आलेख
आधा गाँव: सामाजिक यथार्थ बोध
– यासीन अहमद
‘आधा गाँव’ राही मासूम रज़ा का प्रमुख उपन्यास है। प्रस्तुत उपन्यास सन् 1966 ई. में प्रकाशित हुआ। उपन्यास गंगौली के शिया मुसलमानों की बद से बदतर होती स्थिति को पाठको के सम्मुख प्रस्तुत करने के साथ-साथ ग्रामीण राजनीति व सामासिक संस्कृति तथा मानवीय संबंधो के विविध रूपों को यथार्थ, आदर्श एवं व्यंग्यात्मक रूप में प्रस्तुत करता है। उपन्यास का केन्द्र बिन्दु गाँव ‘गंगौली’ दो भागों मे बँटा हुआ है। उत्तर पट्टी और दक्षिण पट्टी, “गंगौली में तीन बड़े दरवाज़े हैं। एक उत्तर पट्टी में है और पक्कड़ तले कहा जाता है…और दो दक्षिण पट्टी में। एक ज़हीर चा के पुरखो का… इस फाटक का नाम ‘बड़का’ फाटक है। …बड़ा दरवाज़ा अब्बू-दा के बुजुर्गाे का है, जो अब्बू मियाँ का फाटक कहा जाता है।”1 भारत में सामान्य जनता की आर्थिक स्थिति अत्यंत दयनीय होने के बावजूद त्यौहार हर्षोेउल्लास से मनाना गर्व का विषय माना जाता है। विशेषकर ग्रामीण परिवेश के व्यक्ति किसी भी परिस्थिति में त्यौहार मनाने के लिए उत्साहित रहते हैं। मोहर्रम गंगौली वालों के लिए एक रूहानी बात थी। सारे क्षेत्र में यह बात एक किवदंती की तरह मशहूर थी कि मोहर्रम के वक्त इमाम हुसैन गंगौली चले आते हैं। इसीलिए मोहर्रम के महीने में गंगौली के आस-पास के इलाके वाले भी मोहर्रम मनाने के लिए गंगौली चले आते थे।
इनका पूरा साल मोहर्रम की तैयारी करने में ही गुज़र जाता था। इस बार का मोहर्रम ख़त्म हुआ नहीं कि आने वाले मोहर्रम की तैयारी फिर से शुरू हो जाती। मातम करने में एक-दूूसरे से आगे निकलने के लिए दोनों पट्टी के अखाड़े आपस में एक अघोषित प्रतियोगिता करते। रब्बन दादी की एक आँख चेचक की वजह से खराब हो जाती है परन्तु उसे इस बात का ग़म नहीं कि वह केवल एक आँख से ही देख पाती है। उसे तो यह ग़म सताता है कि सभी लोग तो हुसैन की मुहब्बत में दो आँखों से आँसू बहाएँ और वह केवल एक आँख से अपने ग़म का इज़हार करते हुए वह कहती है कि, “अरे एक्के ठो अँखिया से कइसे रोयें हे, मौला…।”2
मोहर्रम में पढ़े जाने वाले मर्सियों और नोहों की धुन तैयार करने में बहुत अधिक मेहनत और समय व्यतीत किया जाता था। क्योंकि उस समय तक हिन्दी सिनेमा की पहुँच गाँवों तक नही थी, “…और बाजी नौहों की बयाज़ें निकालकर नयी-नयी धुनों की मश्क करने लगतीं। उन दिनों नौहों की धुनों पर फिल्मी म्युजिक का क़ब्ज़ा नहीं हुआ था। नौहों की धुनें देहातों, क़स्बों और छोटे-मोटे शहरों की लोक-धुनों की तरह सादा और साथ ही साथ गम्भीर हुआ करती थीं और जब बाजी, अम्मा या कोई और खाला या फूफी काले कपड़े पहनकर नोहा पढ़ने खड़ी होतीं: ‘सोेते-सोते सकीना यह कह उठी, शह का सीना नहीं तो सकीना नहीं…’ तो बयाज सँभालने वाली कलाईयाँ एक दम से बदल जातीं। सुनने वाले का ऐसा मालूम होता जैसे नौहे की आवाज़ खास दमिश्क के बंदीघर से आ रही है।”3
मुस्लिम समाज के जीवन का यथार्थ चित्रण करते हुए राही कोई भी पक्ष अनछुआ नहीं छोड़ते। पर्दों के अन्दर रहने वाली सैदानियों को भी बेपर्दा कर देते हैं। शिक्षा के नाम पर अधिकांशतः धार्मिक किताब कुरआन को सिर्फ पढ़ना जानती थी, समझना नहीं। ज़मींदार अपनी शान-ओ-शौकत व दिखावे के लिए ही धन लुटाते थे। औरतों को केवल भोग-विलास की वस्तु माना जाता था। इसी का परिणाम था कि तीन चार औरतें रखना शान की बात समझी जाती थी, “दूसरा ब्याह कर लेना या किसी ऐरी-गैरी औरत को घर में डाल लेना बुरा नहीं समझा जाता था। शायद ही मियाँ लोगों का कोई ऐसा ख़ानदान हो, जिसमें क़लमी लड़के और लड़कियाँ न हों। जिनके घर में खाने को भी नहीं होता, वे भी किसी-न-किसी तरह क़लमी आमों और क़लमी परिवार का शौक पूरा कर ही लेते हैं!”4
