आलेख/विमर्श
आधुनिक दलित उपन्यास परम्परा, इतिहास, समाज एवं स्त्री
– तेजस पूनिया
समाज एवं उसमें लिखा जाने वाला साहित्य दोनों ही गतिशील होते हैं । किन्तु जब उसी समाज के एवं उसके साहित्य में कभी कहीं एक पक्ष में रुकावट आ जाती है । तब वह पिछड़ने लगता है और फिर धीरे-धीरे इतना पिछड़ जाता है कि वह एक समय के लिए चिरनिद्रा में चला जाता है । फिर कोई उनका चिंतक, समाज उद्धारक बनकर चला आता है तथा उन्हें प्रेरणा एवं मार्गदर्शन प्रदान करता है । यह प्रेरणा एवं मार्गदर्शन उन्हें उनकी सुप्त अवस्था से जगाने के लिए औषधि की भांति काम करता है । हमारा देश जितनी विविधताओं से परिपूर्ण है । उतनी ही इसके समाज में विभिन्न असमानताएँ एवं विद्रूपताएँ भी हैं । ये विविधताएँ समाज ही नहीं अपितु उसमें रहने वाले बुद्धिजीवियों के चिंतन के माध्यम से सृजित साहित्य में भी देखने को मिलती है । दलित साहित्य भी इसी विविधता का एक हिस्सा है ।
हिंदी दलित साहित्य लगभग पांच दशकों की यात्रा को पूर्ण कर चुका है तथा इसने वर्तमान समय में साहित्यिक उभार की दृष्टि से सामाजिक लोकतंत्र की यात्रा को पूर्ण किया है । किन्तु अभी भी इसके साहित्यिक उभार में बहुत सी कमियाँ हैं । इस साहित्य ने सांस्कृतिक एवं साहित्यिक स्तर पर विविधताओं की जिस सदी को देखा है । उसमें आज भी नृश्संता, बर्बरता एवं क्रूरता के कारण निकले खून के धब्बे भी दिखाई पड़ते हैं । आज भी हमारे भारतीय समाज में दमन की प्रक्रिया अपने-अपने स्तरों पर विभिन्नता के साथ फैली हुई है ।
दलित उपन्यासों की कड़ी में सुशीला टाकभौरे के उपन्यास ‘तुम्हे बदलना ही होगा’ शरण कुमार लिम्बाले का ‘नर वानर’ और ‘हिन्दू’, आण्णाभाऊ साठे का ‘फकीरा’, उत्तम बहु तुपे का ‘झुलवा’, नामदेव कांवले का ‘राघवेल’ मराठी दलित उपन्यास है । इसके अलावा अन्य भाषा की बात करें तो तमिल भाषा में सन् 1872 में गोपालकृष्णम शेट्टी का ‘श्रीरंगराजु चरित’ तथा ‘सोनाबाई परिणय’ ।
हिंदी में कथावस्तु एवं दलित समस्या को देखा जाए तो प्रेमचन्द के ‘गोदान’ में देखने को मिलती है । इसके अलावा निराला के ‘चतुरी चमार’, रांगेय राघव के ‘कब तक पुकारूं’, अमृतलाल नागर के ‘नाच्यौ भूत गोपाल’, नागार्जुन के ‘बलचनमा’, गिरिराज किशोर के ‘परिशिष्ट’, जगदीशचन्द्र के ‘धरती धन न अपना’, ‘अपनी-अपनी जमीन’, मन्नू भंडारी के ‘महाभोज’ मैत्रयी पुष्पा के चाक और ‘अल्मा कबूतरी’ आदि में दलित जीवन का परिदृश्य देखने को मिलता है ।
“लोगों को दुःख होता है । हमारी आजादी से । पशु-पक्षियों की आजादी उन्हें भाती है । चिड़ियों को वे पिंजरे से मुक्त कर देते हैं । पर हमारे भीतर मुक्ति के सवाल पर चुप्पी साध लेते हैं… जैसे हम काठ के हों । हमारे भीतर संवेदनाएं ही न हों । हम मुर्दा हैं । अब हम गुलाम तो नहीं ।”1
