आलेख
आदिवासी समाज यात्रा: धीरेन्द्र सिंह
आदिवासी शब्द से ही ध्वनित होता है ‘आदिम युग में रहने वाली जातियाँ’। ये मूलतः वे जातियां हैं जो लगभग 5-6 हजार वर्ष पुरानी सभ्यता व संस्कृति को संजोये हुए हैं। मूल रूप से देश के मूल निवासी हैं। इस राष्ट्र की भूमि के असली वारिस हैं। संस्कृति व सभ्यता के निर्माता हैं। वाचिक परम्परा के द्वारा ज्ञान की अपार संपदा को संरक्षित किये हुए अपनी उदार वृत्ति के लिए संसार भर में जानी जाती हैं। आदिवासी लोक में साहित्य सहित अनेक कला माध्यमों का विकास तथाकथित मुख्यधारा से पहले हो चुका था किन्तु उनके यहाँ साहित्य सृजन की परम्परा मूलतः मौखिक एवं वाचिक रही। उसे भी किसी जनभाषा की ही तरह हाशिये का शिकार होना पड़ा। आज भी आदिवासी साहित्य विभिन्न भाषाओं में रचा जा रहा है लेकिन ज्यादातर के बारे में हम संवादहीनता की स्थिति में हैं। इन सारी विशेषताओं के बावजूद भी आदिवासिओं की पड़ताल आज भी जारी है। “आज आदिवासी शब्द के उच्चारण से ही हमारे सामने खड़ा हो जाता है- प्रत्येक सदी से छला,सताया गया, नंगा किया गया और एक सोची समझी साजिश के तहत वन जंगलों में जबरन भगाया गया एक असंगठित मनुष्य अपनी स्वतंत्र परम्परा सहित,सहस्र सालों से गाँव-देहातों से दूर घने जंगलों में रहने वाला संदर्भहीन मनुष्य, एक विशेष पर्यावरण में अपने सामाजिक तथा सांस्कृतिक मूल्यों को जान की कीमत पर संजोकर रखने वाला प्रकृतिनिष्ठ तथा प्रकृति निर्भर मनुष्य, कमर पर वित्ते भर चिंदी लपेटे, पीठ पर आयुध लेकर भक्ष्य की खोज में मारा-मारा भटकने वाला शिकारी मनुष्य। कभी राजनीतिक तथा सांस्कृतिक वैभव से इतराने वाला यह कर्तव्यशील मनुष्य, परन्तु वर्तमान में लाचार, अन्यायग्रस्त तथा पशुवत जीवन यापन करने वाला मनुष्य यही है, उसका कुल जीवन-वेदना से भरा उसका लोकोचार।”1
आदिवासी इस संसार और सृष्टि की सभ्यता और संस्कृति के अभिभाज्य अंग रहे हैं। उनका योगदान सभ्यता के लिहाज से अविस्मर्णीय रहा है। इतिहास की बात करें तो पाएंगे कि प्रागैतिहासिक काल में समस्त मानवता आदिम अवस्था में ही थी। समय और सभ्यता के परिवर्तन तथा विकास के साथ ही अनेक मानव समूह आदिम जीवन शैली से बाहर की दुनिया को भी देखने और परखने लगे। उससे बाहर निकलने की छटपटाहट देखी जाने लगी। आदिवासी प्रजाति खासकर भारत में कब और कहाँ से आई, इसके सन्दर्भ में आदिवासी विमर्श के मर्मज्ञ हरिराम मीणा लिखते हैं- “अब से करीब डेढ़ करोड़ वर्ष पहले हिमालय के उत्तर पश्चिम में अवस्थित शिवालिक पहाड़ियों में रामापिथेकस नामक प्रजाति बसी। यही भारत में आने वाली पहली प्रजाति है। आस्ट्रोलोपिथेकस प्रजाति को आज से करीब 20 लाख वर्ष पहले भारत में आना माना गया है। इन दोनों प्रजाति के बीच में दीर्घकाल के दौरान हुए मानव विकास के संबंध में कोई शोध निष्कर्ष हमारे सामने नहीं है। वर्तमान भारतीय जन नृतत्व विज्ञान की दृष्टि से विभिन्न प्रजातियों के वंशज या मिश्रित संतानों के रूप में हैं।”2
