ख़ास-मुलाक़ात
आज भी महिलाओं की बहुत-सी समस्याएँ ग़ज़ल का विषय नहीं बन पाई हैं
– डॉ. भावना
ग़ज़ल की वर्तमान पीढ़ी के स्थापित नामों में डॉ. भावना एक महत्वपूर्ण नाम बन चुका है। उनकी ग़ज़लों की संरचना के साथ उसमें निहित सरोकारों की वज्ह से वे अपने समय के ग़ज़लकारों से कुछ अलग हटकर खड़ी होती हैं। ‘आँच’ नामक वेब पत्रिका की यह सम्पादक केवल ग़ज़ल लेखन तक सीमित न रहकर ग़ज़ल-आलोचना के क्षेत्र में भी दख़ल देने लगी हैं। इस समय की ज़रूरी ग़ज़लकार डॉ. भावना से इस ख़ास-मुलाक़ात के ज़रिये उन्हें और क़रीब से जानने की कोशिश की है, उम्मीद है कोशिश आपको पसन्द आएगी।
अनमोल- हर एक ग़ज़लकार के लिए ग़ज़ल का अपना एक अर्थ है। आपके लिए ग़ज़ल क्या है?
डॉ. भावना- ग़ज़ल मेरे लिए साहित्य की विधा भर नहीं, ख़ुद को ज़िन्दा रखने का ज़रिया है। लेखन की अन्य विधाओं की अपेक्षा मैं ग़ज़ल कहने में ज़्यादा सहज महसूस करती हूँ। फ़ारसी में कहते हैं- ‘जो दिल से उठे और दिल पर गिरे, वही शायरी है’। शेरों की यही विशेषता मुझे ग़ज़ल कहने को प्रेरित करती है। ग़ज़ल मेरे साथ चलने वाली वह चेतना है, जो हर पल मेरा साथ देती है। दुख के क्षणों में भी मुझे अकेला नहीं होने देती। वर्तमान राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक व सामाजिक परिवेश को मैंने ग़ज़लों में प्रतिबिंबित करने की कोशिश की है, परंतु समाज की मनोदशा बदलने में यह कितना प्रभावी होगा, मैं नहीं जानती। स्त्री-विमर्श के दौर में भले ही हम महिला सशक्तिकरण की बात करें, लेकिन हकीकत कुछ और है। आज मुट्ठी भर स्त्रियाँ ही दासी और भोग्या के बंधन से मुक्त हो पाई हैं। बहुसंख्यक महिलाएँ अपने परिवेश और बाज़ारवाद की चुनौतियों से जूझ रही हैं। उनके दुख, दर्द और पीड़ा मेरे भीतर उतर ग़ज़लों में ढल जाती हैं। रचनाधर्मिता के माध्यम से सूखी सम्वेदनाओं में तरावट लाने का प्रयास ही मेरी ग़ज़लों का मुख्य उद्देश्य है।
अनमोल- ग़ज़ल की ओर आना कैसे हुआ? शुरुआती दिनों में किन-किन ग़ज़लकारों ने सर्वाधिक प्रभावित किया?
डॉ. भावना- दरअस्ल भारतीय जन-मानस का मिज़ाज ही छंद युक्त रचना का रहा है। बचपन में एक फिल्म देखी थी, जिसमें मिर्ज़ा ग़ालिब की एक ग़ज़ल थी- ‘दिले नादां तुझे हुआ क्या है/ आख़िर इस मर्ज की दवा क्या है’ या फिर निकाह फिल्म की ये गज़ल- ‘चुपके चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है’ इत्यादि गज़लों ने बहुत प्रभावित किया। उससे भी पहले की अगर मैं बात करूँ तो रेडियो से प्रसारित उर्दू प्रोग्राम का लगभग 9 बजे रोज़ मुझे शिद्दत से इंतज़ार रहता था। धीरे-धीरे ग़ज़ल मुझे बेहद आकर्षित करने लगी। इसके कहन, बिम्ब, बह्र, वज़्न एवं दो मिस्रों में पूरी बात कह जाने का तरीका, मुझे ग़ज़ल कहने के लिए प्रेरित करता रहा। महाविद्यालय से विश्वविद्यालय तक आते-आते ग़ज़ल के प्रति मेरी दीवानगी बढ़ती ही चली गयी।
आप मुझसे कह सकते हैं कि दो मिस्रों में पूरी बात कह जाने की क्षमता हिन्दी के दोहे में तो है ही, फिर ग़ज़ल ही क्यों?
