आलेख
‘उद्धव शतक’ में नारी मन के विविध रूप: डाॅ. गीता कपिल
जगन्नाथदास रत्नाकर आधुनिक युग के उन रचनाकारों में विशिष्ट स्थान के अधिकारी हैं, जिन्होंने शिथिल होती ब्रज भाषा की काव्यधारा को नूतन जीवन प्रदान किया। ब्रज भाषा के प्रति उनके मोह को डाॅ. जगदीश गुप्त ने इन शब्दों में अभिव्यक्ति दी है, ‘‘आज हिन्दी संसार का कोई भी व्यक्ति नहीं है, जिसे यह न ज्ञात हो कि महाकवि रत्नाकर ब्रज भाषा में ही रचना की है। ब्रज भाषा के लिए वे बहुत समय तक ब्रज में रहे और ब्रज भाषा साहित्य का आद्योपान्त अध्ययन भी किया। आज ब्रज भाषा और उसके साहित्य में यदि पूर्ण पटुता किसी को प्राप्त है तो वह रत्नाकर जी को ही कही जा सकती है।’’ आधुनिक खड़ी बोली के युग में ब्रज भाषा में काव्य रचना करना रत्नाकर जी के लिए एक चुनौतीपूर्ण कार्य था, परन्तु उनकी रचनाएँ ’उद्धव शतक’, ‘गंगावतरण’, ‘हिण्डोला’ व ‘बिहारी रत्नाकर’ (सम्पादित) से यह सिद्ध होता है कि वे इस चुनौती में खरे उतरे हैं।
‘उद्धव शतक’ भ्रमरगीत परम्परा में अन्यतम स्थान रखता है। यद्यपि इसका वण्र्य विषय परम्परागत ही है, जिसे भक्तिकाल में सूरदास व नन्ददास, रीतिकाल में देव व मतिराम तथा आधुनिक काल में सत्यनारायण कविरत्न व हरिऔध ने युगानुरुप परिवर्तनों के साथ प्रस्तुत किया। ‘‘शताब्दियों से प्रचलित इस प्रसंग में कुछ नवीनता उत्पन्न करना विशेष चातुर्य एवं कला कौशल की अपेक्षा रखता है – उद्धव शतक में रत्नाकर जी आधुनिकता की अपेक्षा प्राचीनता की ओर झुके हैं।’’ सगुण भक्ति की स्थापना भ्रमरगीत का प्रमुख पक्ष है परन्तु रत्नाकर ने ज्ञान और भक्ति के इसी विवाद को बड़ी कुशलता से उठाया है। उन्होंने ‘‘जिस ढंग से प्रसंग को सँवारा है उससे उद्धव के ज्ञान गर्व की अपेक्षा कृष्ण के भावुक हृदय की महत्ता सिद्ध होती है।’’ कृष्ण ब्रज से मथुरा आकर यहाँ की राजनीति में इस प्रकार व्यस्त हो जाते हैं कि ब्रज को ही भूल जाते हैं। रत्नाकर ने ब्रज की स्मृति को जागृत करने हेतु कालिन्दी स्नान की मौलिक घटना प्रस्तुत की है। यमुना में स्नान करते समय मुरझाए कमल से कृष्ण को राधा व उस ब्रज भूमि का स्मरण हो आता है जहाँ उन्होंने गोपियों के सान्निध्य में अनेकानेक लीलाएँ की। इससे वे अत्यन्त व्याकुल हो जाते हैं। उनकी वाणी भी इस व्याकुलता को व्यक्त करने में समर्थ नहीं है। उद्धव के समक्ष वे ब्रज के प्रति अपने प्रेम को इस प्रकार व्यक्त करते हैं:-
नैकुँ कही बैननि, अनेक कही नैननि सौं
रही-सही सोऊ कहि दीनी हिचकीनि सौं।
उनके ज्ञानी मित्र उद्धव गोपियों के प्रति उनकी इस घनिष्ठता से अपरिचित हैं। इसीलिए व्याकुल कृष्ण के सम्मुख अपने ज्ञान का पिटारा खोल देते हैं। तब कृष्ण उद्धव को यह कहकर ब्रज भेजते हैं कि
आवो एक बार धारि गोकुल-गली की धूरि
तब इहिँ नीति को प्रतीति धरि लैहैं हम।
