“…आदमी के भीतर पल रहे आदमी का यही सच है!….. आदमी होने का सुख भी यही है।” (भाग -1)
ज्योति खरे, कठिनाइयों से भरे एक संघर्षपूर्ण जीवन पर विजय पाने की जीती-जागती मिसाल ! एक ऐसा बचपन, जिसे समय से पूर्व ही समझदारी की चादर ओढ़नी पड़ी; एक ऐसा युवा जो वक़्त के सिखाने के पहले ही दुनियादारी सीख चुका था; एक ऐसा पति जिसे गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने के कई वर्ष पहले से ही जिम्मेदारियाँ निभाना और घर चलाना बख़ूबी आ गया था ! एक ऐसा कवि जिसने हर दर्द, हर तक़लीफ, हर समस्या को क़रीब से देखा, समझा और शब्दों में पिरोता रहा। उनके कठिनाई भरे जीवन और जुझारूपन के बारे में कोई प्रश्न करे तो बड़े ही सहज भाव से उत्तर मिलता है “…आदमी के भीतर पल रहे आदमी का यही सच है। और आदमी होने का सुख भी यही है।”
ज्योति खरे जी के प्रारंभिक जीवन की जानकारी नेट से जानने के बाद, उस पर कोई बात करने से बचना चाहती थी मैं, या यूँ कहूँ कि मेरी हिम्मत ही जवाब दे गई थी। सोचती थी, पुरानी बातें क्यों छेड़ूँ पर उनके सरल, सहज और मिलनसार स्वभाव ने मेरी हर मुश्किल आसान कर दी। स्वयं को दादा कहलाना पसंद करने वाले ज्योति खरे जी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर एक विस्तृत चर्चा –
प्रीति ‘अज्ञात’- मानवीय प्रवृत्ति ही कुछ ऐसी है कि सब कुछ होते हुए भी वह उसमें खोट निकालकर अपने दुख का बहाना ढूँढ लेता है और फिर खुशी की तलाश में उम्र-भर भटकता रहता है। जब आपके बारे में जानकारी प्राप्त की तो महसूस हुआ कि संघर्ष होता क्या है और उस पर कैसे विजय प्राप्त की जाती है। आप, आज की पीढ़ी के लिए एक प्रेरणा हैं, अगर आपकी अनुमति हो तो पत्रिका परिवार आपके प्रारंभिक जीवन और उससे जुड़ी कठिनाइयों को हमारे पाठकों के साथ साझा करना चाहेगा, जिससे उन्हें मुश्किलों से जीतकर आगे बढ़ने का प्रोत्साहन मिले।
ज्योति खरे- धन्यवाद ! मेरा सौभाग्य होगा कि मैं अपनी कहानी आपके साथ साझा कर सकूँ. प्रारंभिक दिनों से ही बताता हूँ… मेरा पूरा बचपन ही संघर्ष पूर्ण रहा है, जब मैं 1966 में घमापुर माध्यमिक विद्यालय जबलपुर में कक्षा चौथी में पढता था, उन दिनों पापा की दिमाग की एक नस ने काम करना बंद कर दिया था, पापा रेलवे में स्टीम लोको में कार्य करते थे,उन्होंने नौकरी में जाना बंद कर दिया था, मैं घर का सबसे बड़ा था और मुझसे छोटी दो बहने और दो भाई थे। घर की हालत बहुत खराब हो गयी थी, पापा के एक दोस्त थे यशवंत राव, उनसे मैंने कहा चाचा मुझे कहीं काम दिलवाओ उन्होंने मुझसे कहा ठेला चलाकर