वैसे तो मुस्लिम समाज समानता व भाईचारे की बात करता है। जबकि वास्तविकता यह है कि असमानता व छुआछूत मुस्लिम समाज में भी पाया जाता है। ख़ानदान की श्रेष्ठता का गर्व आदि भी मुसलमानों में अधिकतर पाया जाता है। सुलेमान झंगटिया-बो को अपने साथ रखते हैं, वह उनके दो बच्चों की माँ भी बन चुकी है। परन्तु वह उसके साथ समानता का व्यवहार नहीं करते, “सुलेमान-चा मज़हबी आदमी थे, इसलिए वह झंगटिया-बो की छुई हुई कोई गीली चीज़ इस्तेमाल नहीं कर सकते थे।”5 इसी प्रकार का ढोंग थानेदार ठाकुर हरनारायण साहब की रखैल गुलाबी जान भी करती दिखाई देती है। वह प्रत्येक रात ठाकुर के साथ ही सोती है और सुबह घर जाकर रोती है, अल्लाह से माफ़ी माँगती है कि इस पापी पेट की वजह से उसे एक काफ़िर के साथ सोना पड़ता है।6
मुस्लिम समाज इन्साफ पसंद हैं परन्तु वर्तमान समय में मुसलमान इसका कितना पालन कर रहे हैं। फुन्नन का हुक्का पानी बन्द कर दिया जाता है। केवल इस बात पर कि वह मुसलमानों की ग़लत बात का समर्थन न करके हक़ बात पर ठाकुर पृथ्वीपाल सिंह साथ देता है, “पट्टीदारी का मतलब एहे है का कि हम्माद जुअन आफत चाहे जोत लें और सब उन्हई का साथ दें! ई हम से ना होई।”7 ये वही ख़ानदान वाले थे, जिन्होंने कुलसूम को उठाकर लाने में फुन्नन का पूरा साथ दिया था। इन्सानियत, अम्नपसंदी, मानवता और भाईचारे का दम भरने वाले मुसलमान फुन्नन की बेटी की मृत्यु होने पर अपनी आँख और कान बंद कर लेते हैं। उसके जनाज़े में भी शरीक नहीं होते हैं। जनाज़े को क़ब्रिस्तान पहुँचाने में हिन्दू धर्मावलंबी ठाकुर व छिकुरिया मदद करते हैं। इससे स्पष्ट पता चलता है कि, समाज में व्यक्तिवादिता अहंकार व हठधर्मिता बहुत गहराई तक अपनी जड़ें जमा चुकी थीं।
स्वतंत्रता से पहले ग्रामीण राजनीति मुख्यतः पुलिस, ज़मींदार, पटवारी आदि द्वारा फलीभूत होती थी। इन्हीं के द्वारा गाँव की ग़रीब जनता पर अत्याचार, बेदखली व फर्जी मुकदमों में नामजद कर दिया जाता था। कोमिला चमार एक ऐसे ही फर्जी मुकदमें में फँसकर फाँसी की सजा पा जाता है। एक कत्ल के केस में, “हकीम साहब ने थाना क़ासिमाबाद के थानेदार से कह-सुनकर अपने एक खास आदमी कोमिला चमार को नामज़द करवा दिया।”8 साम्प्रदायिकता का ज़हर फैलाने में हिन्दू महासभा के कार्यकर्ता कोई कोर कसर नहीं छोड़ते हैं। बाग में स्वामीजी भाषण देते हैं कि, “…धर्म संकट में है। गंगाजली उठाकर प्रतिज्ञा करो कि भारत की पवित्र भूमि को मुसलमानों के खून से धोना है।”9 अलीगढ़ से आये नवयुवक मुसलमानों को हिन्दुओं से डराने के लिए कहते हैं कि, “हम ऐसे मुल्क मे रहते हैं जिसमें हमारी हैसियत दाल में नमक से ज़्यादा नहीं है। एक बार अंग्रेजों का साया हटा तो ये हिन्दू हमें खा जायेंगे। इसलिए हिन्दुस्तानी मुसलमानों को एक ऐसी जगह की ज़रूरत है, जहाँ वह इज़्ज़त से रह सकें। मैं यह नहीं कह सकता कि खालिद-बिन-वलीद और मुहम्मद-बिन-क़ासिम की औलाद हिंदुओं से डरती है।”10 दोनों ओर की अंधभक्ति और वातावरण में साम्प्रदायिकता का ज़हर घोलने वालों से आहत होकर लेखक ने समाज को जागरूक करने व वास्तविकता का आईना दिखाने की गरज़ से ही फुन्नन के माध्यम से कहा कि, “अ पाकिस्तान बनिबो करिहे त गंगउली से बहुत दूर बनिहे। तूँ जाके अपनी चरखी सँभालो अउर ताना ठीक करो। पाकिस्तान-आकिस्तान पेट भरन का खेल है।”11
