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आधुनिक युगीन कृष्ण भक्ति काव्य: डाॅ. वीरेन्द्र सिंह
साहित्य के इतिहास में राजनीतिक क्रांतियों की भाँति अचानक कोई परिवर्तन उत्पन्न नहीं होता। प्रत्येक युग अपने परवर्ती युग में प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से अवश्य विद्यमान रहता है। समसामायिक वातावरण एवं परिस्थितियाँ साहित्य को प्रभावित करके उसे धीरे-धीरे एक निश्चित सीमा तक इस प्रकार परिवर्तित कर देती हैं कि अनुसंधान एवं विश्लेषण हेतु उसे काल की सीमाओं में आबद्ध करना आवश्यक होता है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण, बौद्धिकता के प्राल्य एवं व्यक्तिनिष्ठ संकुचित दृष्टि की अपेक्षा समष्टिगत दृष्टि के प्रसार ने इस युग की साहित्यधारा को अपने पूर्ववर्ती युग से भिन्न एक मौलिक धरातल पर संस्थापित किया जिसके कारण इसे और उसकी प्रत्येक विधा एवं परम्परा को आधुनिक साहित्य की संज्ञा से अभिहित किया जाता है। प्राचीन काल से चली आ रही कृष्ण भक्ति काव्य की परम्परा अपने कथानक में प्राचीन होते हुए भी समसामायिक मूल्यों की वाहक है। ये मूल्य सूरसागर की गोपियों से अलग एवं प्रियप्रिवास की राधा में अलग है। आधुनिक युगीन कृष्ण भक्ति काव्य परम्परा को हम मुख्यतः तीन सोपानों में विभाजित कर सकते हैं।
1. भारतेन्दु युग
2. द्विवेदी युग
3. द्विवेदी परवर्ती युग
1. भारतेन्दु युग:
राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक, सामाजिक दृष्टि से नव जागृति के इस युग के कवियों ने गीति-काव्य की भक्तिकालीन परम्परा का ही आश्रय ग्रहण किया है। फोर्ट विलियम काॅलेज, आर्य समाज तथा ईसाई मिशनरियों के प्रचार कार्य के फलस्वरूप ज्ञान विज्ञान के अनेक विषयों की अभिव्यक्ति के लिए खड़ी बोली को स्वीकृति प्रदान करते हुए भी काव्य के क्षेत्र में ब्रजभाषा के माधुर्य को ही महत्ता प्रदान की। इस युग के प्रमुख कृष्ण भक्ति काव्य निम्न हैंः-
पण् अभिलाष माधुरी (ललित किशोरी तथा ललित माधुरी): इन दोनों बन्धुओं का वास्तविक नाम साह कुन्दनलाल तथा शाह फुन्दनलाल था। ललित किशोरी तथा ललित माधुरी नाम से ये राधाकृष्ण की लीलाओं सम्बन्धी पदों की रचना किया करते थे। इन्होंने मुख्य रूप से रासलीला, छद्म लीला एवं अष्टयाम के पदों की रचना की। वृन्दावन की अनुपम शोभा तथा कृष्ण-गोपियों के लीला स्थलों के अलौकिक सौन्दर्य सम्बन्धी पदों का प्रणयन भी इन्होंने किया।
पपण् पद्य मंजरी (गुणमंजरी दास): गुणमंजरी का वास्तविक नाम श्री गोस्वामी गल्लू जी महाराज था। वे गुणमंजरी के नाम से वृन्दावन के श्रीषट्भुज महाप्रभुजी के मन्दिर में राधा कृष्ण की लीलाओं सम्बन्धी पदों की रचना किया करते थे। अभी तक इनके श्रीयुगलछद्म, रहस्यपद तथा कुछ फुटकर पद ही उपलब्ध हैं जिनमें परम्परागत भाव एवं शैली के अनुसार राधा-कृष्ण की लीलाओं का ज्ञान किया गया है।
विश्रामसागर (रघुनाथदास रामस्नेही): रघुनाथदास रामस्नेही प्रणीत विश्रामसागर सरल, सुबोध, भाषा में लिखा हुआ वर्णनात्मक काव्य है, जिसमें कृष्ण की विविध लीलाओं के साथ-साथ राम की विविध लीलाओं का चित्रण भी है। आधुनिक युग के अन्य प्रबन्ध काव्यों की भांति इसमें भी कृष्ण जन्म से लेकर उनके बाल्यकाल तथा किशोरावस्था की लीलाओं का चित्रण परम्परागत रूप से किया गया है। भ्रमरगीत प्रसंग भी इसमें है।