भारत के सन्दर्भ में यदि बात की जाय तो भारतीय समाज व्यवस्था व आबादी की रचना चार मुख्य प्रजातियों एवं संस्कृतियों द्वारा मिलकर हुयी है। पहली आस्ट्रो एसियाटिक जिनमें कोल या मुंडा, खासी या निकोबारी आते हैं। दूसरे मंगोल जिनमें बोडो, कूकी, चिन, नगा आदि आते हैं, तीसरे द्राविणी, जिनमें ओरांव, खोंड और गोंड इत्यादि आते हैं। चौथे आर्य जो भारत की भूमि पर सबसे आखिर में आते हैं। पहली तीनों प्रजातिओं का भारतीय जनसंख्या में महत्त्पूर्ण योगदान रहा है। भारतीय समाज का यदि भाषागत अध्ययन किया जाय तब सर्वप्रथम हमें संस्कृत भाषा से शुरुआत करनी होगी। संस्कृत में आदिवासियों के लिए निषाद, कोल, भील, शबर, किरात और दास, शुद्र, दस्यु, द्रविड़ आदि नामों से अभिहित किया गया है। वेद, पुराण, रामायण, महाभारत आदि ग्रंथों में आदिवासियों का अच्छा-खासा विवरण मिलता है। रामायण में शबरी आदिवासी ही है, जो राम को जूठा बेर खिलाती है। साथ ही यदि महाभारत की ओर दृष्टि डालें तो एकलव्य के रूप में हमें परंपरा दिखाई पड़ती है। एकलव्य के बाद अनेक नाम होंगे जो आज भी उस दीर्घ परंपरा को जीवित बनाये हुए हैं। सच पूछा जाय तो आदिवासिओं के बारे में मानवशास्त्र से लेकर अनेक दूसरे अनुशासनों में जो शोध हुए हैं, उनमें जो बातें निकलकर सामने आई हैं, वे कहीं न कहीं अतिवाद से प्रेरित हैं। कहीं उनको असभ्य, बर्बर, जंगली रूप में दिखाया गया है, तो कहीं उन्हें देवता स्वरूप प्रस्तुत किया गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे आदिवासियों में किसी प्रकार का विभेद है ही नहीं। संतुलन व तटस्थता का नितांत अभाव दृष्टिगत होता है। “आदिवासियों का इतिहास और उनका नृतत्वशास्त्र अधिकांशतः उन लेखकों द्वारा लिखा गया जो औपनिवेशिक शासकों की सेवा में नियुक्त थे। उन्होंने जनजातिओं द्वारा किए गए कार्यों के विनाशक पहलुओं पर जोर दिया तथा व्यापार, खोज और राजनीतिक व सांस्कृतिक संस्थाओं में उनके योगदान की उपेक्षा करते हुए एक ईएसआई तस्वीर खींची जो अधूरी और विकृत थ।|परिणाम यह हुआ कि आदिवासी जीवन को लेकर आम धारणा आज भी काफी धुंधली और एकपक्षीय है। एक ओर आदर्श तो दूसरे सिरे पर भ्रष्ट।”3
भारत के प्राचीन ग्रंथों के अध्ययन से तब पता चलता है कि जब अप्रवासी आर्यों ने देश में प्रवेश किया तो देश में रहने वाले आर्यों को उन्होंने दस्यु की संज्ञा दी। दस्यु अर्थात वे लोग जो आर्यों से अलग थे। वैदिक समय में अनार्यों के दो समुदाय थे- द्रविड़ और कोलार, जिनका प्रमाण आज के मुंडा और संथाल के रूप में देख सकते हैं, जो अनार्य कोलरों की संतान हैं। चूँकि आज भी दक्षिण के पठार और भारत के मध्य भाग में खोजें तो द्रविड़ प्रजाति के लोग मिलते हैं। गोंड,खोंड आदि द्रविड़ों की