आज़ादी के बाद भारत में रहने वाले मुसलमानों की दयनीय आर्थिक स्थिति का मर्मस्पर्शी चित्रण भी लेखक ने किया है। स्वतंत्र्ता से पहले जो ज़मीदार शाही जीवन जीने आदि थे। ज़मीदारी खत्म होने व भारत में ही रहने के कारण उन्हें अति सामान्य जीवन जीना पड़ता है। मोहर्रम के लिए पूरे वर्ष तैयारी की जाती थी। अब धन के अभाव में एक मुश्किल से निभायी जाने वाली रस्म बनकर रह गया है। यतीम का हिस्सा खरीदने की भी ताकत अब गंगौली वालों में नहीं रही। ज़मीदार को जीवन यापन करने के लिए जूते की दुकान करनी पड़ती है, “फुस्सू मियाँ ने जूते के तलवों को लड़ाते हुए कहा, “जा-जा…. चमड़ौधा पहिन! बंदर का जाने अदरक का सवाद।”12 ओैर एक साहब को अपनी बेटी के पैसो से मातमी लिबास पहनना पड़ता है। बेटी की शादी करने के लिए पिता को मुअम्मा हल करके उसकी इनामी राशि पर निर्भर होना पड़ता है। सईदा की माँ नमाज़ में दुआ मांगती है कि, “अबके सईदा के अब्बा को इनाम दिलवा दे तोको कर्बला वालन का वास्ता, तोको हज़रत बीबी की क़सम…।”13 जीवन इतने निम्न स्तर पर आ गया है कि, सैयदों को अपनी हड्डी का गुरूर भी त्यागना पड़ता है। फुन्नन मियाँ कहते हैं कि, “ई सैय्यदी बघारे का जमाना है? अरे मियाँ, जै दिन इज्जत आबरू से गुजर जाये गनीमत जानों।”14 आज़ादी का सबसे ज्यादा प्रभाव मुस्लिम समाज पर ही पड़ा। परिवार बिखर गये। कुुछ सदस्य भारत में ही रह गये और कुछ पाकिस्तान में चले गये। पति के जीवित होते हुए भी पत्नी को विधवा व बच्चों को अनाथों का जीवन जीने को मजबूर होना पड़ा।
स्वतंत्रता के युद्ध में मुस्लिम समुदाय की कुरबानी को फुन्नन के बेटे मुमताज़ के रूप में भुला दी गयी। जबकि उसके साथ मरने वाले दूसरे धर्म के लोगों को शहीद का दर्जा दिया गया। शहीदों को श्रद्धांजलि के लिए आयोजित सभा में बालमुकुंद वर्मा ने जब एक बार भी मुमताज़ का नाम नहीं लिया तो फुन्नन मियाँ को अपने बेटे की शहादत का दुख होता है।15 देश पर क़ुरबान होने वाले बेटे पर फुन्नन मियाँ को गर्व था। इसलिए कहते हैं कि, “ऐ साहब! हिआँ एक ठो हमरह बेटा मारा गया रहा। अइसा जना रहा कि काई आपको ओका नाम ना बताइस। ओका नाम मुन्ताज रहा!”16
निष्कर्षः हम कह सकते हैं कि आधा गाँव की कथा तत्कालीन समाज की मानसिकता, मुस्लिम संस्कृति, रीति-रिवाज, परम्परा आदि को व्यापक धरातल पर व्यक्त करती है। मुस्लिम समाज का अंतरंग चित्रण कर लेखक ने आज़ादी के पश्चात भारत में रह गये मुसलमानों की अत्यंत निम्न, दयनीय, असहाय और कष्टपूर्ण ज़िंदगी को सम्पूर्ण समाज के सम्मुख रखकर बहुत ही साहसपूर्ण कार्य किया है, परन्तु एक झूठे आवरण में ढँकी मुस्लिम समाज की इज़्ज़त को निर्ममता पूर्वक खींचकर आवरण विहीन भी कर दिया।
संदर्भः-
1. राही मासूम रज़ा, आधा गाँव, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, नौवीं आवृत्ति, 2013, पृ.- 14
2. वही, पृ- 39
3. वही, पृ- 17 व 18
4. वही, पृ- 17
5. वही, पृ- 41
6. वही, पृ- 74
7. वही, पृ- 157
8. वही, पृ- 73
9. वही, पृ- 274
10. वही, पृ- 242
11. वही, पृ- 257
12. वही, पृ- 324
13. वही, पृ- 326
14. वही, पृ- 332
15. वही, पृ- 287
16. वही, पृ- 287
– यासीन अहमद