मूल्यांकन
उद्दात भावों का अनुपम प्रवाह: डॉ. सीता शर्मा ‘शीताभ’
“ओ प्राची कमज़ोर न पड़ना, संग प्रवाह के आना है,
सारा जग रोशन करने को, नया सवेरा लाना है!”
अंतर्वस्तु के आधार पर काव्यशास्त्रियों ने काव्य के दो प्रकार बताये हैं– एक, जिसमें कवि अपने भाव व विचारों का निरूपण करता है। ऐसे काव्य को स्वानुभूति निरूपक काव्य कहा जाता है तथा दूसरे में रचनाकार अपने व्यक्तित्व को गौण रखते हुए जगत, प्राणियों अथवा मानव के विचारों व भावों को व्यक्त करता है। ऐसे काव्य को विषय प्रधान कहा जाता है। इस दृष्टि से कवि विनय कुमार शर्मा कृत ‘प्राची प्रवाह’ काव्य-संग्रह विषय प्रधान काव्य की श्रेणी में आता है।
कवि ने अपनी अनुभूति को कुल 72 शीर्षकों में निबद्ध किया है, जिनमें कुछ कविताएँ, कुछ ग़ज़लें व अधिकांश गीत हैं। इनमें से लगभग एक चौथाई व्यैक्तिक अनुभूतिपरक रचनाएँ हैं। शेष काव्य में रचनाकार का कवि-बोध, युग-बोध में इस प्रकार एकाकार हुआ है कि यह विभिन्न विषयों की सार्थक अभिव्यक्ति बन गया है। मैं, मेरा, मेरे लिए, मुझे, मुझमें इत्यादि शब्द मनुष्यता को संकुचित करते हैं तथा साहित्य की मूल सम्वेदना ‘परार्थ हित’ से साहित्यकार को कहीं दूर ले जाते हैं, किन्तु यहाँ जो गीत कवि के प्रेमपूरित हृदय के दान को केन्द्रित कर लिखे हैं, वे बड़े ही मार्मिक बन पड़े हैं। इनकी विशिष्टता यह है कि इनकी स्वानुभूति भी सर्वसाधारण की अनुभूति प्रतीत होने लगती है। इनमें निहित भाव की डूब और कवि मन की सुचिता पाठक मन में उतरने लगती है। एक गीत देखिए-
मेरे जब से आप हो गये,
दूर सभी संताप हो गये।
अधरों के स्पंदन बिन ही,
शुरू वार्तालाप हो गये।। (पृष्ठ 79)
इसके अतिरिक्त ‘प्रिय तुम्हारा रूप मनोहर’ / ‘जब-जब हमने नाव उतारी’ / ‘आपके आने से पहले’ / ‘साजन आने वाला है’ / ‘कभी प्यार तुमने’ / ‘प्रीत हमारी’ इत्यादि श्रृंगार गीतों में पाठक मन प्रेम में पर्याप्त गोते लगा सकेगा। शेष रचनाएँ रचनाकार के समसामयिक युग-बोध के भार से इस प्रकार दबी हैं कि स्व के लिए अवकाश कम मिला है। इन गीतों की एक अहम् विशेषता यह भी है कि कवि ने अपने भावों के साथ प्रकृति को एहि भांति आत्मसात किया हुआ है कि अधिकांश रचनाओं में प्रकृति उपमान मानो कतार में खड़े बाट जोहते से प्रतीत होते हैं। उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा अपने पूरे सौष्ठव के साथ प्रयोगित हैं। यहाँ प्रकृति अपने उद्दीपन रूप में बिखरी हुई है। वह सर्जक की भावाभिव्यक्ति और भाव वृद्धि हेतु प्रत्येक शब्द पर माध्यम बनी उसके साथ खड़ी है, जो कि पाठक को सहज ही आकृष्ट करने में समर्थ है। एक समय छायावाद के सुकुमार को बाल जाल में उलझने का अवकाश नहीं था-
छोड़ द्रुमों की मृदु छाया
तोड़ प्रकृति से भी माया
बाले तेरे बाल जाल में
कैसे उलझा दूँ लोचन (सुमित्रा नंदन पन्त)
और यहाँ कवि अपने युग संदर्भो में इतना उलझा है कि प्रकृति सुकुमारी पर रीझने को आवकाश ही नहीं, तो प्रकृति का आलम्बन रूप मात्र दो गीतों में चित्रित हो सका है। एक- ‘इतना क्यों शरमाया चाँद’ तथा ‘क्या होती बरसात झमाझम’ में।