मुख्य प्रजातियाँ हैं। वेदों से लेकर अनेक ग्रंथों, पुराणों व संहिताओं में जनजातीय समाज के प्रमाण मिलते हैं। “ऋग्वेद में कई दस्यु योद्धाओं के नाम हैं। ब्राह्मण ग्रन्थ, पुराणों और संहिता में निषाद, कोल और असुर जैसी अनार्य जनजातियों के उदभव के मिथकों का वर्णन दिया गया है। रामायण में राक्षस, वानर, निषाद गृद्धराज, शबर यक्ष और नाग जनजातियों का उल्लेख है। महाभारत में भी किरात, आन्ध्र मद्र, सवर और पौन्द्र समुदायों का उल्लेख है।”4
दरअसल पहली बार सन 1891में व्यवसाय के आधार पर जनगणना का आयोजन भारत में हुआ। तद्पश्चात 1931 में जाति आधारित जनगणना हुई। इसी में कुछ आदिवासी समूहों को पहचाना गया। स्वतंत्रता के बाद 1950 में कुल 212 आदिवासी समुदायों की पहचान की गई, जिसका प्रमुख आधार सामाजिक तथा आर्थिक पिछड़ेपन को बताया गया। फलस्वरूप पिछड़ी जाति आयोग काका कालेलकर के नाम पर बनाया गया। इस आयोग ने प्रशंसनीय कार्य किया तथा विभिन्न पिछड़ी जातियों को पहचानते हुए उन्हें अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति में वर्गीकृत किया। इसी आयोग की सिफारिश पर राज्य पुनर्गठन कानून लागू किया गया और आदिवासी समूह को प्रांतीय आधार पर 1956 में अनुसूचित श्रेणी में शामिल किया गया। यह एक महत्त्पूर्ण पहल थी आदिवासियों को विधिक मान्यता के निमित्त। “सन2001 की जनगणना के मुताबिक आदिवासियों की कुल तादाद 8 करोड़ 20 लाख थी। भारत के आदिवासियों में सीमान्त आदिवासी करीब 11प्रतिशत हैं जो पूर्वोत्तर के राज्यों तथा हिमालय पर्वत श्रृंखला के इर्द-गिर्द बसे हुए हैं,शेष 89 प्रतिशत आदिवासी अन्य प्रान्तों में हैं जो उन राज्यों की कुल जनसंख्या का मध्यप्रदेश में 23 प्रतिशत, उड़ीसा 22 प्रतिशत, राजस्थान 12 प्रतिशत, बिहार 8 प्रतिशत, गुजरात 14 प्रतिशत, दादरा-नगर हवेली 79 प्रतिशत एवं लक्षद्वीप 94 प्रतिशत है।”5
मनुष्य के सामाजिक इतिहास को देखें तो पाएंगे कि समाज के सदस्य के रूप में उसका विकास छोटे-छोटे कवीलों से प्रारंभ होता है।अपने अस्तित्व की रक्षा के निमित्त उसे लम्बे समय तक कठिन दौर से गुजरना पड़ा। इस संघर्ष से उसने अपने ज्ञान व अनुभव कौशल में वृद्धि की,एक संगठनात्मक शक्ति विकसित क।|जो विषम परिस्थितिओं में उसके लिए सहायक सिद्ध हुई। आदिवासी समाज में हुए परिवर्तन की प्रक्रिया को समझने के लिए मनुष्य के इतिहास के परिवर्तन के टूल्स को समझना होगा। विकास को सामान्य अर्थों में हम सर्वोत्तम उपभोग तथा एक अच्छी गुणवत्तापूर्ण जीवन शैली के रूप में देखते हैं। आदिवासियों को भी स्वस्थ जीवन मिलना चाहिए चूँकि वह भी हमारे ही समाज व्यवस्था के एक अंग हैं। उनकी आवश्यकताओं का भी ख्याल रखना होगा। डॉ.ब्रह्मदेव शर्मा की चिंता जायज ही ठहरती है- “हमारे देश में पश्चिमी भील अंचल जैसे कुछ आदिवासी क्षेत्रों में पारिस्थितिकी संतुलन इतना बिगड़ चुका है कि उनके परम्परागत परिवेश से इन न्यूनतम आधारभूत आवश्यकताओं का पूरा होना भी अब संभव नहीं रहा है। उच्चतर व्यक्ति कौशल स्थानीय अर्थ व्यवस्था के विविधीकरण से ही संतुलन की पुनर्स्थापना की जा सकती है, जिसके लिए अविलम्ब कारगर नियोजन आवश्यक है।”6
