पिछले अंक के मेरे लेख में आपने वरपक्ष के परिवार में वधूपक्ष की अनुचित दखलअंदाजी के बाबत पढ़ा था। जिसका अगला हिस्सा और दूसरा पक्ष मैं इस लेख में आपके समक्ष रख रही हूँ।
कोई भी कन्या जब गठबंधन और फेरों, माँगभराई, बिछिआ दबाई के बाद नवविवाहिता बनती है तब उन रीति-रिवाजों, परम्पराओं के पूर्ण होने की प्रक्रिया में उसके मन के भीतर भारी चक्रवात उमड़ रहे होते हैं। उसके भीतर उत्सुकता के संग असमंजस,खुशी के संग अनजाना भय,स्वीकार्यता के संग अस्वीकार्यता के संशय भाव लुकाछिपी खेल रहे होते हैं।
ऐसी स्थित अमूमन गृहस्थाश्रम में प्रवेश करती हर लड़की के समक्ष पानी के बुलबुले सी खड़ी होती होगी ! इस पल वो देख रही होती है एक कोमल दूर्वा पर पड़ी ओस की बूँद से स्वप्न जो कब ढुलक कर मिट्टी में समा जायें कुछ पता नहीं।
गृहप्रवेश के बाद छापे लेता,कंकण खुलवाने के समय खूब हँसी-मजाक के खेल खिलवाता,मुँहदिखाई के समय नेग- उपहार देता,बधाये-बँटौने करवाता परिवार कितनी ही कन्याओं के जीवन में मियादी मुखौटे से बंधा होता है। मियाद खत्म तो वो रौनक और चहलपहल का मुखौटा भी घूरे में धूल धूसरित हो रहा होता है।
ससुराल पक्ष छोटा हो या बड़ा,अधिकांश लड़कियाँ उसे संभालने,सजाने की जुगत लगाती रहती हैं। हालाँकि एक हाथ में जैसे उंगलियाँ समान नहीं होतीं,फूल में पंखुडियों का विन्यास जुदा होता है, ठीक वैसे ही परिवारियों के व्यवहार, विचार सभी एक समान नहीं होते हैं।
जिस तरह वधूपक्ष की जिम्मेदारी होती है कि अपनी बिटिया को उसके होने वाले ससुराल की तरफ़ कोमलता से मोड़ें, समझायें कि उसे भी अपनी समझदारी से,संयम से,हँसी-किलकारी से,सुघड़ता से पोषित करे व पूरे दिल से उसे अपना ले।
ठीक उसी तरह वरपक्ष की भी जिम्मेदारी होती है, बल्कि अनुपात में कुछ ज्यादा ही होती है कि जो कोमलांगी कन्या अब तक अल्हड़,मनमौजी,निर्णयों में अपने परिवार के साथ या कि हस्तक्षेप के वृत्त के बीच घूम रही थी, वह अपने वयस्क होने तक के उन बेहद करीबी सालों से सिंचित रिश्तों-सम्बन्धियों,घर-दीवारों,सुविधाओं, स्वतंत्रता आदि को छोड़कर आपके घर की एक नयी सदस्या बनकर आपके घर को अपनी रौनक से सजाने आ रही है, तो उसे आपको उसी तरह प्रगाढ़ आत्मीयता से उसे अपनाना भी चाहिये। वो परिवार के विछोह में आत्मिक कष्ट को झेलते हुये भी आपके लिये मुस्कानों की कलियाँ उगाती है तो आपको उस पर स्नेहवर्षा का जल छिड़कना होगा,ताकि वो मुरझाए ना।
भान रहे कि आपका बेटा घर छोड़कर नहीं गया, वो बिटिया अपना सब कुछ पीछे छोड़कर आपकी देहरी की मान-मर्यादा को अपनाने को आई है,तो उसे उसी खुले मन से आपको भी स्वीकारना होगा। यही नहीं हमें बेटों को भी पाठ पढ़ाने होंगे कि अपनी अर्धांगिनी को सर्वोच्च सम्मान दें, उसकी अनमनी-अनकही को समझने का प्रयास करें। वो जिस तरह और जितना आपके परिवार को अपनाकर उसे हर परिस्थिति में संभाल रही है, वे भी उसके परिवार के निमित्त सम्मान व अनुकूल प्रतिबद्धता रखें।
बहू से जब आप बेटी बनने की उम्मीद रखते हैं, तो बेटे भी बेटे बनकर रहें, दामादों वाले तेवर और माँगों पर लगाम कसें।
समझती हूँ कि हर रिश्ते की सीमायें,आवश्यकतायें व नाम होते हैं। सास को सास ही रहने दें,लेकिन सास जैसे बेटे की माँ है,ठीक वैसे ही बहू की माँ जैसी तो बन ही सकती है! ससुर पिता जैसे हर वो रिश्ता जो वह लड़की मायके के देहरी के भीतर छोड़ आई है, वो हूबहू नहीं लेकिन ठीक वैसा ही रिश्ता,उन्हीं मृदुल अहसासों के साथ यदि वो ससुराल के भीतर भी पा सकेगी तो परिवारों के विखण्डन की दर कम हो सकेगी ,क्या लगता है आपको?