तो मैं कहना चाहूँगी, दोहा में नारेबाजी संभव है पर, ग़ज़ल इतनी कोमल विधा है कि ये थोड़ी भी तल्खी बर्दाश्त नहीं कर पाती। मैं बिहार से हूँ। हमारे यहाँ मिथिला में बोली जाने वाली भाषा ‘मैथली’ के बारे में लोग कहते हैं कि इस भाषा में कोई गाली भी दे तो लगता है जैसे प्रेम की बरसात हो रही हो। ग़ज़ल की नज़ाकत ही उसकी सबसे बड़ी ख़ासियत है।
शुरूआती दिनों में मुझे बहुत सारे ग़ज़लकारों ने प्रभावित किया। जब मैंने तेरहवीं शताब्दी के शायर अमीर खुसरो की ग़ज़ल ‘जे हाले-मिस्कीं, मकुन तगाफुल दुराए नैना बनाय बतियां’ पढ़ी तो इसकी लय में डूबती चली गयी। फिर मैंने ग़ालिब के साथ-साथ फ़िराक गोरखपुरी, फ़ैज अहमद फ़ैज तथा मीर को भी पढ़ा। दुष्यंत का संग्रह ‘साये में धूप’ तथा परवीन शाकिर की ग़ज़लें मेरे बिछावन पर मेरे इर्द-गिर्द रहीं।
धीरे-धीरे उर्दू के प्रसिद्ध ग़ज़लकारों के साथ मैंने हिन्दी के पूर्व के शायरों को भी पढ़ा। इस कड़ी में सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ की ग़ज़ल ‘पड़े थे नींद में उनको प्रभाकर ने जगाया है/किरण ने खोल दी आँखें, गले फिर-फिर लगाया है’ या त्रिलोचन की ये ग़ज़ल ‘बिस्तरा है न चारपाई है/ज़िन्दगी ख़ूब हमने पाई है” या शमशेर बहादुर सिंह जी की ये गज़ल ‘अपने दिल का हाल यारो! हम किसी से क्या कहें/कोई भी ऐसा नहीं मिलता जिसे अपना कहें’।
बलवीर सिंह रंग, दुष्यंत कुमार, शलभ श्रीराम सिंह, अदम गोंडवी के साथ-साथ विज्ञान व्रत, ज्ञान प्रकाश विवेक, ज़हीर कुरैशी, अनिरुद्ध सिन्हा के साथ-साथ देश के तमाम छोटे-बड़े ग़ज़लकारों को पढ़ा है। किसी एक ग़ज़लकार ने प्रभावित किया है, ऐसा मैं नहीं कह सकती। मुझे कोई भी ग़ज़लकार जिसके कथ्य में नवीनता हो और ग़ज़ल के विधान पर सही उतरती हो तो ऐसी ग़ज़लें मुझे बिना प्रभावित किये नहीं रह सकतीं।
अनमोल- साहित्य की तरफ झुकाव कब से हुआ? शुरुआती समय में इस क्षेत्र में कैसा माहौल मिला?