किसी भी व्यक्ति या समाज के विकास की यदि बात करते हैं तब कई पहलुओं को लेकर बात की जानी चाहिए। सर्वप्रथम इस बात पर विचार होना चाहिए कि उक्त समाज में अपने पूर्व की अवस्था से कितना विचलन हुआ। क्या समाज की वर्तमान स्थिति पूर्व जैसी ही रही या उसमें कुछ बेहतरी आई। समाज के सदस्यों के जीवन स्तर में कितना सुधार हुआ। आर्थिक पक्ष में उन्नति का प्रतिशत कैसा रहा। समाज अपने समकक्षी दूसरे समाज से किन-किन मुद्दों पर समानता के नजदीक आया। राजनीतिक क्षेत्र में भागीदारी का स्तर क्या रहा ? सामाजिक पक्षधरता के स्वरूप में कितनी बढ़ोत्तरी हुई। समाज का सर्वतोन्मुखी विकास कितना हुआ? गरीबी और अशिक्षा में कमी किन किन कारणों से आई, उन समस्त कारणों की पड़ताल की जानी चाहिए। आर्थिक पक्ष के सन्दर्भ में बात करें तो पाएंगे कि हम सामान्य तौर पर कह देते है आदिवासी आर्थिक रूप से बहुत ग़रीब है। जबकि गरीबी एक अलग ही अवधारणा है,जिसका आदिवासी से कोई दूर-दूर तक का लेना देना नहीं है। हाँ,यह एक अलग बात है कि कुछ स्थान ऐसे हैं जहाँ जीवन की मूलभूत आवश्कताओं तक के लिए घोर संघर्ष करना पड़ रहा है। किन्तु जो आदिवासी समुदाय अभी भी दुर्गम जगहों पर है। वहां प्राकृतिक संसाधन इतने पर्याप्त हैं कि उनकी मूलभूत आवश्यकताएं आसानी से पूरी हो जाती हैं। जिसे हम तथाकथित सभ्य समाज अपनी सभ्यता मानते हैं आदिवासी उस दिखावे की संस्कृति को अस्वीकार करता है। उदाहरण के लिए अबूझमाड़ियों की आर्थिक स्थिति का अपने मानकों के अनुसार वर्णन करना अज्ञानता का द्योतक हो सकता है,जैसा कि डॉ.ब्रह्मदेव शर्मा ने लिखा है- “अबूझमाड़ियों की संख्या लगभग 13000 है और 1500 वर्गमील विस्तृत अबूझमाड़ क्षेत्र पर उनका लगभग एकांत आधिपत्य है। दूसरे शब्दों में एक औसत परिवार के हिस्से में लगभग आधा वर्गमील भू खंड आता है और भी वहां नैसर्गिक संसाधन समृद्ध हैं। क्या हम कह सकते हैं कि यह परिवार गरीब है? अबूझमाड़िया लगभग बिना कपड़ों के ही रहते हैं। परन्तु कम कपड़े पहनना ग़रीबी का द्योतक नहीं है,वह उनकी नैसर्गिक स्थिति में जीवन यापन का तौर तरीका मात्र है। वहां पर यदि किसी बालिका को अपने वक्षस्थल को ढ़कने के लिए वस्त्र पहनने के लिए कहा जाये तो वह शरमाती है और उसे अटपटा लगता है।….शायद आदिवासी हमारे परिधान के असंगत तौर तरीकों को देखकर आश्चर्य करते हों कि हम इतना अनावश्यक लबादा क्यों लादे हैं।”7