इस मामले में सूरज बड़जात्या मुझे हमेशा ही सपनों के सौदागर जैसे लगे,उन्होंने जन-साधारण के रिश्तों के बीच की नब्ज़ टटोली और अपनी फिल्मों में वही टोनिक व मरहम दिये जो उस नब्ज़ को स्वस्थ रखने के लिये आवश्यक थे। वह जानते हैं कि घरों में,सम्बन्धों में क्या और कौन सी कमी है, जिसे सपनीले पर्दे के माध्यम से कुछ घंटों के लिये ही सही,उन घावों सहलाया जा सकता है। इसी व्यवसायिक कूटनीति ने उन्हें ब्लॉकबस्टर में सदैव ऊपर रखा।
लेकिन मुझे हमेशा मन में एक प्रश्न आता रहा कि शो बिजनेस से इतर हम बहुसंख्यक लोग इतनी छोटी सी बात कभी नहीं समझ सकते, कभी उसके समाधान की सूक्ष्म कोशिश भी नहीं कर सकते कि आखिर जड़ क्या है परिवारों के विखंडन की, विवाह के बाद ही सब कुछ कैसे बदल जाता है? कभी सोचा है हमने?
विवाह तो एडीशन है एक जोड़ है, तो वह घटाव की प्रक्रिया में भला कैसे लिप्त हो सकता है?
क्या कभी भी हम खुद को कटघरे में रखकर सोचने का तृण मात्र प्रयास भी करते हैं कि कहीं हमने ही तो कोई कमी नहीं की नवीन को अपनाने में?
पिछले लेख में विवाह की वेदी पर पारिवारिक विखण्डन की चिंगारी वधूपक्ष के रिश्तेदारों व स्वयं वधू पर थी, आज इस लेख में ट्रुथ और डेयर की सुई वर पक्ष की ओर घुमा चुकी हूँ मैं। मेरे इस श्रंखला के लेख लिखने का एक ही आशय है कि कुछ आत्ममंथन किये जायें, विचारों को खंगाला जाये, बिगड़ी हुई पज़ल को सही लगाया जाये ,ज़रूरी कतई नहीं कि आप मेरे लिखे से सहमत हों,यहाँ असहमति भी सहर्ष स्वीकार है। पर वैचारिक मंथन में बिगड़ना भी भला क्या है? शायद कुछ बन ही जाये!
बहुत से परिवारों को आसपास बिखरते, दर्द से रिसते, कराहते देखा है, सुना है, महसूस भी किया है। कितने ही उदाहरणों में एक प्रचलित और रूखी सोच और पक्षपातपूर्ण रवैया आलती-पालती मारे बैठा दिखता है कि…हम लड़के वाले हैं,लड़की वालों को हमेशा हमारा झुक कर मान रखना होगा! बहू का तो फर्ज़ है कि हम जैसे हैं हमें वैसे ही अपनाये ,हमारी हर बात सुने व माने भले ही गलत ही क्यों ना हो ! बहू गर्भवती होती है,तब ये परिवार वैसी पीड़ा,वैसी शिथिलता महसूस नहीं कर पाते जैसी अपनी बेटी के लिये महसूस करी थी कभी। ये परिवार जैसी कोमल भावनायें ससुराल गयी अपनी बेटियों के मन के फ्रेम में सहेजते हैं,वैसी ही चिंताजनक भावनायें बहुओं के लिये कभी क्यों नहीं संजो पाते?