ब्रज विनोद (कविवर भवानीदास): ब्रज विनोद में अत्यन्त सरस शैली में राधा-कृष्ण की षटऋतु क्रीड़ा का वर्णन भक्त हृदय की तन्मयता के साथ किया गया है।
रूक्मिणी-परिणय (महाराज रघुराज सिंह): इस रचना का दूसरा नाम रूक्मिणी मंगल भी है इसमें प्रमुख रूप से श्रीकृष्ण एवं रूक्मिणी के प्रणय-प्रसंग का विस्तारपूर्वक वर्णन है। साथ ही रैवत महाराज की पुत्री रेवती से बलराम के पाणिग्रहण संस्कार का भी सरस वर्णन है।
जरासंध वध (गिरिधर दास): गोपाल चन्द्र गिरिधरदास का जरासंध वध एक प्रबन्ध काव्य है जो अपूर्ण है। इसका कथानक कंस वध के उपरान्त का है।
अलौकिक लीला (बदरीनारायण चौधरी प्रेमधन): यह पाँच सर्गों का अपूर्ण प्रबन्ध काव्य है। इसमें कृष्ण जन्म से कृष्ण-बलराम के मथुरा गमन तक की घटना का वर्णन है। प्रेम घन के ‘प्रेमघन सर्वस्व‘ में भी स्फुट रूप से कृष्ण लीला का वर्णन मिलता है।
भारतेन्दु प्रणीत कृष्ण काव्य: आधुनिक युग में राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना के प्रथम उद्घोषक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र प्रणीत कृष्ण कथा विषयक लगभग डेढ़ हजार स्फुट पद विविध शीर्षकों के अन्तर्गत उपलब्ध होते हैं जिसका संकलन नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा भारतेन्दु ग्रंथावली के रूप में किया गया है। ‘प्रेमाश्रुवर्णन, प्रेमतरंग, प्रेममाधुरी, मधुमुकुल‘ आदि इनकी लीला सम्बन्धी रचना है।
भारतेन्दु युगीन अन्य कृष्ण काव्य: बृज विहार (नारायण स्वामी) प्रेम अभिलाष (मुंशी साहब सिंह भटनागर), भ्रमर गीत (राधाचरण गोस्वामी), कुजा-पचीसी (नवनीत चतुर्वेदी) द्वारका शतक (द्वारका प्रसाद) आदि प्रमुख हैं।
2. द्विवेदी युग:
भारतेन्दु युग में समसामायिक परिस्थितियों की प्रेरणा से जिस नवीन संचेतना का स्फुरण हुआ था, उसका चरम विकास हमें उसके परवर्ती द्विवेदी-युग में आकर दृष्टिगत होता है। आधुनिक युग की कृष्ण-काव्य परम्परा में यह युग अपने समसामयिक बाह्य परिवेश से सर्वाधिक प्रभावित होने के कारण युग चेतना को संवहन करने में पूर्णतया समर्थ है। समाज में प्रचलित आदर्शोन्मुख आन्दोलनों से इस युग का कृष्ण काव्य भी निस्संग नहीं रह सका। इस युग में गद्य के साथ-साथ पद्य में भी खड़ी बोली को अपनाया गया। कृष्ण काव्यों में भी इसे स्वीकार किया गया। इस युग के प्रमुख भक्ति काव्य निम्न है:-
प्रियप्रवास (अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध‘): खड़ी बोली हिन्दी के प्रथम महाकाव्य ‘प्रियप्रवास‘ में कवि ने परहित, लोकहित, विश्वहित एवं देश हित के लिए स्वार्थ हित के त्याग की पुष्टि की है। काव्य नायक एवं नायिका परम्परागत अवतारों से भिन्न एक परोपकारी मानव के रूप में उपस्थित हुए जो उस युग की आवश्यकता के अनुरूप है।
हिण्डोला (जगन्नाथ दास रत्नाकर): इसमें मुख्य रूप से वर्षा ऋतु के मधुमय वातावरण में राधा कृष्ण के झूला-झूलने का वर्णन है। सम्पूर्ण रूप में यह रचना संयोग श्रृंगार के अन्तर्गत आती हैं।