आदिवासियों के निमित्त भारतीय संविधान के अध्ययन पर ध्यान दें तब पाएंगे कि संविधान की पांचवीं अनुसूची में आदिवासियों को जनजातियों के रूप में परिभाषित किया गया है। जिसका प्रमुख उद्देश्य हजारों वर्षों से शोषित, वंचित, दबे कुचले आदिवासियों को समाज की मुख्यधारा से जोड़कर उनमें सामाजिक एवं राजनीतिक समानता लानी है, जिससे कि स्वतन्त्र भारत की आत्मा के अनुरूप सभी समाजों में समरसता लायी जा सके और संविधान निर्मात्री समिति के अध्यक्ष बाबा भीमराव अम्बेडकर के सामाजिक सपने को मूर्त रूप दिया जा सके। अम्बेडकर ने सामाजिक समानता लाने के लिए संविधान की धारा 15(4)और 16(4)में आदिवासियों के लिए सरकारी नौकरियों और शासन के समस्त प्रतिष्ठानों में आरक्षण का प्रावधान रखा था। उसमें उल्लखित किया गया है कि जब तक समाज में पूर्णरूपेण सामाजिक समानता नहीं आ जाती, तब तक आरक्षण का प्रावधान यथावत रहेगा। अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए भारतीय संविधान में कुछ मानक निर्धारित किये गए हैं, जिनका पालन किया जाना आवश्यक है। मानकों में- “भौगोलिक एकीकरण, विशिष्ट संस्कृति, पिछड़ापन, संकुचित स्वभाव, आदिमजाति के लक्षण आदि सम्मिलित हैं। जिसके प्रामाणिक स्रोत का बहुत बड़ा आधार साहित्य पर निर्भर है। वर्तमान भारत में लगभग चार सौ इकसठ जनजातियाँ हैं, जो राष्ट्र के अलग-अलग क्षेत्रों में बटी हुई हैं।”8
दरअसल किसी भी समाज का वास्तविक जीवन उसकी अपनी कुछ मान्यताओं पर टिका हुआ होता है, चाहे वह समाज प्रगतिशील हो या आदिम। प्रत्येक समाज अपने जीवन मूल्यों को विकसित करने के लिए अपने अनुभवों का सहारा लेता है। आदिवासी समाज धर्म के मूल तत्व टोटम, तैबू, जादू, बहुदेववाद, बलि प्रथा जैसी प्रथाओं पर टिका हुआ है। इनका भूत-प्रेत पर पूर्ण भरोसा होता है। ये प्रकृति के समस्त अवयवों में ईश्वर की छवि देखते हैं। आदिवासी समाज की धार्मिक मान्यताएं, अनेक धार्मिक त्यौहार, कृषि कार्य प्रणाली, किंवदंती के अंशों से लेकर दैनिक जीवन में परिलक्षित होती है। इनकी चिकित्सा भी भूत-प्रेत झाड़फूक के माध्यम से होती है। किन्तु समय के साथ ही साथ आदिवासियों की मान्यताओं में भी परिवर्तन देखने को मिल रहा है- “आदिवासी समाज की बदलती हुई मान्यताएं परिवर्तन का एक महत्त्पूर्ण कारक हैं। इस समाज के बदलते हुए मूल्यों में प्रमुख रूप से धार्मिक प्रचारकों का योगदान रहा। समाज सुधारकों एवं धर्म प्रचारकों के प्रवेश से कुछ जातिओं ने उनके गुणों को ग्राह्य किया। जबकि कई जातिओं ने अपने परम्परागत मूल्यों को नहीं त्यागा।”9
आदिवासियों के बारे में जैसा की एक आम धारणा बनी हुई है कि उन्हें अपनी जमीन से बहुत लगाव है। यह सिर्फ आदिवासियों के लिए ही सत्य नहीं है बल्कि कोई भी व्यक्ति जहाँ, वह अपने परिवार और समाज के साथ रहता है उसका जुडाव या लगाव मात्र उस जमीन से ही नहीं होता अपितु वह उसकी अस्मिता, अस्तित्व और पहचान की आधारभूत इकाई होती है। सर्वप्रथम व्यक्ति की पहचान उसकी जमीन या परम्परा से होती है। वही उसके वृहत्तर आयाम को निर्धारित करती है। जमीन का टुकड़ा ही है, जो पहले परिवार, गाँव, जिले से शुरू होकर क्षेत्र, प्रदेश, देश और फिर व्यापक पैमाने पर एशिया, अफ्रीका, आस्ट्रेलिया इत्यादि के रूप में जाना जाता है। धीरंजन मालवे लिखते हैं, “जमीन का वह टुकड़ा क्षेत्रीय पहचान भर नहीं है।