आलेख
आत्मपरक संस्मरणात्मक कहानियाँ
‘खिलौने वाला’ कहानी में लेखक की महत्वपूर्ण भूमिका रही है, उसकी पृच्छाओं ने ही खिलौनेवाले को अपनी व्यथा कथा सुनाने के लिए विवश किया। एक बालक की अकाल मृत्यु, खिलौनेवाले की अंतरात्मा को इस प्रकार झकझोर देती है कि वह खिलौना बेचने छोड़कर, गूदड़ खरीदने और बेचने लगता है। बिक्री न होने और बच्चे के खींचने से कुर्ता फट जाने से क्षुब्ध खिलौनेवाले पर ज्वरग्रस्त निर्धन बच्चे का कागज की चिड़िया के लिए घिघियाने का प्रभाव नहीं पड़ता। वह उसे धकेलता और तमाचा लगा देता है किंतु संवेदनशील होने के कारण रात भर सो नहीं पाता। सुबह उसी बस्ती में जाने पर और बच्चे की मृत्यु की ख़बर पाकर उसके घर जाता है। उसकी माँ के सम्मुख अपराध स्वीकारने की हिम्मत नहीं जुटा पाता। उसे सोते-जागते बालक चिरैया माँगता दिखाई देता है, वह त्रस्त हो बीमार हो जाता है। स्वस्थ होने पर भी खिलौने नहीं बना पाता और गूदडी बेचने खरीदने वाला बन जाता है।
प्रारंभ नाटकीय ढंग से लेखक के गूदडीवाले से खिलौने बेचना छोड़ने का कारण पूछने से होता है, जो अस्वाभाविक, अपरिपक्व मानसिकता का द्योतक है। कहानी का वास्तविक प्रारंभ गूदड वाले की आपबीती के कथन के साथ बिना किसी भूमिका के सपाट ढंग से होता है। आत्म विश्लेषणात्मक शैली में विकसित होकर कहानी (बालक की मृत्यु) चरम सीमा पर पहुंचती है। अंत मार्मिक है। खिलौने वाले की उन्मादावस्था तथा अन्तत: गूदड़वाला बनकर ही राहत पाना अवसादपूर्ण है। शीर्षक पात्राधारित है। सारी कहानी में केवल एक खिलौनेवाला है, जो लेखक से सूत्र ग्रहण कर ‘मैं’ बनकर आपबीती का कथन करता है। वही कहानी का केंद्र बिंदु, नायक और फल का भोगता है। लेखक और खिलौने वाले की तथा स्त्रियों की परस्पर बातचीत ही कहानी में आए संवाद हैं। भाषा पात्राधारित है। मुहावरों (तेरहो दंड एकादशी, आंख लगना, बखेडे में फंसाना) का सटीक प्रयोग हुआ है। प्रथम पुरुष की शैली में सारी कहानी रचित है। निर्धन , ग़रीब बस्ती, परिस्थित और वातावरण के चित्रण की अपेक्षा लेखक की दृष्टि खिलौनेवाले के अपराध बोध के स्पष्टीकरण पर अधिक केन्द्रित है।
‘दुखनी’ कथा कथक ‘मैं’ के रूप में लेखक द्वारा अपने मित्र कृष्णा बापू की रुग्णावस्था तथा मृत्यु के संदर्भ के स्पष्टीकरण में से दुखने की कथा फूटती है। कहानीकार की दुखनी विषयक जिज्ञासा कहानी का बीज है, जिसे सूत्रधार रुप में श्रीमती निगम विकसित करती हैं। दुखिनी की दयनीय अवस्था से द्रवित कृष्ण बाबू उसे खाना खिलाते हैं और दूसरे दिन कुर्ती देने का वादा भी करते हैं। दुखनी के न मिलने पर उसकी संभावित मृत्यु की कल्पना कर उदिग्न हो मानसिक संतुलन खो बैठते हैं तो कभी फिलास्फरों की तरह बातें करने लगते हैं- “तुम समझती