उद्धव-शतक (जगन्नाथ दास रत्नाकर): भाव माधुर्य एवं अभिव्यक्ति सारल्य से युक्त रत्नाकर प्रणीत ‘उद्धव-शतक’ आधुनिक कृष्ण काव्य परम्परा की अनुपम उपलब्धि है। उद्धव के माध्यम से ज्ञान रूपी गूदड़ी में अनुराग रूपी रत्न की महत्ता ही इस काव्य का उद्देश्य है।
भ्रमर दूत (पं. सत्यनारायण कविरत्न): मध्यकालीन भ्रमरगीत परम्परा का अनुकरण करते हुए श्री कृष्ण कथा के प्राचीन आयाम पर सम सामयिक वातारण एवं युग बोध को शब्द रूप प्रदान करने की दृष्टि से प्रस्तुत रचना इस युग की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है।
जयद्रथ वध (मैथिलीशरण गुप्त): प्रस्तुत काव्य की कथा अर्जुन द्वारा की गई जयद्रथ वध की प्रतिज्ञा और उसकी पूर्ति पर आधृत होते हुए भी प्रतिपाद्य विषय की दृष्टि से यह रचना कृष्ण काव्य ही है।
प्रेमशतक और प्रेमपथिक (वियोगी हरि): वियोगी हरि जी मध्यकालीन भक्ति भावना तथा भाव तन्मयता के आधुनिक युग के सफल प्रतिनिधि कवि है। इन रचनाओं में राधा कृष्ण की बाल लीला व किशोर काल की लीलाओं के वर्णन के साथ-साथ समाज की सम सामयिक दशा का चित्रण भी है।
गोपिका गीत (श्रीधर पाठक): इस संक्षिप्त रचना में कृष्ण के युगानुकूल लोक रक्षक परब्रह्म रूप की स्तुति तथा उनके लोक रंजक कार्यों का आख्यान है।
द्विवेदी युगीन अन्य कृष्ण भक्ति काव्यों में श्रीकृष्ण चरित्र (रूपनारायण पाण्डेय), अजिर-विहार (गजराज सिंह), उपालम्भ अष्टक (जगन्नाथ भानु), कृष्णावतार (रामदास गौड़) आदि प्रमुख हैं।
3. द्विवेदी परवर्ती युग:
समसामायिक परिस्थितियों की दृष्टि से द्विवेदी-परवर्ती युग सर्वतोमुखी चेतना का युग है। प्रायः प्रत्येक युग का पर्यवसान अपने परवर्ती युग में जाकर होता है। इसलिए विवेच्य युग द्विवेदी युग की ही इतिवृत्तात्मकता तथा वयैक्तिक भावना के सर्वथा तिरस्कार की प्रतिक्रिया स्वरूप मानव हृदय की यथार्थ अभिव्यक्ति के रूप में प्रतिफलित होने पर भी उस युग की अनेक प्रवृत्तियों को ग्रहण किये हुए हैं। परिस्थितिगत वैषम्य, बौद्धिक पृष्ठभूमि की व्यापकता तथा वर्ण विषय की सीमाओं के कारण यह युग कृष्ण काव्य परम्परा की दृष्टि से नवसंचेतना का युग है। विश्व की उथल-पुथल से प्रत्यक्ष रूप से यह काव्य विनिर्मुक्त रहा है, किन्तु वैयक्तिक स्तर पर कृष्ण काव्य के प्रणेता देश की आन्तरिक परिस्थितियों से सर्वथा विरक्त नहीं कहे जा सकते। इस काल में ब्रजभाषा में रचित रचनाएँ खड़ी बोली में प्रणीत कृष्ण काव्य के समकक्ष ही युगधर्मिता एवं अभिव्यजंना की दृष्टि से उत्कृष्ट हैं। इस युग के प्रमुख कृष्ण काव्य निम्न हैं:-
पुरुषोत्तम (तुलसीराम शर्मा ‘दिनेश’): आठ अंगों में विभाजित इस रचना में ‘दिनेश’ जी ने कंस वंध के लिए कृष्ण-बलराम के मथुरा गमन से लेकर भविष्य के गर्भ में तिरोहित महाभारत के भयंकर नरसंहार की भविष्यवाणी तक है।
कृष्ण चरित मानस (प्रद्युम्न टुगा): कृष्ण काव्य परम्परा में प्रबन्धात्मकता के अभाव की पूर्ति के लिए आधुनिक युग में जिन प्रबन्ध काव्यों की रचना हुई है उमें प्रद्युम्न टुगा प्रणीत कृष्णचरित मानस प्रमुख रूप से उल्लेखनीय है। रामचरित मानस शैली में लिखित यह काव्य कृष्ण के अनुरागमय मधुर प्रसंगों के कारण चर्तित है।