पंखे बेचोगे, उन दिनों कूलर और बिजली के पंखों का चलन कम था, बिजली भी सभी घरों में नहीं हुआ करती थी, इलाहाबाद के प्रसिद्ध खजूर के हाथ वाले पंखों की बड़ी धूम हुआ करती थी, फिर क्या था मैंने हाँ कर दी और हथठेला में रखकर फेरी लगाकर २५ पैसे ५० पैसे के पंखे बेचने लगा। घर की यह स्थिति हो गयी थी कि अम्मा के जेवर बिक गए यहां तक कि बर्तन बेचने की नौबत भी आ गई थी। फिर मैं पांचवीं में पहुंचा प्रत्येक रविवार को खमरिया में बाजार लगता था वहाँ पर फोटो फ्रेम बेचने जाने लगा। पापा जब थोड़ा ठीक हुए तो उनका ट्रांसफर कटनी हो गया, हम लोग नयी कटनी आ गये। नयी कटनी, शहर से 6 किलोमीटर दूर है, हालत यह थी कि जब यहाँ घर में पहली बार रोटी के लिए आटा गूँधा गया था तो उसके लिए भी बर्तन नहीं था। मैं सातवीं में था, फिर यहां शहर से डबल रोटी, दूध की बोतल, अखबार लाकर बेचना शुरू किया, धीरे धीरे सब ठीक होने लगा।
लेकिन मैं काम धंधा करता ही रहा और भाई बहनों को पढ़ाता रहा। चाय की दुकान खोली, चाट का ठेला लगाया,कपडे की दुकान में नौकरी की और इसी दौरान 1975 में प्राइवेट हायर सेकेंडरी की परीक्षा पास की। पढाई बंद कर दी, पैसे कमाता रहा, घर चलाता रहा पापा की छोटी सी नौकरी थी वेतन कम और घर के प्रति लापरवाह भी थे। फिर 1983 में बी.ए. और 1985 में हिंदी साहित्य में एम.ए. किया। इन सबसे समय निकाल कर मैं टेबल टेनिस भी खेलता था, अच्छा खिलाड़ी भी था, क्रिकेट भी अच्छा खेलता था,यही रेलवे की टीम से खेला करता था। साथ ही रेलवे में टेम्परेरी नौकरी करता था। इस बीच 12 मार्च 1982 को मैं डीज़ल शेड नयी कटनी में खलासी के पद पर परमानेंट हो गया।
प्रीति ‘अज्ञात’- अपने जीवन का ये महत्वपूर्ण हिस्सा साझा करने के लिए आपको पुन: नमन दादा! सुना है, आपके विवाह की कहानी भी बड़ी रोचक रही है!
ज्योति खरे- जी, इसमें मेरी पत्नी का बहुत योगदान रहा है क्योंकि वे मुझे बहुत पसंद करती थी और अभी भी करती हैं। पर यह बात मुझे शादी के बाद पता चली कि वे ही चाहती थी मुझसे विवाह करना। 13 फ़रवरी 1986 को मेरा सुनीता से विवाह हुआ। वे यहीं नयी कटनी के रेल अधिकारी की बिटिया और मेरी छोटी बहन की सहेली भी थीं। उन दिनों मैं रेलवे में चतुर्थ श्रेणी का कर्मचारी था, लोगों ने मेरे ससुर से बहुत कहा कि आप अधिकारी और दामाद गरीब और छोटी सी नौकरी! मेरे ससुर ने कहा मैं एक कर्मशील से अपनी बिटिया की शादी कर रहा हूँ।
प्रीति ‘अज्ञात- आपका वैवाहिक जीवन हमेशा यूँ ही खुशहाल रहे ! साहित्य के लिए आप अपनी माँ को प्रेरणा-स्त्रोत मानते रहे हैं न !