हो मैं नंगा हो जाता? यह शरीर रुपी वस्त्र तो मेरे ऊपर रहता ही है पर मैं इसे भी उतारना चाहता था। इस अंधेरी रात में एक स्त्री का बच्चा मर गया था। एक कोमल आत्मा का वस्त्र ऐसी ठंडी रात में छिन गया था। मैं सोचने लगा ओह! उसको कितना कष्ट होगा? मैंने बहुत बहुत चाहा कि अपना शरीर उतारकर आत्मा को उड़ा दूँ पर देखो मैं अपनी छाती अपने नाखून से चीरना चाहता था जैसे कोट उतारने के लिए बटन खोला जाता है। मैंने इनकी छाती देखी। वहाँ नाखूनों के दाग थे।”20 अन्ततः कृष्णाबाबू उसी मानसिक.अवस्था में मृत्यु को प्राप्त होते है। प्रारंभ कृष्णा बाबू की रुग्णावस्था तथा उसके कारण घर में व्याप्त कोहराम, स्तब्धता और मनहूसियत के वर्णन से वर्णात्मक पद्धति में हुआ है। विकास श्रीमती निगम द्वारा दिए गए ब्योंरों के साथ हुआ है, जो अत्यंत शिथिल है। कहानी चरम सीमा पर कृष्णा बाबू की मृत्यु के साथ समाप्त होती है। अंत त्रासद है। पात्रों में श्रीमती निगम मुख्य हैं; कृष्णा बापू का परिचय स्वयं लेखक ने दिया है। दुखिनी उल्लिखित पात्र होते हुए भी महत्वपूर्ण है। उसकी व्यथा और संभावित मृत्यु की कल्पना निगम साहब की मृत्यु का कारण बनती है। भाषा-शैली विषयानुरूप तेवर बदलती है। कृष्णा बाबू की रुग्णावस्था एवं मृत्यु तथा श्रीमती निगम से हुई अपनी बातचीत को लेखक ने स्मृतियों के माध्यम से विभिन्न शैलियों में अभिव्यक्त किया है। कथा में नीरसता का परिहार करने के लिए उसने श्रीमती निगम से बीच-बीच में प्रश्न (फिर क्या हुआ? तब?) किए हैं। बच्चन सूक्ति वाक्यों की योजना में दक्ष हैं। पशुओं के मस्तिष्क हो या न हो पर उनके हृदय अवश्य ही होता है, क्षणिक बिजली की चमक के पश्चात अंधकार और घना हो जाता है, संस्मरणात्मक शैली में रचित प्रस्तुत कहानी में विषयानुरूप काव्य-सी भावुकता, सरसता, हृदय को छू लेने की शक्ति है। विषयानुरूप वातावरण स्तब्ध, अवसादपूर्ण और बोझिल है; कहानी में मार्मिकता का तत्व प्रमुख है, जो बाद में बच्चन की आत्मकथा में अधिक उभरा है।
सामाजिक भावपूर्ण कहानियाँ
‘स्वार्थ’ कहानी जैसा कि शीर्षक से ही स्पष्ट हो जाता है मनुष्य की स्वार्थवृत्ति को प्रकाशित करती है। लेखक ने इसके लिए प्रेम का अवलम्ब लिया है। अंधे तमोली ननकू की मात्रृहीना पुत्री मनकी का जीवन पिता की दिनचर्या, दुकान, घर और भोजन पानी की व्यवस्था में ही सिमट जाता है, जिससे शैशव की निश्छलता परिपक्व अवस्था की गंभीरता में बदल जाती है। यौवनावस्था की आशाएं-आकांक्षाएं, उसे समय-बेसमय बहाने से आने वाले फौजी मोहन सिंह में साकार होती प्रतीत होती हैं। वह उसकी ओर झुकती, उससे जुड़ती और अवसर मिलते ही उसके साथ बनारस भाग जाती है। निस्सहाय पिता को छोड़ने का अपराध बोध उसे ग्लानि और क्षोभ से भर