबंधों ने उसका बचपन मार दिया है। नब्बे वर्ष की आयु तक के भक्तों को नौ वर्ष की नाजुक बालिका मनचाहे आशीर्वाद प्रदान करती है। वृंदा की बाल सुलभ आदतें जब-तब सामने आ जाती हैं। “बहनों की किताब-कॉपियों पर वह ऐसे दुलार से हाथ फिराती, जितना दुलार उसे कान्हा को छूते हुए भी न उमड़ता था। पड़ोस की सुशीला काकी से उसने दो-चार दफे कहानियाँ सुनी थीँ। राक्षसों और परियों की कहानियाँ। वृंदा सोचती, यदि कभी कोई परी उसे मिल जाए तो वह उससे रंगीन तस्वीरों वाली किताब मांगेगी। अपनी किताब को सबसे छुपाकर रखेगी वह।” हरीसिंह को जब वृंदा की अशक्तता का पता लगता है, उसकी कुटिलता एक बार पुनः रंग दिखाती है। वृंदा की नौ वर्ष की आयु पूर्ण होते ही वह उसे जल समाधि के लिए उकसाता है। ‘जेलसमाधि’ से छूटने के लिए वृंदा ‘जल समाधि’ स्वीकार कर लेती है। “चार साल पहले चैत्र के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को तुम्हें मंदिर में देवी वृंदा का पद मिला था। पूरे चार वर्ष बाद तुम सरोवर में उतरोगी और जल की लहरों पर सवार होकर देवलोक पहुँच जाओगी। पूरा गाँव तुम्हें विदाई देगा। आस-पास के गाँव वाले भी तुम्हें विदाई देंगे। जितने उत्साह और हर्ष से लोगों ने अपनी वृंदा मैया को मंदिर में पहुँचाया था, उससे सौ गुना ज्यादा उत्साह से वे सभी लोग अपनी मैया को देवलोक पहुंचाएंगे।” अमरपुरा में आज वृंदा देवी का मरण दिवस भी एक उत्सव की तरह मनाया जा रहा है। वृंदा के मन के भावों को भी लेखिका ने बड़ी ही मार्मिकता से दर्शाया है- “जो वृंदा माँ के ताबड़तोड़ तमाचे खाकर भी विचलित न हुई थी, उसे पहले माँ के चुंबनों विचलित किया और फिर लटपटी वाणी ने बिल्कुल ही पराभूत कर दिया। माँ की बाहों में बंधी, कलेजे से चिपकी वृंदा भी फफक उठी, “मैं जीना चाहती हूँ माँ, पर यह सब सोचने और चाहने के लिए बहुत देर हो चुकी है। नहीं अभी कोई देर नहीं हुई है। हमारे पास पूरा समय है। सुनीता अधीर होकर बोली।”
अंत में वृंदा की अनपढ़-भोली माँ स्वयं अपने बलबूते पर आधी रात में जाकर पुलिस को सूचना देती है और हरी सिंह व उसके सहायकों को पकड़वाती है।बिंदो को आज दुबारा ‘उसके हिस्से की धूप’ मिलती है। उषा यादव की बाल मनोविज्ञान पर गहरी पकड़ है। बच्चों के लिये उन्होंने खूब लिखा है।बाल मनोविज्ञान की गहन जानकार होने के कारण प्रस्तुत उपन्यास में उन्होंने वृंदा और उसके साथ के बच्चों के क्रिया-कलापों को बड़ी ही बारीकी से दर्शाया है। सामाजिक-सांस्कृतिक विषयों पर लेखिका निरंतर लिखती रही है। यही कारण है कि धर्म की, आस्था की और समाज की रूढ़ियों को उन्होंने प्रस्तुत उपन्यास में दिखाया है और कथानक के विकास के साथ उसे कमजोर पड़ता भी दिखाया है। अनेक स्थानों पर बाल-विमर्श दर्शाते कथन-उपकथन उपन्यास में आए हैं।उषा यादव ने उपन्यास की भूमिका में भी बाल-विमर्श को ही केंद्र में रखा है। ‘यह जो बचपन है’ शीर्षक से उपन्यास की तीस पृष्ठीय विस्तृत भूमिका पढ़ना महत्वपूर्ण है।अनेक उदाहरणों-कविताओं के माध्यम से लेखिका ने अपनी बात रखी है। उषा यादव लिखती हैं, “भूमंडलीकरण के वर्तमान दौर में बाजारवाद के बढ़ते वर्चस्व ने बच्चे को बचपन की खुशगवार वादियों से बहुत दूर पहुँचा दिया है। संयुक्त परिवार पहले ही खत्म हो चुके हैं। ऐसे में बच्चा सिर्फ स्वार्थपरता ही तो सीखेगा।इसलिए वह सम्बंधों की ऊष्मा से अपरिचित है। मानवीय संवेदना से वह बहुत दूर चला गया है। अब प्रतिस्पर्धा बढ़ी है, संवादहीनता बढ़ी है और एक बच्चे की नाजुक जान के साथ न जाने कितने बवाल लग गये हैं।”