डॉ. भावना- ग़ज़ल मेरे लिए जीने का माध्यम है। मैंने क्यों कहना शुरू किया, इसका सटीक जवाब शायद मेरे पास नहीं है। मैं जिस परिवेश में पली–बढ़ी हूँ, वहाँ साहित्य की अन्य सारी विधाएँ तो थीं, लेकिन ग़ज़ल नहीं थी। बावजूद इसके मेरी दिलचस्पी ग़ज़ल में ज़्यादा बनी। ऐसी बात नहीं कि मैंने उर्दू साहित्य का अध्ययन कर ग़ज़ल कहने की कोशिश की। पढ़ते–सुनते समय के साथ इस विधा में दिलचस्पी जगती गई। यूँ तो मैंने लिखना स्कूल के समय से ही शुरू किया था। ये हमारा पारिवारिक संस्कार भी रहा है। मेरी माँ डॉ. शांति कुमारी हिंदी साहित्य की अच्छी लेखिका रही हैं। मेरा पारिवारिक संस्कार साहित्य का था। हालाँकि मैं विज्ञान की छात्रा रही हूँ, पर साहित्य मेरी आत्मा में बसा है। जीविका का साधन भले ही विज्ञान हो, सुकून साहित्य देता है। साहित्य में डूबते ही संसार के तमाम सुख-दुख तिरोहित हो जाते हैं और मन भावनाओं से भर उठता है।
मैंने लेखन की शुरुआत छंदयुक्त कविता से की थी। कॉलेज की शिक्षा तक ग़ज़ल कहने की प्रेरणा नहीं जगी थी। लेकिन पढ़ना अच्छा लगता था। मैं तमाम साहित्यिक पत्रिकाओं में ग़ज़ल खोज कर पढ़ती थी। हालाँकि लेखन तब तक कविताओं से ही जुड़ा था। मेरी स्कूली शिक्षा शिवहर में हुई है। उन दिनों वहाँ साहित्य का बेहतर माहौल था। छंदबद्ध कविताओं के अलावा दोहा लिखने में मेरी बड़ी रुचि थी। मेरी माँ स्वयं एक लेखिका थी, इसलिए मेरे घर में काव्य-गाष्ठियों का आयोजन हुआ करता था। शर्त थी कि गोष्ठी में सबको नई रचना सुनानी है। इसलिए हमेशा कुछ अच्छा कहने की कोशिश होती थी। मेरी नज़र में जो कुछ आता, उसे दोहा व कविता में व्यक्त करती। यह सिलसिला स्कूली जीवन तक चलता रहा। कॉलेज की शिक्षा मैंने हॉस्टल में रह कर ली। इस दौरान भी लेखन का कार्य चलता रहा। कई कविताएँ व लघुकथाएँ विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं।
कॉलेज के दिनों में मैंने ग़ज़ल कहने की शुरुआत की। अपनी संवेदनाओं को समेट कर जब ग़ज़ल में ढाला तो मुझे लगा कि शायद यही मेरी अभिव्यक्ति का सबसे सटीक माध्यम है। शुरुआती दिनों में मैंने क़ाफ़िया, रदीफ़ का निर्वाह करते हुए मात्रिक छंदों में ग़ज़लें कहीं। उस वक्त मुझे इसके शिल्प की जानकारी नहीं थी। कई बड़े ग़ज़लकारों को जब मैंने अपनी ग़ज़लें सुनायीं तो उन्होंने कहा कि भावनाएँ अच्छी हैं, शब्द भी अनुरूप, लेकिन शिल्प के अनुसार रचनाएँ नहीं हैं। जब तक यह मीटर में नहीं आएगा, इसे हम ग़ज़ल नहीं कह सकते। मेरे लिए यह मुश्किल समय था। लेकिन मैंने हार नहीं मानी। शिल्प को आत्मसात करने में जुट गई। वर्षों मेहनत व अच्छे ग़ज़लकारों के अनुभव से मेरे अंदर ग़ज़ल कहने का हुनर आया। जब शिल्प के अनुसार मैंने ग़ज़लें कहीं तो बड़ी प्रशंसा मिली।