देता है। कालांतर में मोहन सिंह के साथ प्रयाग लौटने पर वह दुकान पर अन्य स्त्री को बैठा और नीचे बैठे ननकू को मौज-मस्ती से फाग गाते देख चकित होती है। यह ज्ञात होने पर कि वह स्त्री ननकू की दूसरी पत्नी है, उसका अपराधबोध और ग्लानि समाप्त हो जाती है। कहानी के प्रारंभ में मोहन सिंह और उसकी गतिविधियों का वर्णन, उसकी प्रेम कथा की पृष्ठभूमि निर्मित करता है। सूत्रों के संगठन एवं विकास तथा जीने के लिए स्वार्थी बनना अनिवार्य है, को सिद्ध करने के लिए लेखक ने मोहन सिंह और मनकी को बनारस से पुनः प्रयाग लौटाया तथा ननकू के पुनर्विवाह कर उसे संतुष्ट सुखी दिखाया है। शीर्षक संक्षिप्त है, जिसकी अनुगूंज मनमोहन सिंह की मनकी के प्रति कही गई अंतिम उक्ति में मिलती है।
कहानी में मोहनसिंह, मनकी और अंधा तमोली ननकू तीन पात्र हैं। दृष्टिहीन, स्वार्थी ननकू अपनी मातृहीन पुत्री पर अपना समस्त दायित्व डालकर उसके बचपन को असमय नष्ट कर देता है। मनकी उसके जीवन की अनिवार्यता है, अतः वह उसका विवाह भी नहीं करता। मनकी के मोहनसिंह के साथ भाग जाने पर स्वयं दूसरा विवाह करने में भी विलंब नहीं करता। मोहन सिंह अपने अनुभव एवं जीवन दर्शन के अनुरूप ही विभिन्न हथकंडों से मनकी को प्राप्त करने की चेष्टा करता है। वह जीने के लिए स्वार्थी होना अनिवार्य मानता है। मनकी अत्यंत निश्छल, पिता से प्रेम करने वाली, कर्त्तव्यपरायण युवती है, जिस पर अंधे पिता का शत-प्रतिशत दायित्वबोध है। वह पिता की स्वार्थी मनोवृत्ति से परिचित होने के पश्चात ही, उसे छोड़ने के अपराध बोध से मुक्त हो पाती है। लेखक ने चरित्रोद्घाटन के लिए आवश्यकतानुसार प्रत्यक्ष, परोक्ष शैलियों का प्रयोग किया है। संवाद कथा विकास, चरित्रोद्घाटन एवं लेखकीय मंतव्य को प्रकाशित करने वाले हैं। मुहावरे (मछली ने चारा पकड़ लिया, खूब फांसा, आंख की रोशनी) सूक्ति (जीवन का नियम परोपकार नहीं, स्वार्थ साधन है; स्वार्थी नहीं मरता, मरता है पर परोपकारी; जीने के लिए स्वार्थी होना आवश्यक है; बाल्यावस्था का सरल सुकुमार चांचल्य मोज़ा और मरोड़ा जा सकता है पर यौवन का प्रबल प्रमत्त उन्माद रोका नहीं जा सकता) भाषा में इस प्रकार खुले मिले हैं कि उसका ही एक रूप प्रतीत होते हैं। भावानुसार शैली बदलती गई है। “मैंने अपने पिता के साथ विश्वासघात किया। सवेरे उठे होंगे तो कैसे उन्होंने चिल्ला-चिल्लाकर पुकारा होगा…मुझे घर में टटोलते फिरे होंगे…और पड़ोसियों ने जब उन्हें घेर लिया होगा तो कैसे दहाड़ मार कर रोए होंगे…मुझे ऐसे अपाहिज पिता को छोड़कर भागना अनुचित था, अन्याय था, पाप था।”21 मोहनसिंह की सांसारिकता विषयक टिप्पणी गंभीर और विश्लेषणात्मक है।” जीवन का नियम परोपकार नहीं स्वार्थ साधन है, स्वार्थ नहीं मरता; मरता है परोपकारी, जीने के लिए स्वार्थी होना आवश्यक है।”22
