इसके सिवा जाना कहाँ
एक समय था जब तमाम समस्याओं के होते हुए भी सबकी अपनी एक ख़ूबसूरत दुनिया थी। वो दुनिया जिसमें असहमत होना, क्रोध को भले ही उपजाता था लेकिन उसे अपराध की श्रेणी में क़तई नहीं रखा जाता था। लेकिन इन दिनों रिश्तों की मृदुलता, स्थिरता और सुन्दरता जैसे चुनाव ने लील ली है। रोज गुट बनते जा रहे हैं। परस्पर नीचा दिखाने का एक भी अवसर कोई चूकना नहीं चाहता!
क्या चुनाव हम सबसे इतना ऊपर हैं कि जिस संस्कृति, धर्मनिरपेक्षता और एकता की हम दुहाई देते हैं, सबसे पहले उसे ही ताक पर रख दिया जाए! ज़रा ठहरकर सोचिये कि किसी का घोर विरोधी या समर्थक बनने की धुन में हमारे बीच कितना कुछ टूट रहा है! नेता किसी के नहीं होते। अरे, ये तो ख़ुद अपने दल के ही नहीं रह पाते। हम इनसे इतनी उम्मीद क्यों पाले हैं? वो भी उस ऐतिहासिक दौर में जब सबकी नीयतों का पर्दाफ़ाश हो चुका है।
मैं ये नहीं कहती कि दुनिया अब पूरी तरह से बदसूरत हो चुकी है। हाँ, लेकिन कहीं-कहीं यह अपना निखार अवश्य ही खोती जा रही है। वो बच्चे जिन्हें कार्टून चैनलों और दिन भर कूदाफाँदी से फ़ुर्सत नहीं मिलती थी, वो बच्चे जिनकी सोच और भाषा निर्मल, निश्छल नदी-सी बहती थी और जिन्हें देश-जहान की समस्याओं की न तो ख़बर होती थी और न ही उसे जानने की कोई उत्सुकता ही वे कभी दिखाते थे….आज उन्हीं बच्चों के सामने इस दुनिया की सारी घिनौनी परतें उधड़ी रखी हैं, जहाँ उन्हें इसकी प्रत्येक सच्चाई स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होती है। अधूरा-अधकचरा ही सही पर वे उम्र से पहले सबकुछ समझने लगे हैं, प्रश्न करते हैं और ढेरों उदासी भरी बातें भी।
प्रश्न तो हम सबको भी अपने-आप से करना चाहिए कि इन मासूमों के सामने ये कैसी तस्वीर प्रस्तुत हो रही है, जिसे देखते हुए वे कभी आश्चर्य से भर जाते हैं तो कभी घबरा भी जाते हैं। ये उनकी आयु नहीं है दुनिया को समझने की। अभी तो उन्हें बाग़ों में तितलियों के पीछे दौड़ना था, पक्षियों के कलरव की मधुर ध्वनि अपने कानों को वृक्षों से सटा बार-बार सुननी थी, भागते हुए घने जंगलों में जाना था, समंदर के किनारे रेत पर कई आकृतियाँ उकेर शाम के बादलों से उनका मिलान करना था। तारे गिनते हुए सप्तऋषि को अपनी आँखों में भर लेना था, पहाड़ से फिसलती नदी को अचरज़ से देख; पानी के दो घूँट भर ज़ोरों से खिलखिलाना था। दुर्भाग्य! उनके सामने तो कुछ और ही परोसा जा रहा है वो भी इस तरह कि वे इसे जाने बिना बच नहीं सकते!
आप कैसे छुपायेंगे, उन चेहरों को जिन्हें आदर्श बता आप अपने बच्चों के सामने शान से मुस्कुराया करते थे! कैसे समझायेंगे उन्हें कि उन तथाकथित आदर्शों की भाषा अब अशिष्ट हो चली है, व्यवहार में भद्रता का जो छद्म आवरण था; सरककर हट चुका है और हर छिद्र से अभद्रता का ज़हरीला रिसाव निरंतर जारी है। शालीनता और संस्कार को सरेआम तिलांजलि देते हुए मर्यादा की सारी सीमाएँ लाँघी जा चुकी हैं और घृणा की विषबेल को गड़े मुर्दों को खड़ाकर बढ़ाया जा रहा है।
मई माह श्रमिक दिवस से प्रारंभ हो हास्य दिवस, राष्ट्रीय एकता दिवस, मातृ दिवस, विश्व परिवार दिवस, आतंकवाद विरोधी दिवस इत्यादि से होकर गुज़रता है। हिन्दी पत्रकारिता दिवस भी इसी माह है। इन दिनों पत्रकारिता भी दलों और साहित्यकारों की तरह कई खेमों में विभाजित हो चुकी है और उनके अपने-अपने आक़ा भी हैं। जो पत्रकार/ निष्पक्ष हैं या ऐसा होने का दावा करते हैं; उनके हिस्से इस बार भी लानतें ही अधिक आईं।
श्रमिकों को उनकी मेहनत का फल कभी पूरा मिला ही नहीं और उनकी माँगें भी प्रायः उपेक्षित ही रह जाती हैं। इनसे TRP बढ़ती जो नहीं!
वैश्विक आतंकवाद का सब विरोध करते ही हैं लेकिन फिर भी उखड़ने की बजाय इसकी जड़ें पुनः गहराने लगी हैं। घरेलू स्तर पर इससे निपटना पहले ज़रूरी है।
रही बात परिवार और हास्य दिवस की…तो यह तो हर दिन मनाया जाना चाहिए। माँ का दिवस हो या न हो, वो हर दिन अपने होने की सार्थकता सिद्ध करती है और ये जो थोड़ी-बहुत सुन्दरता शेष है, वह इन्हीं ने बचा रखी है। अन्यथा बढ़ती हुई व्यस्तता, भौतिक सुख-सुविधाओं की अपेक्षा और ऊपर उठने की आकांक्षाओं में परिवार सिमटते जा रहे हैं। पहले संयुक्त से एकल हुए और अब एकल में भी मोबाइल ने सेंध लगा ली है, जहाँ हँसी के ठहाके अब डाइनिंग टेबल पर एक साथ नहीं गूँजते बल्कि व्हाट्सएप्प के अँगूठे से अग्रेषित कर दिए जाते हैं। परस्पर मुस्काते, बतियाने का समय किसी के पास नहीं लेकिन मोबाइल पर घंटों बीतते हैं। सुप्रभात और शुभरात्रि की सैकड़ों तस्वीरें प्रतिदिन डाउनलोड होती हैं और फिर इकट्ठी हो डिलीट कर दी जाती हैं। हँसने के जितने स्वरूप, उतने ही रेडीमेड इमोजी भी उपस्थित हैं क्योंकि आपकी अपनी हँसी में इतनी अदा और विविधता कहाँ!
उम्मीद है कि जब इस आभासी हँसी, ख़ुशी, प्रेम से ऊब किसी रोज़ अपनी दुनिया को जी भर निहारकर देखा जाएगा तो शायद वो भी पलटकर मुस्कुरा देगी!
– प्रीति अज्ञात