मानव सभ्यता और संस्कृति के विभिन्न तत्व भी उसी जमीन के टुकड़े की सोंधी मिट्टी में पनपते हैं, रीति रिवाज, खान-पान, लोक-संगीत, लोक-नृत्य, लोक-कलाएं, भवन निर्माण शैली, वेश-भूषा, तीज-त्यौहार इत्यादि। जमीन का वह टुकड़ा न केवल हमें बसाता है, बल्कि वह स्वयं भी हमारे अन्दर पहुँचकर बस जाता है, किसी विशाल वट वृक्ष के फैलाव और गहराई के साथ।”10
वर्तमान आदिवासी समाज अपने को विकसित करने के लिए अंधविश्वास, परम्परागत कठोरता, कार्य संस्कृति, राजनितिक एवं धार्मिक मूल्यों में परिवर्तन करने लगा है।उसमें भी चेतना का संचार होने लगा है। वह अब अपनी उद्यमिता शक्ति के बल पर दूसरी धारा के व्यक्तियों को चुनौती देने लगा है। साथ ही अपने समाज के लोगों को सचेत रहने की सीख भी दे रहा है। डॉ. सी.बी. भारती के शब्दों में- “घबराओ नहीं/ समय आ गया है/ जब हम भी बदेंगे तुमसे/ दौड़ने की शर्त/ जीतने की बाजी/ तोड़ेंगे तुम्हारा दर्प/ सुनो|परिवर्तन की सुगबुगाहट/ हवा का रुख/ पहचानो! पहचानो! पहचानो!”11
संदर्भ सूची:
1. डॉ. एम. फ़िरोज अहमद– (सं.) वांग्मय त्रैमासिक पत्रिका, जुलाई 2013. अलीगढ़, पृष्ठ संख्या- 67
2. हरिराम मीणा- आदिवासी दुनिया, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, दिल्ली, पृष्ठ संख्या-9
3. गंगा सहाय मीणा- (सं.) आदिवासी साहित्य विमर्श, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स (प्रा.) लिमिटेड, नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या-19-20
4. डॉ.सुरेश मिश्र- उन्नीसवीं सदी में भारत में आदिवासी विद्रोह, स्वराज संस्थान संचालनालय, मध्यप्रदेश, पृष्ठ संख्या- 6-7
5. हरिराम मीणा- आदिवासी दुनिया, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, दिल्ली, पृष्ठ संख्या-10
6. डॉ.ब्रह्मदेव शर्मा- आदिवासी विकास एक सैद्धांतिक विवेचन, मध्यप्रदेश हिंदी ग्रन्थ अकादमी, पृष्ठ संख्या- 4
7.वही, पृष्ठ संख्या 4-5
8. आर.के.मीणा- अस्मिता का सवाल, रविवारी जनसत्ता, 23 मार्च 2014, पृष्ठ संख्या- 3
9. डॉ.नवीन नंदवाना- (सं.) समवेत, अर्धवार्षिक पत्रिका, अंक- 3, जुलाई 2014, हिमांशु पब्लिकेशन्स, नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या- 126-127
10. लीलाधर मंडलोई- (सं.) नया ज्ञानोदय, साहित्य वार्षिकी, जनवरी 2016, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या-19
11. डॉ.रेनू वर्मा- साहित्यिक निबंध, राजस्थान हिंदी ग्रन्थ अकादमी, जयपुर, पृष्ठ संख्या- 421
– धीरेन्द्र सिंह