उपन्यास के मुख्य पात्रों में हरीसिंह और उसका परिवार ही है। पति-पत्नी की स्वाभाविक नोक-झोंक और अपने-अपने मंतव्यों को देखना-समझना यहाँ महत्वपूर्ण है। ग्राम प्रधान राधा माधव भी धर्मांधता के अगुवा हैं। अपने स्वार्थों की रोटियाँ सेंकता उपन्यास का प्रत्येक पात्र अपनी-अपनी जगह सही नज़र आता है। चारों पुरुषार्थों को घर बैठे ही प्राप्त कर लेने का मोह भोले-भाले ग्रामवासियों को मजबूर किये हुए है। हरीसिंह को अपनी पत्नी-बच्चों से कोई मोह नहीं। लेखिका ने उसके परिवार के चित्रण के बहाने ग्रामीण जीवन की कड़वी सच्चाई दर्शायी है। समाज में अन्तर्सम्बंध एक-दूसरे की आवश्यकताओं की नींव पर टिके होते हैं। यहाँ पिता की, बच्चों की, पत्नी की, अन्य गाँववासियों की; सबकी अपनी अलग-अलग समस्याएँ हैं। अभावों की पूर्ति के आगे किसी नन्हीं जान की कोई कीमत नहीं रह जाती। पात्रों के मनोविज्ञान को सामने लाने में उषा यादव को महारत हासिल है।छोटे बच्चों से लेकर प्रौढ़ व्यक्तियों तक के चित्रण में उनकी मनःस्थितियों को सामने रखा गया है। अशिक्षा, गरीबी, बे-मेलविवाह, नारी- समस्याएँ, भ्रष्टाचार, स्वार्थ जैसे तत्व इन्हीं पात्रों के परिप्रेक्ष्य में दिखाई देते हैं। संकटग्रस्त बचपन को बचाये रखने वाली अकेली पात्र सुनीता, अनपढ़ और अशिक्षित है।सुनीता की दूरदर्शिता और बुद्धिमानी के सामने हरी सिंह भी कई जगह फीका पड़ गया दिखता है। पात्रों का सफल संयोजन कथा सूत्र को बाँधे रखता है। उषा यादव का मत है, “बाल अधिकारों को लेकर व्यापक जन चेतना जगाना जरूरी है। आम लोगों को भी पता होना चाहिए कि अबोध बचपन के साथ और ज्यादा गैर जिम्मेदाराना रवैया उचित नहीं।सबसे पहले अस्तित्व के अधिकार की बात करें। यह अधिकार तब और ज्यादा प्रासंगिक हो जाता है जब लिंग जाँच के बाद माँ के गर्भ में ही माता भ्रूण को नष्ट कर देने की साजिशें रची जाती हैं।”
‘उसके हिस्से की धूप’ की कहानी ग्रामीण परिवेश की है, अत: उसी परिवेश का चित्रण स्वाभाविक भी है। लोक में प्रचलित पर्वों-त्योहारों, उनके मनाये जाने की रीतियों, मान्यताओं-मन्नतों-मनुहारों का विराट वर्णन यहाँ द्रष्टव्य है। ग्रामीण चेतना और चिंतन पद्धति, स्वकेंद्रित समाज और तथाकथित धार्मिकता के तत्वों का सबल संयोजन यहाँ देश-काल-वातावरण की सार्थकता सिद्ध कर देता है। मानव की उत्सवप्रियता चाहे किसी के जीवन का अंत ही क्यों न कर दे, रहेगी वह लोकरंजन और दुखभंजन का साधन ही। मासूम वृंदा के प्रति सबकी अपनी-अपनी भावनाएँ हैं। सामाजिक-आर्थिक- धार्मिक जीवन का विशद् और व्यापक चित्रण प्रस्तुत उपन्यास को आँचलिकता की शैली में रगा-पगा बनाता है।
ग्रामीण जीवन में भाषा का व्यवहार थोड़ा अटपटा-सा होता है। एक-दूसरे को ताना देने और बात-बात पर खिसियाहट का भाव हरी सिंह के कथनों में अनुभव किया जा सकता है। ग्रामीण बोली के अनेक शब्दों का सटीक प्रयोग कथा की प्रामाणिकता और प्रवाहमयता को बढ़ाता है। अनेक स्थानों पर लेखिका ने क्षेत्र विशेष से सम्बंधित संदर्भों का प्रयोग किया है, जिससे रोचकता आ गई है। भाषा शैली की यथार्थवादी प्रवृत्ति पाठक को भी उपन्यास से जोड़े रखती है। विवरणात्मक शैली न तो दुरूह होने पाई है और न ही बोझिल।पिता की कुटिल चालों और माँ की स्वाभाविक चिंताओं के बीच नन्ही वृंदा का बाल सुलभ मन अपनी बचपनी प्रवृत्तियों और अठखेलियों से सब का मन मोहता है।