ग़ज़ल कहना मेरे लिए आत्म संतुष्टि का माध्यम भर नहीं है। मुझे ऐसा लगता है कि इससे मेरी संवेदना अधिक जाग्रत रूप में प्रस्तुत होती है। चीज़ों को मैं जिस नज़र से देखती हूँ, उसी तरह कह सकने का हुनर मुझे ग़ज़ल में ही आया है। समय के सच को जितनी संजीदगी से मैं इस विधा में कह पाती हूँ, वैसा अन्य विधा में कहना जल्दी संभव नहीं हो पाता। मैंने ग़ज़लों में हमेशा आम बोलचाल की भाषा का ही प्रयोग किया है, जिससे भाषा की संप्रेषणशीलता अधिकाधिक हो। ग़ज़ल की दूसरी सबसे बड़ी विशेषता प्रत्येक शेर में अलग संदर्भ में अपनी बात कहने की कला है। एक ही ग़ज़ल में हम बहुत सारी बातों को एक साथ कह सकते हैं। वर्तमान ग़ज़ल का फ़लक बहुत बड़ा हो चुका है। इश्क के दायरे से बाहर निकल, ग़ज़ल दुनिया देख रही है। उसमें सिर्फ स्त्री–पुरुष की संवेदना नहीं, बल्कि दुनिया की सारी संवेदनाएँ समाहित है।
अनमोल- आपकी ग़ज़लों में ज़मीनी हक़ीक़त ज़्यादा देखने को मिलती है। आपके शब्द अपने आसपास की चीज़ों को ख़ूबसूरती से शेरों में समेटते हैं, यही ख़ासियत आपको अन्य महिला ग़ज़लकारों से थोड़ा अलग करती है। कई बार आपके शेरों में महिला जीवन के विविध पहलू भी खुलकर आते हैं। क्या-क्या बातें ज़ेहन में रहती हैं एक ग़ज़ल के सृजन के दौरान?
डॉ. भावना- सर्वप्रथम आपका बहुत-बहुत धन्यवाद कि आपने मेरी ग़ज़लों का गहन अवलोकन किया है। यूँ तो साहित्यकारों के लिए यह कहा जाता है कि उनमें परकाया प्रवेश की विलक्षण क्षमता होती है। पर मेरा यह मानना है कि परकाया प्रवेश की भी एक सीमा होती है। स्वयं के जीवन में घटित दुख या सुख का विवेचन हम जिस गहनता के साथ कर सकते हैं, उतनी सुनी-सुनाई बातों व परकाया प्रवेश द्वारा नहीं कर सकते। एक महिला अपने रोज़मर्रा की दुश्वारियों को बख़ूबी समझती है। आर्थिक दृष्टि से वह भले ही किसी भी वर्ग से भी आती हो पर, शारिरीक रूप से व भावनाओं के स्तर पर उनमें बहुत हद तक समानता होती है। जहाँ तक ग़ज़ल सृजन की बात है तो उस दरमियान मेरे ज़ेहन में कुछ भी नहीं रहता। कोई भी बात जो हमारे दिल को छू जाए, संवेदना को जागृत कर दे , ग़ज़ल में ढल जाती है। कई बार मुझे ऐसा आभास होता है कि ग़ज़ल लिखते वक्त मैं ‘मैं’ नहीं होती। दिमाग लगाकर कविता की किसी विधा में कलम नहीं चलाई जा सकती। हाँ, आलेख और समीक्षा अवश्य लिखे जा सकते हैं।
अनमोल- महिलाओं की नज़र से दुनिया के अभी कई अनछुए पहलू ग़ज़ल में आने शेष हैं, कितना सहमत हैं आप इससे?