समाज हमारी भारतीय संस्कृति, परम्परा एवं इतिहास का एक लंबा-चौड़ा तथा पुराना हिस्सा है । उसी के नाते जब वह उससे जुड़ता है तो एक समाज तथा सम्पर्क का कारण बन जाता है । चेतना है तो मनुष्य है और मनुष्य है तो समाज है । इस चेतना और मनुष्य निर्मित समाज की अपनी एक रीति, नीति तथा परम्परा है ।
मेरी अपनी स्वायत्ता है
मैं समाज से नहीं
समाज मुझसे बनता है
मेरे आचरण की शुद्धता से
मेरे कर्म की निष्ठा से
मेरे चरित्र की दृढ़ता से
मेरे अंत:करण की पवित्रता से
समाज की परिभाषा बनती है 2
श्यामाचरण दूबे के मतानुसार – भारतीय समाज व्यवस्था को प्राय: परिबद्ध और अनम्य माना जाता है और इसी रूप में उसका वर्णन किया जाता है ।
किसी भी समाज का निर्माण यूँ ही नहीं हो जाता उसके लिए कुछ अनिवार्य आवश्यकताएँ तथा अहर्ताएँ भी होती हैं
• समाज की आत्मा से मनुष्य का अमूर्त सम्बन्ध होना ।
• समाज में हम की भावना का निस्तारण होना क्योंकि मैं शब्द सामाजिक बन्धनों को जन्म देता है ।
• समाज अनिवार्य अहर्ता समूह का निर्माण है जो पारस्परिक चेतना से युक्त हो ।
• समाज में सबकी आर्थिक स्थिति भिन्न होने पर भी एक अधिकार भावना । अधिकार भावना समाज के सदस्य के रूप में ।
• स्थायित्व की भावना का होना । यह स्थायित्व उस समाज को उसके सदस्यों एवं उनकी कई सदस्य पीढ़ियों से मिलता है ।
दलित समाज की अभिव्यक्ति हम पंडित अमृतलाल नागर के उपन्यास ‘नाच्यौ बहुत गोपाल’, लक्ष्मी नारायण लाल ने ‘हरा समंदर गोपी बन्दर’, जयप्रकाश कर्दम का उपन्यास ‘छप्पर’, प्रेम कपाड़िया कृत ‘मिट्टी की सौगंध’, सूरज प्रकाश कृत ‘जस तस नई सबेर’, कौशल्या बैसंत्री कृत ‘दोहरा अभिशाप’, मोहनदास नैमिशराय के ‘वीरांगना झलकारी बाई’ व एस० आर० हरनोट के ‘हिडिम्ब’ आदि में भी देख सकते हैं ।
आधुनिक दलित उपन्यासों में स्त्री की स्थिति को चित्रित करने से पूर्व समाज, देश, साहित्य आदि तमाम सभी में स्त्रियों की स्थिति को देखना, जानना आवश्यक है क्योंकि बिना इतिहास अथवा पूर्व रूपरेखा के हम आधुनिक परिप्रेक्ष्य में उनकी स्थिति का अंकन ठीक से नहीं कर सकते । वैदिककाल अथवा पूर्व वैदिक काल की बात करें तो भारतीय समाज, मिथकों, पुराणों आदि में मातृसत्तात्मक व्यवस्था थी तथा ऋषिकाओं आदि के नामों से वंश परम्परा जानी पहचानी जाती थी । किन्तु आज उसका हश्र आज हम स्त्री विमर्श के रूप में देखते हैं । चारों वेदों, उपनिषदों, अरण्यकों आदि में वैदिक संस्कृति को सिन्धु तथा गंगा, जमुना के दो आबों से नापा गया । इस गंगा-जामुनी तहजीब के चलते स्त्रियों का समाज में मान-सम्मान था उन्हें ऋषिकाओं के अलावा ब्रह्मवादिनियों के नाम से भी जाना जाता था । जिनमें घोषा, लोपामुद्रा, वांग्भणी, विश्वम्भरा, शचीमोलोमी आदि विख्यात ऋषिकाओं की श्रेणी में गिनी जाती हैं।