बाल मनोविज्ञान की कुशल चितेरी उषा यादव इस सामाजिक बाल उपन्यास में विंदों के पात्र के माध्यम से, बाल संसार और प्रौढ़ संसार का सार्थक अन्तर्द्वन्द्व प्रस्तुत करती है। यह अन्तर्द्वन्द्व है जीवन को अपने-अपने ढंग से जी पाने का, मानवीयता और मन भर धन कमाये जाने का, कली को कुचलने से लेकर महकते-खिलने देने का। इस अन्तर्द्वन्द्व के चित्रण में लेखिका को पूर्ण सफलता मिली है।प्रस्तुत उपन्यास को न केवल सामाजिक उपन्यास कहा जाना चाहिए अपितु बाल समस्याओं को सामाजिक समस्याओं के नजरिये से देखा जाना एक विरल प्रयोग ही है। उषा यादव पहले भी ऐसे विषयों पर अपनी सजग कलम चलाती रही हैं।एक सत्य घटना की पृष्ठभूमि पर रचा गया प्रस्तुत उपन्यास अपनी छत्तीस पृष्ठीय भूमिका ‘यह जो बचपन है’ को लेकर भी विशिष्ट चर्चा में है। बचपन के बचपन ‘होने’ और ‘न होने’ के अनेक मार्मिक कारणों और इनके निदानों की ओर लेखिका ने पाठकों का ध्यान आकर्षित किया है। “पढ़ी-लिखी लड़की रोशनी घर की जैसे नारे आज भले ही चर्चा में हों,
पर भारतीय जन-जीवन में पुत्र जन्म को हमेशा कन्या जन्म से ज्यादा महत्व मिला है।घर में बेटे का जन्म यदि उल्लास की घटना माना गया तो बेटी के जन्म पर परिवारी जनों के चेहरे बुझ गये। लड़कियों के गुणों की चमक ने कभी किसी को विमुग्ध नहीं किया। लोरियों में भी प्रायः पुत्र को ही संकेतित किया गया। आमजन के मन की यह सोच हिंदी बाल कविता में बालिका परक उपेक्षा के रूप में प्रायः प्रकट है।”
उषा यादव का उपन्यास ‘उसके हिस्से की धूप’ अपने गम्भीर चिंतन, अपनी वैचारिकता और मार्मिक विषय को लेकर सदैव पठनीय है। इसमें बाल अधिकारों का सम्यक निरूपण होने के साथ-साथ बाल-जीवन की जो मनोरम झाँकी है, वह इसे बाल-विमर्श की दृष्टि से अनुपमेय बना देती है। ‘उसके हिस्से की धूप’ के सृजन का कारण दर्शाते हुए उषा यादव लिखती हैं, “कुछ वर्ष पूर्व हमारे प्रदेश में ही एक जीती-जागती बच्ची को जल समाधि देने की कोशिश हुई थी। पहले उसे कई वर्षों तक गाँव के मंदिर में देवी का नाम देकर बंदिनी जैसी अवस्था में रखा गया और फिर कुपोषण के चलते जब वह चलने-फिरने से लाचार होकर मरणासन्न स्थिति को प्राप्त हो गई तो उसकी जान लेने का षड्यंत्र रचा गया। संकटग्रस्त बचपन की यह दास्तान अखबारों के माध्यम से लोगों के सामने आई थी, पर आजकल आदमी इतना संवेदनशून्य हो चुका है कि उसके लिए हर अखबारी खबर जल्द ही विस्मृति के गर्त में समा जाती है। आम पाठक ने यह भुला दी होगी किंतु मुझे जब-तब कुरेदती रही और अंतत: मेरी कलम की नोक पर आकर उसने मुझसे ‘उसके हिस्से की धूप’ लिखवा ही लिया।” उपन्यास ‘राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, भारत सरकार’ द्वारा सम्मानित भी है। यह सम्मान इस बात की सफल आश्वस्ति भी है कि बच्चे की ‘उसके हिस्से की धूप’ को हरी सिंह जैसा पिता कभी नहीं छीन सकता। ‘उसके हिस्से की धूप’ सारे छद्मावरणों को तोड़कर अपनी पावन स्पर्श- रश्मियों से बाल समाज को सदैव ऊष्मित करने का भी एक सफलतम प्रयास है। ‘उसके हिस्से की धूप’ उपन्यास बाल विमर्श को व्यापक गति देता है और ऐसा समसामयिक और ज्वलंत मुद्दा उठाता है, जिस पर आज उचित ध्यान दिये जाने की आवश्यकता है। देश और समाज के उज्ज्वल भविष्य के लिए आवश्यक है कि प्रत्येक बच्चे को उसके हिस्से की धूप, पानी, हवा, आकाश और शिक्षा मिले।
समीक्ष्य पुस्तक- उसके हिस्से की धूप
लेखिका- उषा यादव
प्रकाशन- सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली
मूल्य- ₹500
पृष्ठ- 240
– डाॅ. नितिन सेठी