डॉ. भावना- जी, मैं आपकी बात से पूर्ण सहमत हूँ। बहुत-सी महिला ग़ज़लकार अभी भी इश्किया शायरी में लीन हैं। उन्हें समाज की तरफ देखने, उनकी पीड़ाओं को महसूस करने और व्यक्त करने की ओर अग्रसर होने की ज़रूरत है। आज भी महिलाओं की बहुत-सी समस्याएँ ग़ज़ल का विषय नहीं बन पाई हैं। विधवा-जीवन, भ्रूण हत्या, बे-मेल विवाह, कामकाजी महिलाओं का दोहरा जीवन, बाँझपन, गर्भपात तथा विभिन्न धर्मों में महिलाओं की स्थिति जैसी गंभीर समस्याओं पर अब तक बहुत ही कम शेर कहे गए हैं। जबकि यह स्त्री जीवन की बहुत बड़ी विसंगतियाँ हैं, जिन्हें आज भी ग़ज़लों में ढलना शेष है।
अनमोल- आपने अपने एक उत्तर में कहा है कि ग़ज़ल में ग़ज़लियत का होना ज़रूरी है। इस पर ज़रा विस्तार से बात कीजिए ताकि ग़ज़ल की नई पीढ़ी को बेह्तर दिशा मिल सके।
डॉ. भावना- जी, ऐसा है कि ग़ज़ल का अपना सौंदर्य-बोध होता है। यह सुंदर प्रस्तुति एवं शब्दों के चयन से प्राप्त होता है। अच्छा से अच्छा कथ्य सौन्दर्यबोध के अभाव में पाठकों के बीच लोकप्रिय नहीं हो पाता। दरअस्ल ग़ज़लियत कुछ और नहीं, ‘शब्दों के चयन’ और ‘कहन की नाज़ुकी’ का मिला-जुला रूप है। ग़ज़ल हथियार उठाने में विश्वास नहीं करती। वह अपने दम पर पाठकों के मन-मस्तिष्क को आंदोलित और झंकृत कर देती है। आज वही हिन्दी ग़ज़लें लोकप्रिय हैं जिनमें अपना सौंदर्य बोध है। ग़ज़ल की आत्मा तभी सुरक्षित रह सकती है, जब इसका आंतरिक और बाह्य पक्ष दोनों बहुत मुलायम हो। ग़ज़ल लिखने वालों से मेरा अनुरोध है कि ग़ज़ल को नारेबाजी से बचाते हुए इसके सौंदर्यबोध पर ध्यान दें और अपने अग्रजों और समकालीन ग़ज़लकारों को ख़ूब पढ़ें।
अनमोल- आप ग़ज़ल लेखन के साथ-साथ ग़ज़ल की आलोचना को लेकर भी गंभीर हैं। इस समय ग़ज़ल की आलोचना के लिए तत्पर होना कितना ज़रूरी समझती हैं?
डॉ. भावना- बढ़िया सवाल पूछा है आपने। दरअस्ल, आज भी ग़ज़ल; आलोचकों की नज़र में कविता के रूप में स्वीकृत नहीं है। आलोचक न जाने क्यों इसे वक्र दृष्टि से ही देखते हैं! मुझे इसके पीछे एक बड़ा कारण दिखता है। वह है ग़ज़ल के शिल्प और व्याकरण से उनका अंजान होना। ये आलोचक ग़ज़ल पर बात करें भी तो क्या करें? सिर्फ कथ्य पर अपनी बात कह; आलोचनाधर्म से मुक्त भी तो नहीं हो सकते। अतः यह बहुत ज़रूरी है कि गजल की बारीकियों को समझने वाले ग़ज़लकार या ग़ज़ल मर्मज्ञ इसकी आलोचना स्वयं करें। तभी किसी ग़ज़ल या ग़ज़ल-संग्रह की समीक्षा पूर्णता के साथ संभव है। दरअस्ल आज सभी बनी बनाई खीर खाना चाहते हैं। छंद मुक्त के इस ज़माने में कौन छंद पर मगजमारी करे? आलोचना सिर्फ ‘लोचन’ यानी ‘आँख का होना’ पर नहीं है।
अनमोल- सुखद है कि इन दिनों ग़ज़ल को बहुत सराहा जा रहा है। इस विधा को लगभग हर पत्रिका में जगह मिलने लगी है। आलोचमात्मक काम होने लगा है, संकलन आ रहे हैं। नए ग़ज़लकारों पर ध्यान दिया जा रहा है। ग़ज़ल के लिए इस माहौल से कितना सन्तुष्ट हैं?
