आलेख
इक्कीसवीं सदी की हिंदी पत्रकारिता और पाठकीय विश्वास- डॉ. बृजेन्द्र कुमार अग्निहोत्री
हिंदी पत्रकारिता के बीज सर्वप्रथम बंगाल में प्रस्फुटित हुए। हिंदी समाचार पत्र ‘उदंत मार्तण्ड’ को प्रथम हिंदी समाचार पत्र होने का गौरव प्राप्त है। अपनी निष्पक्ष पत्रकारिता के कारण चंद दिनों में ही गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स के खिलाफ सच्ची खबर प्रकाशित करने के कारण इसे बंद करवा दिया। ‘उदंत मार्तण्ड’ ने अपनी अल्पावस्था में जो लोकप्रियता हासिल की, उससे प्रेरित होकर देश के अन्य भागों में हिंदी समाचार पत्रों का प्रकाशन प्रारंभ हुआ।
स्वाधीनता के लिए चलाये जा रहे विभिन्न आंदोलनों की सफलता में हिंदी पत्रकारिता के अवदान को विस्मृत नहीं किया जा सकता। हिंदी पत्रकारिता वह सशक्त माध्यम थी, जो आम जनता में व्याप्त भय, संत्रास, कुंठा से निजात दिला उन्हें जागरूक कर जनांदोलन हेतु तैयार करती थी। महात्मा गाँधी के बारे में प्रचलित उक्ति है- ‘दे दी हमें आजादी, बिना खड्ग बिना ढाल।’ यह करिश्मा उन्होंने बिना हथियार उठाये अहिंसक तरीके से किया; किंतु इस ओर प्रायः कम लोगों का ध्यान जाता है कि उनके पास एक ब्रह्मास्त्र था- ‘कलम-रूपी ब्रह्मास्त्र।’ इसका प्रयोग उन्होंने हमेशा किया, जनमानस तक अपनी बात पहुँचाने व जनता के अंतर्मन को झकझोर अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष के लिए तैयार करने के लिए। देश को नेतृत्व देने वाले किसी भी महापुरुष की बात करें, उनमें से अधिकांश ने आम जनमानस तक अपनी बात पहुँचाने के माध्यम के रूप में पत्रकारिता को ही चुना। उन्होंने पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से अपना विशाल पाठक-वर्ग तैयार किया और देश-समाज में व्याप्त कुरीतियों को इसी पाठक-वर्ग के सहयोग से दूर किया। बड़े-बड़े संघर्ष इन्होंने ‘हिंदी पत्रकारिता’ नामक ब्रम्हास्त्र से जीते.. तभी तो मशहूर शायर अकबर इलाहाबादी को कहना पड़ा-
खेंचो न कमानों को, न तलवार निकालो
गर तोप मुकाबिल हो तो अख़बार निकालो
परतंत्रता काल में हिंदी पत्रकारिता का स्वरूप व्यावसायिक नहीं था। इस समय की पत्रकारिता धर्म का एक स्वरूप था, देशसेवा का माध्यम था। शायद ही आजादी का कोई योद्धा ऐसा रहा हो, जो किसी न किसी रूप में पत्रकारिता से जुड़ा न रहा हो। उस समय पाठकीय-पत्र प्रकाशित होने पर भी लोगों पर उतना ही प्रभाव पड़ता था, जितना किसी समाचार या लेख का। आजादी के पश्चात हिंदी पत्र-पत्रिकाओं की संख्या बढ़ती गई, लेकिन उनका जनमानस पर प्रभाव कम होता गया। इसका प्रमुख कारण पाठकीय-विश्वास में निरंतर हो रहे क्षय को माना जा सकता है। यह चिंता का विषय है कि पहले किसी छोटे-से समाचार पत्र में चार पंक्तियों का समाचार प्रकाशित होने पर जिलाधिकारी तक की नींद हराम हो जाती थी, अब आधे पृष्ठ का समाचार पढ़कर हवलदार या सिपाही के कान में जूं तक नहीं रेंगती। पहले कुछ सौ प्रतियाँ छापने वाले अखबार में एक छोटे समाचार को पढ़कर युवक उत्साहित होकर जनांदोलन में कूद पड़ते थे, अब पूरे पृष्ठ का उपदेश ‘उंह’ कहकर टाल देते हैं।
हिंदी समाचार पत्रों के ग्राहक जितने होते हैं, उससे दस गुणा अधिक पाठक होते हैं। पाठकों की संख्या से कई गुणा सुनकर चर्चा करने वालों की होती है। इस प्रकार कुछ हजार प्रतियों में प्रकाशित होने वाले समाचार-पत्र के समाचार और लेख लाखों लोगों तक पहुँचते हैं। पहले हिंदी पत्रकारिता की ग्राहक संख्या कम थी, प्रसार कम था; लेकिन प्रभाव व्यापक था। पाठकीय-विश्वास मजबूत था। पत्रकार, संपादक और प्रकाशक सभी अपने कर्तव्यबोध से परिचित थे। अब स्थितियां इसके ठीक विपरीत दृष्टिगत होती हैं अर्थात प्रसार व्यापक है और प्रभाव सीमित। लोग कह सकते हैं कि वर्तमान समय में ‘अर्थ’ को अधिक महत्ता देने और पत्रकारिता का व्यवसायीकरण हो जाने के कारण हमें इक्कीसवीं सदी की पत्रकारिता से अधिक अपेक्षाएं नहीं करनी चाहिए। लेकिन हिंदी पत्रकारिता का उद्भव और इतिहास हमें यह बताता है कि पत्रकारिता के क्षेत्र में व्यवसाय से अधिक उद्देश्य को महत्व दिया जाता रहा है। इस आधार पर जब तक हिंदी पत्रकारिता रहेगी तब तक उससे मूल्यों की मांग की जाती रहेगी। उससे यह अपेक्षा भी की जाएगी कि वह पाठकीय-विश्वास को मजबूत करे।