‘उऋण’ कहानी घरेलू नौकर दक्खू की कर्त्तव्यपरायणता, निष्ठा और विश्वसनीयता को व्यक्त करती है। कतिपय आलोचकों के अनुसार दक्खू बच्चन के नाना के यहाँ नौकर था और लल्ली उनकी माता थीं। लाला रामनारायण के यहाँ लल्ली का जन्म और दक्खू का आगमन एक ही दिन होता है। दक्खू बच्चे को पालता पोसता ही नहीं अपितु उसके ससुराल जाकर उसके बच्चों का नाना बनने का सुख पाता है। वृद्धावस्था में रुग्ण, दुर्बल दक्खू को लल्ली के पति जब उसके रिश्तेदार के पास भेजने की बात करते हैं तो वह अत्यंत कातर हो, पुत्रीवत पाली लल्ली (कमला) के सम्मुख ही अंतिम साँस लेने की आकांक्षा व्यक्त करता है। मृत्यु पूर्व अपनी समस्त पूंजी ₹800 तथा अपने संस्कार हेतु ₹100 उसे देकर कन्या ऋण से उऋण होकर शांति से प्राण त्यागता है। लल्ली उसके अंतिम कार्यों को पूर्ण श्रद्धा और निष्ठा से कर पितृ ऋण से उऋण हो जाती है। कहानी प्रेमचंद परंपरा की आदर्शवादी कहानी है।
कहानी राम नारायण जी के यहाँ कन्या के जन्म और सेवक के रूप में दक्खू के आगमन के वर्णन से शुरू होती है। विकास लल्ली के विवाह, दक्खू के उसके ससुराल जाने के साथ होता है। इसके उपरांत ससुराल को घटनाओं का केंद्र बनाकर लेखक ने लल्ली के पति की बिमारी, दक्खू की अंतिम आकांक्षा और लल्ली के द्वन्द्व द्वारा कथा को चरम सीमा तक पहुंचाया है। कहानी चरम सीमा पर दक्खू की मृत्यु के साथ समाप्त हो अपना प्रभाव छोड़ती है। अंतिम पंक्ति अत्यंत मार्मिक है। दोनों परस्पर एक दूसरे से उऋण हो गए। यही उऋणता कहानी का शीर्षक बनती है। संक्षिप्त भावात्मक होने के साथ ही शीर्षक कैसा ऋण, किसने- किसको- क्या -कितना ऋण दिया था और ऋणी को ऋण से मुक्ति कैसे मिली आदि प्रश्नों को उठाता है, जिसका उत्तर पाठक को कहानी के अंत में ही मिल पाता है। दक्खू और लल्ली ही समस्त कथा के केंद्र बिंदु हैं। शेष पात्रों का नियोजन इनके चरित्रों को प्रकाशित करने के लिए हुआ है। लेखक ने पात्रों के चरित्रांकन के लिए प्रत्यक्ष शैली का अधिक प्रयोग किया है। वर्णात्मक, भावात्मक, नाटकीय शैलियों के यथा अवसर प्रयोग में लेखक सिद्धहस्त है। संवाद अत्यंत संक्षिप्त, सरस, पात्र और परिस्थिति अनुकूल तथा कथा विकास और चरित्रोद्घाटन में सहायक है। उर्दू शब्दों (इंकार, वफादारी, कफ़न, मोहब्बत) मुहावरों (गदगद होना, सत्याग्रह करना, गुलामी करना) तथा सूक्ति (लड़की के ब्याह की चिंता माँ-बाप को उसके धरती पर गिरने के दिन से ही लग जाती है, स्त्री जब तक अपना अधिकार नहीं जताती तभी तक कमजोर है) ने भाषा को गरिमा प्रदान की है। प्रेम, समर्पण की महत्ता दर्शाना कहानीकार का उद्देश्य है। रचनातंत्र की दृष्टि से अत्यंत सामान्य होने पर भी सत्य पर आधारित कहानी हृदय को छूती है।