ज्योति खरे- बिलकुल सही, मेरी माँ श्रीमती प्रमिला देवी खरे मेरी पक्की सहेली और प्रेरणा-स्त्रोत रही हैं। अम्मा साहित्य रत्न है, संघर्षों से लड़ना जानती हैं। गरीबी में भी उन्होंने मुझे सही राह दिखाई,लड़ना सिखाया बेहतर संस्कार दिए। वे बहुत समृद्ध खानदान की हैं पर विवाह के बाद आज तक मायके नहीं गयी क्योंकि जब हम गरीबी से जूझ रहे थे और छोटे थे तो हमारे मामा जी ने अम्मा से कहा कि तुम मायके आ जाओ। अम्मा ने कहा “नहीं, मैं यहीं रहूंगी जो भोगना है भोगूँगी” तो मामा जी ने कहा ठीक है अब तुम मायके तब आना जब हमारी बराबरी की हो जाओ और अम्मा आज तक नहीं गयी। अब जब सब ठीक हो गया फिर भी नहीं गयी। साहित्य उन्हीं की देन है।
प्रीति ‘अज्ञात’- लेखन की शुरुआत कैसे हुई? सृजनात्मक कार्य के लिए एकांत और समय दोनों ही आवश्यक हैं, आप इतनी कठिनाइयों के बीच यह सब कैसे कर सके?
ज्योति खरे- लिखने-पढने की रूचि तो बचपन से ही थी, नयी कटनी जहां हम रहते हैं, यहाँ रेल मनोरंजन गृह में बढ़िया पुस्तकालय है, जब समय मिलता था वहीं जाकर पढता था। कुछ-कुछ लिखता भी था पर बहुत बेकार-सा! बात 1975 की है मैं रेलवे में अस्थायी तौर पर मजदूरी करता था। उन्ही दिनों एक लघु कथा लिखी थी और उसे सारिका में भेज दिया था। उस दौर में कमलेश्वर जी (जो सारिका के सम्पादक थे) ने नयी कहानी और नयी कविता का आन्दोलन चला रखा था। वे युवा लेखकों को महत्व देते थे। भाग्यवश मेरी लघुकथा सारिका में प्रकाशित हो गयी। मित्रों ने तो बहुत मजाक उड़ाया पर अम्मा और भाई बहन, पापा बहुत खुश हुए थे। लिखने का सिलसिला चल पड़ा फिर कवितायें लिखी, धर्मयुग,साप्ताहिक हिन्दुस्तान, कादम्बनी जैसी कई पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ। साहित्य और संगीत जीवन का शाश्वत सच है जो जीवन को सृजनशील बनाता है और सृजन को जिन्दा रखने के लिए समय कोई मायने नहीं रखता। पढना और लिखना संघर्षों के दिनों का सबसे अच्छा साथी होता है,जो लम्बी रातों में आपके साथ जागता है, यही वह वक़्त है जब बेहतर लिखा जाता है, बेह्तर सोचा जाता है।
प्रीति ‘अज्ञात’- जैसा कि हमें ज्ञात ही है कि आपकी रचनाएँ मूलत: जीवन से जुडी होती हैं कविता के अलावा आप कहानियाँ, व्यंग्य और आलेख भी लिखते रहे हैं. पर इस सबका विरोध करने वाले भी ख़ूब रहे होंगे? किसी की दी हुई कोई सलाह याद है आपको?