संग्रह के गीतों में भाव की गहराई है, उथलापन नहीं। यहाँ क्षणिकता का नहीं, चिरता का स्थान है। चिर स्पंदन है। यहाँ एक ओर रूपक और उत्प्रेक्षाओं की सुन्दर श्रृंखलाएँ हैं तो उतना ही सामाजिक विसंगतियों की व्यथा को तीव्र प्रहारों से उभारा है। कहीं कोई लाग-लपेट नहीं है, जो यथार्थ है वह सीधा पाठक तक पहुँचने को तत्पर है। रचनाकार का तेवर पाठक को झकझोरने की पर्याप्त शक्ति लिये है। बिल्कुल ऐसे–
हम उसे ही कवि कहें, जो आग लिखना जानता हो
काल-सी अपनी अखंडित शक्ति को पहचानता हो (कमलाकर ‘कमल’)
आज के लेखन पर सटीक व्यंग्य पाठक को आल्हादित करने में समर्थ है–
कालिख लेकर घूम रहे हैं, उजले दिखने वाले लोग
दाम हमारा पूछ रहे हैं, पल-पल बिकने वाले लोग
गिने चुने ही बचे हुए हैं, अच्छा लिखने वाले लोग
नकली गहने बेच रहे हैं, रत्न परखने वाले लोग
संग्रह में अनीतियों, अनाचारों, दुर्व्यवहारों को बड़े सलीके से चित्रित किया है। वर्तमान भारतीय समाज की विसंगतियों की मात्र गणना नहीं अपितु तथ्यात्मकता और तार्किकता के साथ सकारात्मक पहलुओं पर भी प्रकाश डाला है।
श्रेष्ठ रचनाकार वही है, जो अपने समष्टि अनुभवों को इस प्रकार व्यक्त करे कि सभी को निजपन प्रतीति हो और निजपन में समष्टि की स्पष्ट झलक प्रत्यक्ष करा दे। कवि की दृष्टि ने मानव जीवन के विविध प्रसंगों, सुख-दुःख की अनुभूतियों और समाज व राजनीति की विसंगतियों को पूरे तेवर के साथ उकेरा है। कवि का परिवेशीय, सांस्कृतिक व प्रकृति ज्ञान श्लाघनीय है। राजनेता, अभिनेता-अभिनेत्री, आला अधिकारी, क्रिकेट केप्टन सभी की पोल खोली है।
नारी चेतना की लगभग तीन रचनाओं से ही स्त्री पाठकों को संतोष करना होगा।
विविध संघर्षों की अभिव्यक्ति में कुछ गीत आशावादिता के स्वर को मुखर करते हैं–
फिर कभी पनपूंगा इतना है यकीं
अब नहीं तड़पूंगा इतना है यकीं
आस में हूँ मैं मगर बोया नहीं हूँ
मरुधरा का बीज हूँ, सोया नहीं हूँ
कवि राष्ट्र की त्रासदी से व्यथित है, इसलिए भारत भू और संस्कृति के मनोहारी रूप का चित्रण उपेक्षित ही रहा है। पाठक को इसका अभाव खलेगा।
संग्रह का शिल्प सुष्ठ है, सुघड़ है। कुछ स्थलों पर बिम्ब व प्रतीक विधान वर्तमान के वरिष्ठ गीतकार बनज कुमार ‘बनज’ की शैली को स्पर्श करता है, जो स्मरणीय है। विनय कु. का गीत देखिये-
तुमने मदिरा का पान किया, मैं सिर्फ़ हलाहल पीता हूँ
तुमने गांधी को भोगा है पर, मैं गांधी को जीता हूँ
बनज कुमार का गीत देखें–
डसने की क्षमता रोज़ाना, विष पीने वाले बढ़ा रहे
जीवन के खातिर बेचारे, सब लोग चढ़ावा चढ़ा रहे
रावण जैसे शैतानों का, जब नामकरण रघुनन्दन हो
उस शहर के सूरज का कैसे, फ़िर गीतों मैं अभिनन्दन हो