‘चुन्नी मुन्नी’ (सरस्वती, 1932) एक वर्ष छोटी बड़ी दो बहनों की 12 पंक्तियों की एक लघु कथा है। 1932 तक लघु कथा का स्वरूप निर्धारण न होने के कारण इसे हिंदी की प्रथम कहानी कहा जा सकता है। मुन्नी का परीक्षा में उत्तीर्ण हो, भगवान को प्रसाद चढ़ाना, अनुत्तीर्ण चुन्नी को खिन्न कर देता है। माता द्वारा दोनों से प्रसाद चढ़वाना मुन्नी को नहीं भाता। उसे अपनी सफलता बेमानी लगती है। उनके मनोभाव माता का मनोरंजन करते हैं किन्तु भगवान दोनों के प्रसाद को तटस्थ भाव से स्वीकारने के लिए विवश हैं। डॉ. जीवन प्रकाश जोशी का अभिमत है- “कहानीकार ने श्रद्धा के स्वाभाविक सहजभाव को, बड़प्पन के अहम ईष्या भाव को, माँ संतान के सहज स्नेह हर्ष को और देवत्व की रूढ़िवादिता पर व्यंग्य को अत्यधिक तीव्रता से सार्थक कर दिया है।”23 कहानीकार ने जिस ध्वनि शक्ति से पात्रों के द्वंद्व, आस्था को अभिव्यक्त किया है उसकी चरम परिणति उनके काव्य में हुई है।
‘एक कहानी’ अंतिम कहानी ‘निशा-निमंत्रण’ के प्रारंभ में संकलित है। परम्परागत पूजा अर्चना, सूर्य को अर्घ देना, हवन करना आदि से मनुष्य ने स्वर्ग से ऐसे देवता की कामना की, जो उनकी भावनाओं को समझे और उनकी भेटों को प्रसन्न होकर स्वीकार करे। स्वर्ग के आदेशानुसार मंदिर बनवाया, उसमें चंदन का दरवाज़ा लगवाया, एक पुजारी नियुक्त कर, शरद पूर्णिमा के दिन, नए देवता के आने पर द्वार खोलने और शंखनाद करने का निर्देश दिया। निर्धारित समय पर देवता प्रकट हुए किंतु उनके सरल, सहज, सुकुमार रुप पर मोहित और मंदिर के बाहर उत्तेजित जनता को देखकर पुजारी कपाट खोलना भूल गए। जनता ने देवता के चन्द्र बिंब का दर्शन बाहर से कर कपाट तोड़ दिए तथा उन पर इतने पुष्प अर्पित किए कि वे पुष्पों के नीचे दब गए। मानव ने स्वर्ग से दोबारा देवता भेजने का अनुरोध किया। स्वर्ग द्वारा अनुरोध को अनसुना करने पर मनुष्य ने दृढता से स्वत्व की मांग की। देवताओं के मानव की पूजा स्वीकारने में भयभीत होने तथा सूर्य को अपने शीतल होने की आशंका से त्रस्त होने का उल्लेख कर स्वर्ग ने पृथ्वी पर शिलाखंड गिराए तथा मानव को उनकी पूजा करने का आदेश दिया। तब से मूर्ति पूजा प्रारंभ हुई। कहानी छोटी तथा छायावादी अस्पष्टता से युक्त है। भाषा काव्यात्मक, चित्रात्मक, बिंबों और प्रतीकों से युक्त है। लेखक का मंतव्य भी अस्पष्ट रहा है। डॉ. जीवन प्रकाश जोशी ने इसका संबंध बच्चन के दिल्ली आवास सोपान के पत्थरों से जोड़ा है। उनकी आत्मकथा के दूसरे भाग ‘नीड़ का निर्माण फिर’ में पत्थरो को एकत्र करने, उनमें विभिन्न आकृतियाँ ढूंढने और चित्रित करने की उनकी रुचि का उल्लेख मिलता है ।
