उभरते स्वर
1.
ईश्वर!
बहुत-सी शिकायतें हैं तुमसे
कौन-कौनसी करूँ
सवाल बहुत-से उठते हैं मन में
क्या-क्या पूछूँ
कैसे पूछूँ
अब तक तुम्हारे अस्तित्व से
परिचित नहीं हूँ मैं
मंदिरों में लोगो को
अक्सर जाते हुए देखती हूँ
एक आस लिए वो तुम्हारे दरवाज़े पर खड़े मिलते हैं
भांति-भांति के लोभ देते हैं तुम्हें
तरह-तरह से आराधना भी करते हैं
क्या तुम भी आ जाते हो लालच में?
या तुम उनकी सुनते हो जो
तुम्हारी आराधना नहीं करते
पत्थरों और मंदिरों में तुम्हे नहीं तलाशते
जो अपने कर्म पे यकीन रख
बस अपना काम करते जाते हैं
और बदले में तुम्हें शुक्रिया बोलते हैं
कि तुमने उन्हें इस काबिल बनाया
कि वो आज कर्म करने में सक्षम हैं
मैं मंदिरो में नहीं जाती
क्योंकि मुझे पता है तुम्हारा अस्तित्व वहाँ नहीं है
फिर मैं क्यों तुमसे सवाल करूँ
इसलिए मैं तुमसे सवाल नहीं करती
ईश्वर! मुझे ऐसा लगता है
तुम मेरे माता-पिता में निवास करते हो
तुमने अपना अस्तित्व उनमें छुपा रखा है
इसलिए मैं हर सवाल का जवाब भी उनसे ही मांगती हूँ
हर दर्द उनसे ही बाँटती हूँ
मेरी हर ख़ुशी पे उनका ही अधिकार है
बस ये जानती हूँ
आज तेरे अस्तित्व को उनके भीतर ही मानती हूँ
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2.
तुम जानते हो
वक़्त की चादर में लिपटा
हमारा प्रेम
परिपक्व हो गया है
न वो बचपना रहा
न वो इंतज़ार
न लैला मजनूँ की तरह
छुप-छुप कर
मिलने की ख्वाहिश रही
न एक-दूसरे की
बाहों में समा कर घूमना
क्योंकि अब हमारा प्रेम
परिपक्व हो गया है
फिर भी
एक चाहत बचाकर रखी है मैंने
तुम्हारे साथ बिताए हर उस पल को
वक़्त की चादर में बाँधकर रख लूँ
जो बस वहीं रुका रहे
जहाँ हमने उसे बाँधा था
कभी न खुलने के लिए
– रश्मि सिंह