उभरते-स्वर
इंसान का सच्चा रूप
क्या तलाशती थीं तुम्हारी आँखें कभी मुझमें
मेरी ज़िंदगी का सूनापन; मेरा दर्द भी कचोटता था तुम्हें
अब क्या तलाशती हैं तुम्हारी आँखें मुझमें
मेरी देह, रंगत या वासना?
अब हो गया है स्वार्थ तुम पर हावी
उस स्वार्थ के वशीभूत हो गये हो तुम अंधे
कभी मन की नजरें उठाकर देखने की कोशिश भी नहीं की
कि किस हाल में है वो!
ज़रुरत ही नहीं समझी किसी की
पवित्रता का एहसास करने की
देह पिंजर के भीतर
एक खूबसूरत आत्मा तलाशने की
मन की आँखों से नज़रें मिलाने की
भावुक अतृप्ति को तृप्त करने की
अब तुम्हारी तृप्ति सिर्फ और सिर्फ देह बन गयी है।
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लड़की की आजादी
वो उड़ना चाहती है मुक्त गगन में
न जाने क्यों उसके पंख कतरना चाहते हैं
क्या उड़ने का अधिकार सिर्फ नर को ही है?
जो सपने देखे हैं उसने उन्हें सच करना चाहती है
क्यों बाँधना चाहते हो उसे समाज के बंधनों में
क्या एक पिता का दायित्व
पुत्री के विवाह करने से ही संपन्न हो जाता है!
क्यों नहीं लड़ते वे
समाज से, अपनी बेटी के लिए!
सिर्फ दबा कर रखना चाहते हैं
घर की चार दिवारी में उसे
क्यों देते हो संस्कारों का उलाहना!
क्या मर्यादाएँ सिर्फ बेटी के लिए ही बनी हैं?
ज़िंदगी को जीने दो उसे अपने तरीके से
मत काटो पंख उसके
वो उड़ना चाहती है मुक्त गगन में
बचपन से देखते आयी हूँ भेदभाव भाई-बहन में
जब तक चुप है, है एक आदर्श बेटी
घर और समाज में
जब उठाई आवाज़ तो बदचलन कहलाई है
क्या तुम्हें यह बेटी
स्वतंत्र भारत की स्वतंत्र लड़की लगती है!
ठगते हैं एक लड़की को सभी
पिता-भाई दायित्व, इज़्ज़त के नाम पे
प्रेमी छल-कपट के नाम पे
पति पतिव्रता के नाम पे
तो बेटा ममता के नाम पे
क्या स्वतंत्रता सिर्फ पुरुषों का ही गहना है!!
क्या औरत का कोई स्वाभिमान नहीं है!
लगे हैं सब पुरुष उसके अस्तित्व को मिटाने में
मत काटो पंख उसके
वो उड़ना चाहती हूँ मुक्त गगन में।
– प्रियंका चाहर