उद्धव के ब्रज प्रस्थान के समय स्वयं कृष्ण के हृदय में भावों का आलोड़न-विलोड़न होने लगता है। लाखों-लाख अभिलाषाएँ उनके हृदय को आन्दोलित करने लगती हैं, परन्तु कृष्ण की इस भावुकता के बाद भी इसके केन्द्र में गोपियाँ ही हैं। श्रीकृष्ण के विरह में सन्तप्त गोपियों के हृदय के विविध रूपों की सुन्दर अभिव्यक्ति इसमें हुई है। गोपियाँ कभी प्रिय के संदेश सुनने के लिए व्याकुल दिखाई देती हैं, कभी संदेश की विचित्रता से स्तब्ध, कभी प्रिय के प्रति अपनी अनन्यता व्यक्त करते हुए ऊधौ को फटकारती हैं और कभी अपने मन की दीनता व्यक्त करती हैं। गोपियों द्वारा व्यक्त ये भाव प्रिय-वियुक्त नारी मन के शाश्वत रूपों की अभिव्यक्ति हैं।
उद्धव के ब्रजागमन पर प्रत्येक गोपी अपने प्रिय के सन्देश सुनने को व्याकुल है और ‘‘हमकौ लिख्यौ है कहा’’ कहकर वे ऊधौ को घेर लेती हैं। प्रिय का विचित्र सन्देश उनकी आशाओं पर तुषारापात कर देता है। प्रिय-प्रतीक्षातुर नारी मन की मार्मिक अभिव्यक्ति गोपियों द्वारा हुई है, किन्तु प्रिय का विषम सन्देश गोपियों की व्याकुलता को और बड़ा देता है। इसलिए
सुनि सुनि उद्धव की अकह कहानी कान
कोऊ थहरानी, कोऊ थानहिँ थिरानी हैं।।
कहै रतनाकर रिसानी, बररानी कोऊ
कोऊ बिलखानी, बिकलानी बिथकानी है।
कोऊ सेद-सानी, कोऊ भरि दृग-पानी रहीं
कोऊ घूमि-घूमि परीं भूमि मुरझानी है।
कोऊ स्याम-स्याम कै बहकि बिललानी कोऊ
कोमल करेजौ थामि सहमि सुखानी है।
स्वाभाविक भी है जब प्रिय स्वयं दूर हो और वहाँ से अपनी प्रिया को किसी दूसरे को अपनाने का सन्देश भेजे तो नारी मन इसी प्रकार स्तब्ध, व्याकुल, क्रोधित, दीन-हीन और भग्न होगा। गोपियाँ ये मानने के लिए तैयार नहीं हैं कि उनके प्रिय ने यह संदेश भेजा है। उन्हें तो संदेशवाहक उद्धव अत्यन्त अन्यायी प्रतीत होते हैं, जो ऐसा विषम संदेश उन्हें सुना रहे हैं। दूसरा गोपियों को यह भी भय है कि उद्धव के ब्रह्म की अराधिका बनने पर उनका स्वतन्त्र अस्तित्व ही नष्ट हो जायेगा। अल्पज्ञानी होने पर ही गोपियाँ ऐसा नहीं चाहती हैं। वे उद्धव के समक्ष अपनी असमर्थता जताते हुए कहती हैं-
जैहै बनि बिगरि ना बारिधिता बारिधि की
बूँदता बिलैहै बूंद बिबस बिचारी की।
गोपियों का अपने प्रिय के प्रति एकनिष्ठा व अनन्यता का भाव है। उनके प्रिय का भी उनके हृदय पर एकाधिकार है, वे प्रत्यक्षतः उससे रूठ सकती हैं, उसे मना सकती हैं, स्पर्श कर नेत्रों से उसकी रूप माधुरी का पान कर सकती हैं, जबकि उद्धव का ब्रह्म विश्वव्यापी है, निर्गुण है, जिसे त्राटक साधना व आन्तरिक नेत्रों से प्राप्त किया जा सकता है। हृदय व स्वभाव की सरल गोपियाँ इसे असम्भव व संदिग्ध मानती हैं-
एतै बड़े बिस्व माहि हेरैं हूँ न पैये जाहि,
ताहि त्रिकुटी मैं नैन मूँदि लखिबौ कहौ।
उन्हें उद्धव अत्यन्त कपटी और कुटिल दिखाई देते हैं। इसीलिए वे उन्हें फटकारते हुए कहती हैं-
चुप रहौ ऊधौ सूधौ पथ मथुरा कौ गहौ
कहौ न कहानी जो बिबिध कहि आए हौ।
ग् ग् ग् ग् ग्
रावरी सुधाई मैं भरी है कुटिलाई कूटि
बात की मिठाई मैं लुनाई लाई ल्याए हौ।
गोपियाँ वे अनन्य प्रेमिकाएँ हैं, जिन्होंने अपने प्रेम हेतु अपने कुल की मर्यादा, लज्जा व सामाजिक प्रतिबन्धों के विरुद्ध विद्रोह किया है। उद्धव उन्हें मोक्ष व मुक्ति का लालच देना चाहते हैं, परन्तु इन विद्रोहिणी प्रेमिकाओं के लिए वह मुक्ति भी कोई मूल्य नहीं रखती, जिसकी प्राप्ति हेतु ऋषि-मुनि हजारों-हजारों वर्ष तप-साधना करते हैं, वस्तुतः जो मोहन लला पर मन, माणिक्य को न्यौछावर कर चुकी वे गोपियाँ साधारण मोती के लिए इतना श्रम क्यों करें’ –