संग्रह की भाषा शुद्ध खड़ी बोली हिंदी के साथ उर्दू के शब्दों का पर्याप्त प्रयोग है तो अवसरानुकूल अंग्रेजी के शब्द भी प्रयुक्त हुए हैं। भाषा का संस्कार आपको विरासत में मिला है। यह आज के पाठक के लिए लाभकारी रहेगा। संग्रह में भाषायी प्रयोग, जो मिश्रित रूप लिये है उसे नारायण प्रसाद बेताब के शब्दों में समझा जा सकता है-
ना ठेठ हिन्दी, ना ख़ालिस उर्दू
ज़ुबान गोया मिली-जुली हो
ना अलग हो दूध से मिस्री
डली-डली दूध में घुली हो
विनय जी के गीतों का शिल्प भाव प्रेरित आकार लेता है। कवि किसी साँचे का मुखावलंबी नहीं है। संग्रह के शब्द कब पाठक मन में मधुर गुंजार करते हुए नाद में परिवर्तित होने लगते हैं, इसका भान ही नहीं रहता। अधिकांश रचनाओं में मार्मिकता, अनुभूति की तीव्रता वह भी सामयिक गुणवत्ता के साथ एक उपयोगी संयोग है। इन गीतों मैं भावप्रवणता, रागात्मक अन्विति, आत्मद्रवणता और शैली का प्रवाह अपने उद्दाम पर है। कुछ उदाहरण दृष्टव्य हैं–
पिछली पीढ़ी मात खा गई
आज़ादी को जात खा गई
कर्मकाण्ड की तूती बोली
सास बहु दिन-रात खा गई
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बाईपास हुआ बापू का, चाहे साँस उखड़ती हो
कोई चिंता नहीं गाँव में, माँ भी खाट पकड़ती हो
गर बाई बीमार हो गई, आँख से आँसू निकल आते हैं
नई सदी के बाईपास पर, जीवन मूल्य बदल जाते हैं
व्यवसाय पर्याय है, बेईमानी का और एक सच्चे कवि के लिए दुष्कर कार्य। व्यवसाय और वह भी चीन के छद्म बाज़ारीकरण सरिस; इस पर सटीक व्यंग्य देखिए–
कविता, गीत, शायरी छोड़ो
हम पर भी उपकार करो
फ़कत प्यार से घर नहीं चलता
सजना तुम व्यापार करो
देखो चंट चीन को हमसे
अरबों रुपये खींच रहा है
भारत को बाज़ार बना कर
नकली चीजें बेच रहा है
भोले बनकर माल खपाओ
गुस्से से व्यवहार करो
21 वीं शताब्दी में पर्याप्त साहित्य सृजन हुआ है। किन्तु गद्य–पद्य की विभाजक रेख मानो रही ही नहीं। दिन-प्रतिदिन छपने वाले अधिकांश काव्य संग्रह गद्यात्मक हैं, इनकी नीरसता और उथलेपन ने कविता से पाठक का मोह भंग किया है, जिसके कारण सरस संग्रह भी पाठक की दृष्टि से उपेक्षित हैं। मेरी इस बात की पुष्टि करता वर्तमान के प्रखर समीक्षक श्री सत्यपाल सहगल का यह कथन प्रस्तुत है- “अगर रचनाकार का मक़सद केवल सन्देश या प्रवचन देना है तो फिर निबंध भी एक विधा है। कवि होने का मोह पालना क्या ठीक है? क्या ढेर सारी किताबें छापना जरुरी है? क्या आप कुछ सुन्दर कविताएँ लिखने के बाद आराम नहीं कर सकते? आपकी एक ही कालजयी रचना आपको अमर बना सकती है………… यह समय कठिन इसलिए नहीं है कि कविताओं का अकाल पड़ा है बल्कि इसलिए है कि कविताओं की बाढ़-सी आई हुई है। गुणवत्ता और मौलिकता की बेहद कमी है।” (जनसत्ता, 24 मई 2015, पृष्ठ 6)
इस दृष्टि से हिन्दी साहित्य जगत के पाठकों के लिए निश्चित रूप से हर्ष का विषय है कि प्राची प्रवाह काव्य संग्रह पाठकों को उस भावभूमि पर ला स्थित करेगा, जहाँ वह साधारणीकृत होना चाहता है। द्रवित होना चाहता है। यह संग्रह प्रत्येक वर्ग के पाठक की सामग्री समेटे है।
समीक्ष्य पुस्तक- ‘प्राची प्रवाह’
विधा- काव्य
रचनाकार- विनय कु. शर्मा
– डॉ. शीताभ शर्मा