पत्रकारिता पाठक को यह बताती है कि उसके आसपास क्या हो रहा है। हमारे समाज में कहाँ-कितनी गड़बड़ी हो रही है और उन गड़बड़ियों के कारण क्या-क्या घटनाएं हो रही हैं, इसकी जानकारी भी हमें पत्रकारिता के माध्यम से ही मिलती है। पत्रकारिता सिर्फ़ सूचनाएं ही प्रसारित नहीं करती, अपितु विचारों का सम्प्रेषण भी करती है। पत्रकरिता से ही लोकरुचि का परिष्कार संभव है। इस तथ्य को भी हम नकार नहीं सकते कि पत्रकार ही साहित्य के अभावों को पूरा करते हैं। प्रख्यात साहित्यकार कमलेश्वर के शब्दों में- “पत्रकारिता जागरूक बनाने का, मानस निर्मित करने का निरंतर प्रयास है।” इस प्रयास में कहीं तो कमी आई है।
हिंदी पत्र-पत्रिकाओं की संख्यात्मक वृद्धि यह बताती है कि हिंदी पत्रकारिता लोकप्रियता के सोपान निरंतर चढ़ रही है, वहीं पाठकीय विश्वास में आ रही निरंतर कमी हिंदी पत्रकारिता की गुणात्मक कमी की ओर ध्यान आकृष्ट करती है। अनेक राज्यों से कई लाख प्रतियों में निकलने वाले समाचार-पत्रों में प्रथम पृष्ठ में रंगीन चित्र सहित प्रकाशित समाचार न तो आम जनमानस को प्रभावित करते हैं, न प्रशासन को। इस कथन में कितनी सत्यता है? अगर वास्तव में पाठकीय विश्वास में अपेक्षा से अधिक कमी आ गयी है, और ‘हिंदी पत्रकरिता’ पूरी तरह से बाजारवाद की जकड़ में है तो इतनी अधिक संख्या में नए पत्र-पत्रिका क्यों निकल रहे हैं? अगर हिंदी पत्रकारिता वास्तव में आम जनमानस से अपना संबंध तोड़ चुकी है, इसका संबंध सिर्फ़ मतलबपरस्त व्यवसायियों से ही है, आम गरीब जनमानस की समस्याएं हिंदी पत्रकारिता के लिए कोई महत्व नहीं रखती, जनहित के प्रश्नों के लिए उसके पास स्थान नहीं है तो क्या हिंदी पत्रकारिता का अस्तित्व खतरे में नहीं है?
पाठक किसी भी समाचार पत्र या पत्रिका का महत्वपूर्ण हिस्सा होता है, क्योंकि समाचार पत्र या पत्रिका पढ़ने के लिए ही प्रकाशित किये जाते हैं। पाठक से ही इनकी सार्थकता जुड़ी होती है, पाठक पर ही इनका अस्तित्व निर्भर करता है; इसलिए यह बात पूरी तरह स्वीकार नहीं की जा सकती कि ‘पत्रकरिता पूर्णतः व्यवसाय है।’ यह सत्य है कि वैश्वीकरण की प्रक्रिया प्रारंभ होने के पश्चात हिंदी पत्रकारिता में एक ऐसे पूंजीपति वर्ग का प्रवेश हुआ जो पत्रकारिता में अपने व्यावसायिक हितों को साधने और पत्रकारिता में प्राप्त होने वाली प्रतिष्ठा को देखकर ही समाचार पत्र-पत्रिकाओं में पूँजी निवेश करने लगा। किंतु अगर पाठकीय विश्वास की ओर ध्यान नहीं दिया जाएगा तो क्या पूंजीपति के व्यावसायिक हित की पूर्ति संभव हो पाएगी? यदि पाठक किसी समाचार या लेख को विश्वसनीयता से नहीं पढ़ेगा तो क्या पत्रकार, संपादक या पूंजीपति को यश प्रतिष्ठा प्राप्त होगी? निसंदेह नहीं! अन्ना हजारे का लोकपाल आंदोलन हो, आम आदमी पार्टी की ख्याति हो या भारतीय जनता पार्टी की केंद्र सहित विभिन्न राज्यों में स्पष्ट बहुमत से विजय हो, सभी के मूल में कहीं न कहीं पत्रकारिता के साथ पाठकीय विश्वास भी जुड़ा हुआ है। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि पाठकीय विश्वास में कमी आ रही है, यह पूर्णतः समाप्त नहीं हुआ है। हिंदी पत्रकारिता से संबद्ध लेखक, पत्रकार और संपादक-प्रकाशकों को पाठकीय विश्वास को कम करने वालों कारकों को ढूंढकर उनका निदान करना चाहिए।
संदर्भ-
1- पत्र और पत्रकार- पं. कमलापति त्रिपाठी, ज्ञानमंडल प्रकाशन, वाराणसी
2- मीडिया: मिशन से बाजारीकरण तक- रामशरण जोशी, वाग्देवी प्रकाशन, बीकानेर
3- पत्रकरिता: मिशन से मीडिया तक- अखिलेश मिश्र, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
4- मीडिया और साहित्य- सुधीश पचौरी, राजसूय प्रकाशन, दिल्ली
5- हिंदी पत्रकारिता- डॉ. धीरेन्द्रनाथ सिंह, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी
6- पत्रकरिता की लक्ष्मणरेखा- आलोक मेहता, सामयिक प्रकाशन, दिल्ली
7- भारतीय प्रेस: 1955 से अब तक- शंकर भट्ट, प्रकाशन विभाग, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली
– डाॅ. बृजेन्द्र कुमार अग्निहोत्री