डॉ. भावना- सच कहूँ तो यह ग़ज़ल का स्वर्णकाल है। आज से पहले कभी ग़ज़ल पर इस तरह से काम नहीं हुआ। हो सकता है इसकी वज्ह मुक्त छंद कविता से पाठकों का मोहभंग होना हो। पर, बात जो भी हो; नये ग़ज़लकारों के लिए आज का समय बड़ा सुकून भरा है। अपने वरिष्ठों से उन्हें जितना स्नेह मिलता है, उतना पहले संभव नहीं था। आज जहाँ हूँ, वहाँ तक आने के लिए हमने 20 वर्षों तक इंतज़ार किया। पहला गजल-संग्रह आने के बाद भी लोगों ने उस तरह से नोटिस नहीं लिया। दूसरा संग्रह आने के बाद से कुछ लोग जानने लगे। पर आज की स्थिति थोड़ी अलग है। आज नये ग़ज़लकार अपनी रचना लिख कर फेसबुक पर डालते हैं और उन्हें उचित मार्गदर्शन भी मिलता है। वरिष्ठ ग़ज़लकार दरवेश भारती जी, अनिरूद्ध सिन्हा जी, दिनेश प्रभात जी, ज्ञान प्रकाश विवेक जी तथा ज़हीर कुरैशी जी जैसे स्नेहिल व्यक्तित्व आज की युवा पीढी के साथ हैं। उदाहरणस्वरूप अभी-अभी प्रकाशन के लिए तैयार प्रसिद्ध ग़ज़लकार अनिरूद्ध सिन्हा जी की पुस्तक ‘हिन्दी ग़ज़ल के युवा चेहरे’ को लिया जा सकता है। इस संग्रह में उन्होंने 51 युवा ग़ज़लकारों को लिया है। मेरे ख़याल से यह पुस्तक युवाओं के लिए बड़ा ही सशक्त प्लेटफार्म के रूप में हमारे सामने है, जो हिन्दी गजल के दृष्टि संपन्न युवा शायरों से हमें रू-ब-रू करवाती है।
अनमोल- पिछले कुछ समय से आप एक साहित्यिक पत्रिका आँच का संपादन भी कर रही हैं, जो निरन्तर अच्छी सामग्री लेकर आ रही है। पाठकों को उसके बारे में भी कुछ बताएँ।
डॉ. भावना- ‘आँच’ http://www.aanch.org/ विशुद्ध रूप से साहित्यिक पत्रिका है। इसके हर अंक में विशिष्ट ग़ज़लकार, विशिष्ट कवि, विशिष्ट कथाकार के साथ-साथ ख़ास कलम प्रकाशित होती है, जो कविता की किसी भी विधा में युवाओं के उत्कृष्ट लेखन को सामने लाने के लिए कृतसंकल्प है। पत्रिका में लेख, पुस्तक-समीक्षा, बच्चों का कोना इत्यादि सामग्री है। जिसकी वज्ह से यह पत्रिका पाठकों द्वारा ख़ूब पसंद की जा रही है।
अनमोल- काम, परिवार, पत्रिका, लेखन….इन सबके बीच कैसे तालमेल बिठाती हैं?