कृष्णायन (द्वारिका प्रसाद मिश्र): मिश्र जी प्रणीत कृष्णायन अपने पूर्ववर्ती सभी काव्यों की अपेक्षा विस्तृत है। इसमें कृष्ण जन्म से लेकर उनके बैकुण्ठ गमन तक की सम्पूर्ण कथा को प्रतिपाद्य के रूप में ग्रहण किया गया है। रामचरितमानस की तरह इसमें भी कथानक सात काण्डों में विभाजित है।
द्वापर (मैथिलीशरण गुप्त): सोलह खण्डों में विभाजित इस रचना में प्रत्येक खण्डों में प्रमुख पत्र अथवा समान धर्मों अनेक पात्रों के आत्म चिन्तन एवं मनन के रूप में प्रमुख कथा प्रसंगों एवं घटनाओं की अभिव्यंजना हुई है।
उद्धव शतक (डाॅ. रमाशंकर शुक्ल रसाल): भ्रमरगीतों की परम्परागत भाव विहृलता के स्थान पर आज के इस वैज्ञानिक युग की बुद्धिवादी तर्कशीलता को ग्रहण करके प्रस्तुत काव्य की रचना हुई है। वे गोपियों को निरक्षर एवं ज्ञान से वंचित नहीं मानते।
मधुपुरी (गया प्रसाद द्विवेदी): द्विवेदी जी ने इसमें कृष्ण जन्म से लेकर कंस वध के उपरान्त ‘शान्ति सिद्धि’ तक की कथा को बीस सर्गों में पद्यबद्ध किया है जो अन्तिम सर्गों में आधुनिक युग के गांधीवादी विचारों से प्रभावित होकर राम राज्य की प्रकल्पना के सामानान्तर कृष्ण द्वारा स्थापित प्रजातांत्रिक राज्य की सुव्यवस्था का चित्रण करता है।
पांचाली (रांगेय राघव): घटना बाहुल्य की अपेक्षा वैचारिक अन्तद्र्वन्द्व को लेकर ‘पांचाली’ की रचना हुई। युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव के साथ वन में भटकती हुई द्रौपदी को कवि ने क्रमशः धर्मशक्ति, उद्यम, सौन्दर्य व मनीषा से युक्त मानवता की संज्ञा दी है।
कनुप्रिया (धर्मवीर भारती): ऐतिहासिक एवं पौराणिक बारह घटनाओं की अपेक्षा कैशोर्य अवस्था से लेकर पूर्ण यौवन तक की मानव-मन की प्रक्रिया व उसके बाद की गंभीर, शांत एवं उदात्त मनःस्थिति के अंकन के रूप में प्रस्तुत काव्य की रचना हुई है।
आधुनिक हिन्दी काव्य के कृष्ण चरित्र का एक सुन्दर पक्ष यह है कि कृष्ण यहां महामानव एवं लोकनेता है। कहीं भी वे अपनी ईश्वरीय गरिमा, अलौकिकत्व एवं दैवी स्वरूप से अलग नहीं हो पाये। वे सर्वत्र एक राष्ट्रीय नेता के रूप में सामने आते हैं और अपने युग के कर्णधार हैं। कृष्ण चरित्र का विश्लेषण करती स्वातंत्र्योत्तर युग में उनकी अनेक रचनाएं सामने आयी हैं जिनमें कुरूक्षेत्र (रामधारी सिंह दिनकर), सेनापति कर्ण (लक्ष्मीनारायण मिश्र), अंगराज (आनन्द कुमार), रश्मिरथी (दिनकर), अंधायुग (धर्मवीर भारती) तथा गोपिका (सियाराम शरण गुप्त) प्रमुख हैं।
इन कृतियों में कृष्ण के ईश्वरत्व का कम एवं मानववादी विचारधारा का व्यापक प्रभाव है।
सन्दर्भ-
1. आधुनिक कृष्ण काव्य – डाॅ. महेन्द्र निर्दोष, राधा पब्लिेकेशन दिल्ली, सं. 1996
2. आधुनिक हिन्दी काव्य और पुराण कथा – डाॅ. मालती सिंह, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, सं. 1985
3. हिन्दी नई कविता और मिथक काव्य – डाॅ. अश्विनी पाराशर, दीर्घा साहित्य संस्थान, दिल्ली
– डाॅ. वीरेन्द्र सिंह