बहुत ही करीबी निकट परिवारों में मैंने एक ओर ये देखा कि एक ही समयकाल में गर्भवती बहू और मायके आई बेटी के बीच जमीन आसमान का पक्षपात था,बेटी को प्रतिदिन घी, दूध, दही, फलों, मेवों से गले तक तृप्त किया जाता और पूर्णतया शैय्या मग्न रखकर पैरों की मालिश बगैरह करी जाती वहीं इससे इतर बहू तमाम कॉम्प्लीकेशंस के बावजूद महरी बन कर सुबह से रात बिस्तर पकड़ने तक बिना किसी घी दूध के, आधे-अधूरे भोजन के लिये भी एहसानों के नीचे दबा दी जाती रही । विवाह तय होने पर ऐसे परिवार का स्वप्न तो नहीं ही देखा होगा उसने! मैं ये भी सोचती रही कि ननद को भी हामिला होने की परेशानियाँ,कठिनाइयाँ, मानसिक-शारीरिक उतार-चढ़ाव का खयाल अपनी उसी स्थिति में डूबी भाभी के लिये क्या तनिक भी नहीं आया, मायके के उन सुखों को भोगते हुये? लेकिन मेरे सोचने से भला होना जाना भी क्या था, बस इतनी सी मदद भर कि कॉलेज के बैग में चुपके से उनके लिये जूस, घी, मिठाई बगैरह ले जाती और नज़र बचाकर उन्हें खिला-पिला देती थी। बदलाव तो तब आता कि जब वह परिवार उस पक्षपात को स्वयं खत्म करके बेटी के बराबर से बहू का खयाल रखता।
ठीक इसके इतर एक यह भी स्थिति निकट ही महसूस करी कि हामिला बहू का बेटी की तरह तो क्या ,बेटी से भी ज्यादा बढ़कर एक छोटे बालक की तरह खयाल रखा गया,नाज़-नखरे उठाये गये,सास और बड़ी ननदों द्वारा सेवा तक करी गयी,कमर-पैर सब दबाये गये। रसोई का,घर का कोई काम छूने नहीं दिया गया,सोने-जगने,खाने- पीने की कोई पाबन्दी नहीं लागू हुयी। लेकिन बच्चे के आने के बाद मायकेदारी को ही यहाँ के भी सारे रस्म-रिवाज निभाने दिये गये। परिवार के उन सभी बड़ों को छेक दिया गया, जिनके कारण बहू उन नौ महीनों को बहुत आराम से रानी बनकर बिता सकी थी। बच्चे से जुड़ी रस्में क्या उस बच्चे को भी इन प्रेमिल परिवारियों से दूर-दूर रखा गया। बल्कि आरोप भी मढ़े गये मायके पक्ष की ओर से…सो अलग!
ऐसे में मुझे मधुर भंडारकर की फिल्म का वो गीत कौंधता है अक्सर- “कितने अजीब रिश्ते हैं यहाँ पे।”
ऐसे ही एक तरफ़ बेटा अपने ससुराल पक्ष से सदा बेहतर पाने की उम्मीद रखता है, वहीं अपने घर के दामाद के नखरों को झेलकर खीजते हुये, उसमें अपनी दामाद वाली कमियों को नहीं खंगाल पाता। सोच का ये एकतरफ़ा रवैया रिश्तों को मसलता जा रहा है ,ये हम गौर क्यों नहीं कर पा रहे?
मेरी हमेशा सोच रही कि- “सम्मान और प्रेम जितना अधिक दिया जाये, वो ब्याज समेत वापिस मिलता भी है। लेकिन कितनी ही बार मैं ऊपर दिये गये उदाहरणों वाली स्थिति में, मैं अपनी कही इस बात को स्वयं कटघरे में रख देती हूँ। अपवाद कम से कम हों तभी तक अपवाद रहते हैं, वरना अधिकता में घटने के कारण वे धाराप्रवाह मत बन जाते हैं।”
अब ऊपर दिये गये इन दोनों प्रकार के हालातों में किसे और कितना दोषी कहा जाये? क्योंकि हम आज भी मानसिक तौर पर इतने आधुनिक व पारदर्शी नहीं हुये हैं कि अपनी गलती स्वयं स्वीकार लें।
ऐसे परिवारों की भी तमाम सार्थक व सकारात्मक कोशिशों के बाद भी दीवारें दरक ही जाती हैं।
आज ज़रूरत है तो रिश्तों में कुछ लचीलापन लाने की,थोड़े आत्ममंथन की,पक्षपात को फेंक देने की, दोनों पक्षों की मानसिक व आत्मिक स्वीकार्यता की और अपनी सोच,अपने कर्म को कटघरे में खुद रखकर पारदर्शी न्याय करते जज बनने की…क्योंकि वकील सदैव अपने पक्ष की पैरवी करता है ,जज बनकर सोचिये,विचारों को उलछाइये भीतर क्योंकि जज दोनों पक्षों की दलीलें संतोष के संग सुनकर ही न्यायसंगत फैसला करता है।
मंथन बहुत आवश्यक है, करिये तनिक समय निकाल कर ताकि जीवन का बहुत सा समय बच सके सुखद पारिवारिक यात्रा के रूप में।
मायके वाले बेटी को पट्टी पढ़ाने से पहले खुद को रखें कि यदि यही उनके घर की दहलीज के भीतर घट रहा हो तो…या भविष्य में घट जाये तो?
ससुराल वाले भी यही सोच विचार करें कि उनकी बेटी के संग अगर वही सब हो, जो वो बहू के संग कर रहे हैं तो?
याद रखिये कर्म और समय सबसे बलवान हैं। आज समय आपके कर्मों के बहीखाते में भविष्य के पन्नों पर वर्तमान के कर्मों के दण्ड लिख रहा होता है।
पुरानी कहावतें हैं~ ‘जो बोयेगा वही पायेगा’/ ‘बोये पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से होय’।