डॉ. भावना- काम, परिवार, पत्रिका और लेखन के साथ तालमेल बिठाना आसान नहीं है। सच कहूँ, तो लेखन सबसे दूरूह कार्य है और इस क्षेत्र में अर्थ के नहीं होने से इसे उचित सम्मान भी नहीं मिलता। सामान्य लोगों की नज़र में हम जैसे लोग ‘एलियन’ होते हैं, जिसकी दुनिया तमाम व्यस्तताओं के बावजूद पढ़ने-लिखने पर जाकर ही ख़त्म होती है। किसी लेखक के मुकाबले लेखिकाओं के लिए लिखना और भी ज़्यादा कठिन है। उदाहरणस्वरूप आपके भीतर कई विचार कुलबुला रहे हैं और आपके घर में कुछ मेहमान आ जाएं! आप क्या करेंगे? किसे समझाएंगे कि आप अभी मेहमानवाज़ी करने के लिए तैयार नहीं हैं। पर, यही तो संघर्ष है। मेरी अधिकांश ग़ज़लें सब्जी बनाते या रोटी बेलते ही जन्म लेती हैं। तब वहीं कहीं किसी अखबार के टुकड़े पर उसे लिख लेती हूँ। बाद में, उसे डायरी में लिखती हूँ।
अनमोल- अपने परिवार के बारे में भी कुछ बताएँ। साहित्य को लेकर घर में कैसा माहौल है।
डॉ. भावना- परिवार में मेरे पति डॉ. अनिल कुमार एक चिकित्सक हैं, जो जनरल सर्जरी के विशेषज्ञ हैं। एक बेटी आद्या आठवीं में पढ़ती है। एक चिकित्सक के घर में साहित्यिक माहौल को ढूँढना रेगिस्तान में पानी ढूँढना है। हमारे घर में दिन-रात मरीजों की चर्चा होती है। मेरी बेटी तक को पता है कि एट्रोपीन पर गया है तो मरीज ऑपरेशन थिएटर में शिफ्ट हो गया होगा और उसके पिता हर काम को छोड़ते हुए ऑपरेशन के लिए जाएँगे। जहाँ मेडिकल फील्ड कटु यथार्थ पर टिका हुआ है। वहीं साहित्य कल्पना की सबसे ऊंची उड़ान है। ऐसी स्थिति में मुझे साहित्य के लिए ख़ुद ही माहौल तैयार करना होता है। दिनभर की व्यस्ततम दिनचर्या में रात के 12:00 बजे के बाद ही साहित्य के लिए वक्त निकाल पाती हूँ। यूँ तो कुछ शेर कभी भी, कहीं भी हो जाते हैं। सभी को एकत्रित कर, उनको सजाने-संवारने का काम, अक्सर रात में ही होता है। रात की नीरवता मुझे बहुत पसंद आती है। रात मुझे हमेशा से बहुत रहस्यमयी लगती है, जिसमें सुब्ह के आने की आहट-सी होती है। दूसरे शब्दों में कहूँ तो यह एक इंटरफेज है, जहाँ सारी महत्वपूर्ण क्रियाओं के प्रारूप तैयार होते हैं। हाँ, अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में बताऊं तो मेरी माता डॉ. शांति कुमारी हिंदी की शिक्षिका हैं, जिसकी वज्ह से बचपन से ही मुझे साहित्यिक माहौल मिला। पत्र-पत्रिकाएँ जीवन का हिस्सा बनीं। घर में हमेशा साहित्यिक आयोजन होते रहते थे। स्वभाविक है, कविता-ग़ज़ल की तरफ मुखातिब होती चली गई। पढ़ने का कीड़ा बचपन से ही मेरे भीतर विद्यमान था। जिस उम्र में लड़कियाँ सहेलियों के साथ खेलना पसंद करती हैं, मुझे किताबों से दोस्ती हो गई। पर, आज हालात भिन्न हैं। शादी के बाद स्त्रियों को अपने नए जीवन के अनुरूप चलना होता है और चलना भी चाहिए। मैं अपनी पारिवारिक ज़िम्मेदारियों के साथ साहित्य सेवा के लिए कृतसंकल्प हूँ। विपरीत परिस्थितियों में आगे बढ़ने का मज़ा ही कुछ और है।
अनमोल- आपसे साहित्यिक चर्चा करके बहुत अच्छा लगा। ‘हस्ताक्षर’ और उसके पाठकों को समय देने के लिए आपका शुक्रिया।
डॉ. भावना- ‘हस्ताक्षर’ परिवार को भी मेरी तरफ़ से साधुवाद।
– डॉ. भावना