बच्चन की कहानियों की कथावस्तु समाज के विभिन्न क्षेत्रों से संबंधित है। रचनातंत्र की दृष्टि से ‘माता और मातृभूमि’ तथा ‘उऋण’ कहानियों के अतिरिक्त सभी अत्यंत सामान्य कोटी की हैं। ‘चिड़ियों की जान जाए लड़कों का खिलौना’ को छोड़कर अन्य कहानियों के शीर्षक संक्षिप्त, कहानी की मूल संवेदना से जुड़े हुए हैं। ‘धर्म की परीक्षा’ तथा ‘ठाकुर जी’ कहानियों के अतिरिक्त शेष कहानियाँ चरम सीमा पर समाप्त हुई हैं। ‘एक कहानी’ तथा ‘चुन्नी मुन्नी’ में लेखक का मंतव्य स्पष्ट नहीं हो पाया है। ‘उऋण’ कहानी में लेखक ने स्वयं उसे अत्यंत सपाट ढंग से अभिव्यक्त किया है। बच्चन जी ने अपनी कहानियों में बहुत कम पात्रों की नियोजना की है। प्रत्यक्ष, परोक्ष वर्णात्मक, भावात्मक, पत्रात्मक, संवादात्मक शैलियों के साथ ही ‘खिलौनेवाला’ और ‘दुखिनी’ कहानियों में प्रथम पुरुष की शैली का प्रयोग हुआ है। पात्रों की भांति ही संवाद अत्यल्प है। ‘धर्म की परीक्षा’ कहानी में ब्राह्मण का प्रवचन ही किंचित लम्बा है। कहानियों की भाषा सहज, सरल, प्रभावमय है। हिंदी के तत्सम, तद्भव शब्दों के साथ उर्दू, अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग उन्होंने निसंकोच किया है। मुहावरों और लोकोक्तियों, सूक्ति वाक्यों के प्रयोग में वे सिद्धहस्त हैं। उनकी कहानियाँ उनके कवि और आत्मकथाकार रूप का पूर्वाभास कराती हैं। परम्परागत निकष पर खरी न उतरने पर भी बच्चन जी के साहित्यकार रूप का प्रथम सोपान होने के कारण ये महत्वपूर्ण हैं।
संदर्भ-
1. क्या भूंलूं क्या याद करुं, प्रथम संस्करण, पृष्ठ 264
2. क्या भूलूं क्या याद करूं , प्रथम संस्करण, पृष्ठ 265
3. देखिए बच्चन रचनावली भाग 9 , प्रारंभिक रचनाएं , पृष्ठ 201
4. गद्यकार बच्चन , जीवन प्रकाश जोशी, पृष्ठ 25
5. बच्चन रचनावली, भाग 9 ,पृष्ठ 231
6. बच्चन रचनावली, भाग 9 ,पृष्ठ 236
7. बच्चन रचनावली, भाग 9 ,पृष्ठ 236
8. बच्चन रचनावली, भाग 9 ,पृष्ठ 236
9. गद्यकार बच्चन , जीवन प्रकाश जोशी , पृष्ठ 31-33
10. डॉक्टर इंदु वाला दीवान, बच्चन अनुभूति और अभिव्यक्ति , प्रथम संस्करण , पृष्ठ 125
11. बच्चन रचनावली, भाग 9 पृष्ठ 261
12. बच्चन रचनावली, भाग 9 पृष्ठ 222
13. बच्चन रचनावली, भाग 9 पृष्ठ 229
14. बच्चन रचनावली, भाग 9 पृष्ठ 239
15. बच्चन रचनावली, भाग 9 पृष्ठ 241
16. बच्चन रचनावली, भाग 9 पृष्ठ 238
17 बच्चन रचनावली, भाग 9 पृष्ठ 237
18. बच्चन रचनावली, भाग 9 पृष्ठ238
19. बच्चन रचनावली, भाग 9 पृष्ठ 261
20. बच्चन रचनावली, भाग 9, पृष्ठ 246
21. प्रारंभिक रचनाएं , तीसरा भाग , पृष्ठ 164
22. बच्चन, प्रारंभिक रचनाएं, तीसरा भाग, प्रथम संस्करण , पृष्ठ 168,169
23. गद्यकार बच्चन , पृष्ठ 46
26. देखिए, गद्यकार बच्च्न , प्रथम संस्करण , पृष्ठ 20
– डॉ. रूचिरा ढींगरा