ज्योति खरे- जीवन के हर क्षेत्र में अकेला ही बढ़ा हूँ ,सलाह कौन देता, अपमान करने वाले बहुत रहे हैं। लिखने के दौरान बहुत सारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है। लोग कहते थे “गरीबी में जीवन जी रहे हो और लिख रहे हो कविता ? ज्योति बाबू पेट भरो पहले फिर लिखना और कविता क्यों लिखते हो, पहले कुछ पढ़ लो नौकरी कर लो तो कुछ बन जाओगे” इन्हीं दिनों एक कहानी लिखी थी एक रिक्शे वाले के ऊपर “लालटेन बुझ गयी” जो आकाशवाणी से प्रसारित हुई थी, फिर “सहमे हुए दर्द” एक नर्स और एक शिक्षक के प्रेम पर आधारित थी। फिर “पीड़ा का हिमालय लुढ़क गया” जो अनजान भाई बहन पर लिखी थी, प्रसारित हुई थी।
पर उन दिनों एक लड़की शशि मुझे बहुत चाहती थी। बहुत सुंदर थी, अच्छे परिवार की थी,मुझे आर्थिक मदद भी करती थी। वह हमेशा कहती थी, लिखा करो। मैं भी उसके लिए प्रेम कवितायें लिखा करता था। हम दोनों अक्सर पत्रों में ही बातें किया करते थे। इन पत्रों में प्रेम नहीं जीवन की वार्ता होती थी, कुछ दुःख, कुछ सुख लिखे होते थे। वह दौर ही बहुत सुंदर,शालीन और संस्कारी रहा है, प्रेम का अर्थ केवल प्रेम ही हुआ करता था, ऊँगली भी नहीं पकड़ी जाती थी, दूर से ही हलकी फुलकी बात करो, प्रेम पत्र का आदान प्रदान करो और निकल लो अपनी-अपनी गली।1980 में उसकी शादी हो गयी और मैं पुनः अपनी औकात में आ गया, सारे प्रेम पत्र उसके दिए हुए रुमाल में बांधकर रख दिए गए। दो साल भटकता रहा, इस बीच बी.ए. का प्राइवेट फार्म भर दिया, रेलवे में भी स्पोर्ट कोटे की चतुर्थ श्रेणी की पोस्ट निकली और मैं 1982 में रेलवे में भर्ती हो गया।
प्रीति ‘अज्ञात’- आपके साहित्यिक जीवन की सही मायनों में शुरुआत कब हुई?
ज्योति खरे- 1984 में म.प्र साहित्य परिषद ने युवा रचनाकारों को लेकर पचमढ़ी में रचना शिविर का आयोजन किया। मुझे भी आमंत्रण मिला, मैं बेहद खुश हुआ। वहाँ पर ज्ञानरंजन, राजेश जोशी, कमलापांडे, भगवत रावत, उदय प्रकाश,धनंजय वर्मा स्थापित और वरिष्ठ साहित्यकारों के बीच दस दिन गुजारे, रचनाओं पर व्याखान सुने और रचना का विधान बुनना सीखा। इसके बाद रचना लिखने की दशा और दिशा ही बदल गयी नयी सोच की कवितायें लिखने लगा,प्रेम की कवितायें या गीत हाशिये पर आ गए,और कवितायें समकालीन साहित्य की पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी। प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़ा,पाठक मंच का संयोजक बना।
प्रीति ‘अज्ञात’- जो लोग काफ़ी पहले से ही लिखना प्रारंभ कर देते हैं, उनकी लेखनी किसी-न-किसी कारण कुछ वर्षों के लिए मौन हो जाती है. क्या आपके साथ भी ऐसा हुआ?
ज्योति खरे- हाँ, जब गुटबाजी और केवल मंचो पर कविता पढ़ने की लोगों की विचारधारा से मन उकता गया तो बीच के कई सालों तक साहित्य से दूर रहा पर लिखता पढता रहा। फेस बुक से जुड़ा बहुत से अच्छे मित्र बने, भाई बने, बहनें बनी और साहित्य सृजन का नये सिरे से संचार हुआ।
प्रीति ‘अज्ञात’- नये-पुराने दौर का कोई रचनाकार, जिसने आपको सर्वाधिक प्रभावित किया!
ज्योति खरे- यह बता पाना मुश्किल है कि कौन पसंद है और कौन नहीं! जो लिखा जा रहा है बहुत बढ़िया है, बस आत्मसात करने का नजरिया है। सब बेहतर लिखते हैं साहित्य और संगीत ऐसी विधा है जिसमें “क्लासिफिकेशन” नहीं होता, सब “क्लासिक” होता है। पुराने दौर से हम सीखते हैं और नये दौर से यह जानते हैं कि नया किस तरह हो रहा है।
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– प्रीति अज्ञात