मुक्ति-मुकता कौ मोल माल ही कहा है जब
मोहन लला पै मन-मानिक ही वारि चुकीं।
नारी के लिए प्रिय सान्निध्य के समक्ष स्वर्ग के सुख भी महत्त्व नहीं रखते। सरल हृदय गोपियों को भी स्वर्ग की कामना नहीं है एक सच्चे भक्त की भाँति गोपियाँ स्वर्ग, मोक्ष आदि सभी की उपेक्षा करती हैं। वे तो बस अपने प्रिय से संयोग की कामना करती हैं –
सरग न चाहैं अपबरग न चाहैं सुनौ
भुक्ति-मुक्ति दोऊ सौं बिरक्ति उर आनैं हम।
वे उद्धव की मुक्ति का उपहास करती हैं कि यह वह इतनी अमूल्य होती तो ब्रज तक पहुँचती ही नहीं उससे पूर्व ही रास्ते में लूट ली जाती। वे बड़ी दृढ़ता से उद्धव के समक्ष अपने प्रेम का पक्ष रखती हैं। उन्हें अपने पर ही नहीं अपने प्रिय पर भी पूर्ण विश्वास है कि प्रिय के प्रति उनका प्रेम अनन्य है, अत्यन्त गहरा है। उनके प्रिय एकमात्र उन्हीं के हैं और वे केवल कृष्ण की हैं-
, वै तौ हैं हमारे ही हमारे ही हमारे ही औ
हम उनही की उनही की उनही की हैं।
गोपियों के इन शब्दों में नारी हृदय की एकनिष्ठा व प्रिय के प्रतिपूर्ण व दृढ़ विश्वास का भाव है। वह निर्गुण ब्रह्म कितना ही महान व विश्वव्यापी क्यों न हो। गोपियाँ तो बस अपने प्रिय की दासी हैं। वे ऊधौ को दो-टूक शब्दों में स्पष्ट कर देती हैं-
चेरी हैं न ऊधौ! काहू ब्रह्म के बबा की हम
सूधै कहे देति एक कान्ह की कमेरी हैं।
ऊधौ को व्यर्थ की बातें गोपियाँ नहीं सुनना चाहती। उन्हें ऊधौ कपटी व कुटिल जान पड़ते हैं! जो उनके हृदय में घाव करके उस पर नमक डाल रहे हैं। फलस्वरूप वे ऊधौ को फटकारती हुई अपनी खीझ इन शब्दों में व्यक्त करती हैं-
‘‘चुप रहौ ऊधौ सूधौ पथ मथुरा कौ गहौ।’’
प्रत्येक नारी की कामना होती है कि प्रिय एकमात्र उन्हीं का होकर रहे। यदि वह परनारी के प्रति प्रिय का तनिक भी आकर्षण देखती है तो वह नारी उनकी ईष्र्या का केन्द्र बन जाती है। गोपियाँ भी कुब्जा से सौतिया डाह रखती हैं क्योंकि वे मानती हैं कि उसी के कारण उनके प्रिय को मथुरा प्रिय है और उनका विरह कुब्जा की देन हैं वे ऊधौ से पूछती हैं कि कहीं ऐसा तो नहीं कि उस क्रूर कूबरी ने ही तुम्हें सिखा-पढ़ा कर भेज दिया हों-
रसिक-सिरौमनि कौ नाम बदनाम करौ
मेरी जान ऊधौ कूर-कूबरी-पटाए हौ।’’
रत्नाकर की गोपियों के हृदय में आत्मसमर्पण, दीनता, अनन्यता व एकनिष्ठा सभी कुछ है। वे कहीं भी अपने इन भावों को छिपाने का प्रयास नहीं करती। अगस्त्य ऋषि ने तो सागर को सोख लिया, किन्तु गोपियों के प्रेम के समुद्र के प्रवाह को रोकना उद्धव के वश की बात नहीं है-
यह वह सिंधु नाहिं सोखि जो अगस्त लियौ
ऊधौ यह गोपिन के प्रेम कौ प्रवाह है।।
पर्वों व तीज-त्यौहारों के क्षण हमारे जीवन के आवश्यक व प्रसन्नतादायक क्षण हैं, किन्तु प्रिय के अभाव में यही क्षण कष्टदायी हो जाते हैं। रत्नाकर की गोपियों को दीवाली आगमन पर यह चिन्ता है –
आवत दिवारी बिलखाइ ब्रज-वारी कहैं