बंग महिला की कहानी ‘दुलाईवाली’ के आधार पर कथा साहित्य में स्त्री लेखन का प्रवेश स्वीकार किया जा सकता है । कृष्णा सोबती, इस्मत चुगताई, मृदुला सिन्हा, मृदुला गर्ग, मन्नू भंडारी, अमृता प्रीतम, उषा प्रियम्वदा, कृष्णा अग्निहोत्री, प्रभा खेतान, शिवानी, अलका सरावगी, चित्रा मुद्गल, ममता कालिया, मैत्रेयी पुष्पा, राजी सेठ आदि जैसी प्रमुखता से आती हैं । इन सभी के रचना संसार में स्त्री सशक्तिकरण को लेकर एक विशेष कथा क्रम बुना हुआ सा दिखाई देता है । जिसमें आत्मविश्वास के साथ अन्याय, शोषण, उत्पीडन आदि के विरुद्ध बोलने का साहस दिखाई देता है । इस साहस को मीडिया ने उसके भीतर और अधिक पुष्टता प्रदान की है ।
श्यामाचरण दूबे- “नारी को न पूजा की जरूरत है, न ताड़ना की । वह सिर्फ समता चाहती है । असहमति, विद्रोह और सुधार की परम्पराओं ने न्याय की मांग उठाई । वे आंशिक रूप से सफ़ल भी हुई ।”3
एक शोध के मुताबिक़ इस समय हमारे देश (हिन्दुस्तान) में महिला पत्रकारों की संख्या तकरीबन 16 प्रतिशत तक बढ़ी है इसके बावजूद भी स्त्री संघर्ष करती हुई अपने वजूद को हर जगह तलाशती नजर आती है । हालिया रिलीज फिल्म पिंक में अमिताभ बच्चन की आवाज में सुनाई देने वाली कविता इसे और अधिक पुष्टि प्रदान करती है ।
तू खुद की खोज में निकल, तू किसलिए हताश है ?
तू चल तेरे वजूद की समय को भी तलाश है
जो तुझसे लिपटी बेड़ियाँ, समझ न इनको वस्त्र तू
ये बेड़ियाँ पिघाल के, बना ले इनको अस्त्र तू
तू खुद की खोज में निकल, तू किसलिए हताश है ?
इसी तरह नारी के रूप को छायावाद में जयशंकर प्रसाद कुछ यूँ व्याख्यायित करते हैं –
“नारी तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रजत नग पगतल में
पियूष स्त्रोत सी बहा करो, जीवन के सुंदर समतल में ।।”4
प्रसाद के समकालीन मैथिलीशरण गुप्त को उसी पियूष स्त्रोत सी बहने वाली नारी की आँखों में आँसू दिखाई दे जाते हैं और उनकी कविता में वह अबला स्वरूप घोषित कर दी जाती है ।
“अबला जीवन, हाय तुम्हारी यही कहानी
आँचल में है दूध और आँखों में पानी ।।”5
जबकि आधुनिक युग की कवियत्री निर्मला पुत्तुल की नजर थोड़ी पैनी होकर एक स्त्री के भीतर वर्षों से खौलते इतिहास की पड़ताल करती है । वे लिखती हैं –
“तन के भूगोल से परे,
एक स्त्री के मन की गांठे खोलकर कभी पढ़ी हैं ?
देखा है तुमने उसके भीतर का खौलता इतिहास ?
अगर नहीं तो फ़िर क्या जानते हो ?
तुम रसोई और बिस्तर के गणित से परे एक स्त्री के बारे में ।”6
निर्मला पुत्तुल की कविता की ये मात्र पाँच पंक्तियाँ नागार्जुन की अकाल और उसके बाद कविता की भी याद दिला देती है । खैर वर्षों से दलितों में दलित स्त्री जीवन का समाज, इतिहास और उसके साथ बंधीं इन परम्पराओं का उल्लेख वर्तमान दलित साहित्य में प्रमुखता से देखने को मिला है ।
संदर्भ सूची –
1. उपन्यास, मुक्तिपर्व, मोहनदास नैमिशराय
2. डॉ० राधा गुप्ता ब्लॉग, गूगल साभार
3. भारतीय समाज व्यवस्था, श्यामाचरण दूबे
4. कविता कोश, जयशंकर प्रसाद
5. कविता कोश, मैथिलीशरण गुप्त
6. कविता कोश, निर्मला पुत्तुल
– तेजस पूनिया