अबकै हमारैं गाँव गोधन पुजैहैं कौ।
यह सब होने पर भी रत्नाकर की गोपियाँ बड़ी स्वाभिमानी भी हैं। कृष्ण उनके जीवनाधार हैं, जिनके विरह ने उनके जीवन को दुश्वार बना रखा है, किन्तु वे अपनी व्यथा व पीड़ा का परिचय अपने प्रिय को तब तक नहीं देना चाहती जब तक कि यह ज्ञात न हो कि प्रिय का प्रेम पूर्ववत् है। इसीलिए वे ब्रज प्रस्थान करते समय ऊधौ से कहती हैं-
‘‘औसर मिलै और सर-ताज कछु पूछहिं तौ
कहियौ कछु न दसा देखी सो दिखाइयौ।’’
इतना ही नहीं गोपियाँ इस बात से भी चिन्तित हैं कि कहीं उनकी पीड़ा का समाचार सुन उनके प्रिय को कष्ट न हो। इसीलिए प्रिय को बुलाने की एक मात्र युक्ति अर्थात् अपनी विरह व्यथा का समाचार प्रिय के पास भेजने का विचार भी गोपियाँ छोड़ देती हैं, क्योंकि इससे प्रिय के दुःखी होने की आशंका है-
‘‘कहै रतनाकर कहति सब हा हा खाइ
ह्यां के परपंचनि सौ रंच न पसीजियौ।’’
गोपियों की इस व्याकुलता व प्रेम की अनन्यता को देखकर उद्धव स्वयं व्याकुल हो जाते हैं और उनके ज्ञान की गठरी प्रेम से परिपूर्ण हो जाती है। वे ज्ञानी उद्धव के रूप में आये थे और प्रेमी उद्धव के रूप में लौटते हैं। इस प्रकार इस चिर-परिचित प्रसंग को रत्नाकर ने मौलिकता व नवीनता प्रदान की है। इसकी विरहिणी गोपियाँ भी सामान्य नारी हृदय की व्याकुल पुकार बन जाती हैं और उद्धव से वार्तालाप के समय अपने मन की पीड़ा, व्याकुलता, अनन्यता, एकनिष्ठा, दीनता, समर्पण, प्रतीक्षा, ईष्र्या व चिन्ता न जाने कितने भावों के माध्यम से पुरुष के प्रति नारी के प्रेमपरक दृष्टिकोण का परिचय देती हंै तथा अपनी वाक् पटुता से वे न केवल योग साधना को अपने लिए असम्भाव्य बना देती हंै वरन् ज्ञानी उद्धव को ही अपने रंग में रंग लेती हैं। इस प्रकार सम्पूर्ण ‘उद्धव शतक’ में गोपियाँ ही केन्द्र में रही हैं, उद्धव चाहे ‘‘ब्रज की ओर जा रहे हैं या ब्रज पहुँच चुके हैं उन पर गोपियों की भक्ति का सरस-प्रवाह बहता ही है। गोपियों से वार्तालाप करते समय, कृष्ण का सन्देश देते समय, ब्रज से विदा लेते समय, मथुरा लौटते समय के कवित्तों में गोपियाँ ही उद्धव के मन में बसी रहती हैं। सच तो यह है कि गोपियाँ नारी मन के विविध रूपों को प्रस्तुत करती हैं।’’
सन्दर्भ सूची-
उद्धव शतक – सं. डाॅ. जगदीश गुप्त, पृ. 29-30, सुमित्र प्रकाशन, इलाहाबाद, सं. 2001
हिन्दी में भ्रमरगीत काव्य और उसकी परम्परा – डाॅ. स्नेहलता श्रीवास्तव, पृ. 474, भारत प्रकाशन मंदिर, अलीगढ़, 1958
वही, पृ. 477
उद्धव शतक – सं. डाॅ. जगदीश गुप्त, छन्द सं. 4
उद्धव शतक – सं. डाॅ. जगदीश गुप्त, छन्द सं. 18
वही, छन्द सं. 33
वही, छन्द सं. 37
उद्धव शतक – सं. डाॅ. जगदीश गुप्त, छन्द सं. 39
वही, छन्द सं. 41
वही छन्द सं. 42
वही, छन्द सं. 49
उद्धव शतक – सं. डाॅ. जगदीश गुप्त, छन्द सं. 60
वही, छन्द सं. 41
वही, छन्द सं. 48
वही, छन्द सं. 74
वही, छन्द सं. 66
उद्धव शतक – सं. डाॅ. जगदीश गुप्त, छन्द सं. 86
वही, छन्द सं. 94
वही, छन्द सं. 95
उद्धव शतक: पुनर्मूल्यांकन – फ्लैप डाॅ. राज बुद्धिराजा, तक्षशिला प्रकाशन, दिल्ली, सं. 2002
– डाॅ. गीता कपिल