जो दिल कहे
आज के परिवेश में कृष्ण, राधा और मीरा……!!
कई दिनों से सोच रहा था कि इस विषय पर कुछ लिखूँ। अक्सर लोगों को उदाहरण देते सुनता हूँ, देखता हूँ या यूँ समझ लीजिए कि एक तरह से खुद और दूसरों के प्रेम की तुलनात्मक व्याख्या करते देखता हूँ कृष्ण-राधा के प्रेम से और मीरा के प्रेम से….!! समझ नहीं आता ये ऐसा क्यूँ कर करते हैं? प्रेम, प्रेम होता है और हमेशा अपनी तरह का होता है। न राधा ने मीरा की तरह किया…न मीरा ने राधा की तरह…और न ही कृष्ण ने किसी की तरह। फिर हम ही क्यूँ सारा समय अपने या किसी और के प्रेम को उनसे या फिर किसी से मिलाने में लगे रहते ह? हम अपनी तरह प्रेम क्यूँ नहीं कर सकत? एक इंसान की तरह….! शायद हमारे पास इस बारे में सोचने का वक़्त बहुत ज्यादा है क्यूँ कि जो प्रेम करता है वो बस प्रेम ही करता है…खुद को या किसी और को किसी से मिलाता नहीं। दरअसल उसके पास वक्त ही नहीं रहता इन सब बातों के लिए।
बेचारे कृष्ण-राधा भी परेशान होंगे कि वो क्या कर गए…जो आज का इंसान अपने प्रेम की तुलना उनके प्रेम से करता है। आप अपने अगल-बगल नज़र डालेंगे तो देखने में आएगा कि युवा ज्यादातर लैला-मजनू और रोमियो-जूलियट की बातें करते हैं…वैसे भी वो इन सब उदाहरणों में नहीं उलझते क्यूंकि जब वो प्रेम करते हैं तो उनका केंद्र एकमात्र उनका प्रेम ही होता है। फिर इस तरह के प्रेम की बातें करता कौन है ? समाज में ज्यादातर कृष्ण-राधा को उदाहरण स्वरुप कौन प्रस्तुत करता है ? हाँ…याद आया…सबसे ज्यादा हिम्मत तो पटना विश्वविद्यालय के प्रो. बटुकनाथ और उनकी शिष्या जुली ने दिखाई जो इस प्रेम के ज्वलंत उदाहरण हैं….बाकी सब चोरी छुपे करते हैं और केवल बातें ही करते है इस तरह के प्रेम की। एक ऐसा प्रेम जिसके बारे में उन्होंने सुना है, कल्पना की है….जिसे वो जी न सके और उसे ही जीने का ख्वाब देखते हुए बाकी की जिंदगी बिता रहे हैं। फिर खुद को समझाने के लिए ग़ालिब ये ख्याल अच्छा है तो कृष्ण-राधा क्या बुरे हैं। अब शादीशुदा स्त्री या पुरुष आज के दिन में छुपा के ही प्रेम करेंगे न। तमाम तरह के बंधन हैं उनके ऊपर..पारिवारिक…सामाजिक..सामाजिक प्रतिष्ठा..और भी न जाने कितने। अब इतनी बातों को दांव पे तो लगा नहीं सकते। बस अपने आप को जायज (justify) ठहराने का और खुद को अपराध-बोध (gilt) से निकालने का एक सरल…सहज…और उत्तम तरीका है कि इस प्रेम को राधा-कृष्ण से जोड़ दीजिए, अपने इस प्रेम को आध्यात्मिक दिखाइए,बताइए,खुद को समझाइये और खुद को हर बात से मुक्त कर लीजिए।
जैसा कि हम जानते हैं कि राधा और मीरा दोनों ही विवाहित थीं और अपने प्रेम और भक्ति (मीरा के लिए) के प्रति आस्था और समर्पण था उनमें। कोई चोरी न थी…न ही परिवार के लोगों से छलावा….मीरा अपने साथ कृष्ण की मूर्ति ले कर ही ससुराल गयीं थीं और राधा घर के कामकाज के बीच में ही मुरली की धुन सुन कर चल देती थीं न कि चोरी-चुपके या किसी से छुपा के। आज जब राधा-मीरा के प्रेम की बात होते देखता हूँ लोगों के बीच तो समझ नहीं पाता हूँ कि अपने प्रति हम कितने सच्चे हैं…अपने प्रेम के प्रति कितने सच्चे हैं…..और अपने संबंधों के प्रति हम कितने सच्चे हैं। हमें क्या हक है कि हम कृष्ण, मीरा और राधा से तुलना करें अपनी जबकि हमारी सच्चाई कुछ और ही है…उनसे एकदम भिन्न। लेकिन हम भी मजबूर हैं अपने लिए तो उदाहरण भी एकदम ऊंची श्रेणी का ही चुनते हैं।
देखा जाए तो उस समय भी तो इन संबंधों को मान्यता नहीं दी जाती थी….न दी गयी थी। इन प्रेम प्रसंगों में भी कई तरह की बातें आती हैं सामने…मीरा और राधा के साथ उनके घर वालों का सलूक (अगर ये बात सच है तो ) उदाहरण है इसका। फिर भी देखा जाए तो कृष्ण ने कभी भी चुपके से बांसुरी नहीं बजायी थी और न ही चोरी से रास ही रचाया था राधा और गोपियों के संग…उनकी मुरली की तान थी ही इतनी मोहक कि लोग खींचे चले जाते थे…क्या पशु-पक्षी क्या इंसान। अब इसमें बेचारी राधा और गोपियाँ बेबात बदनाम हो गयीं। और अगर ये बात सच है तो उस समय जो हाल उन सबका हुआ था अगर आज भी वैसी ही परिस्थिति हो जाये तो आप भी वैसा ही करेंगे शायद।
जरा कल्पना कर के देखिये कि हमारे-आपके पति या आपकी पत्नी हमें घर में छोड़ कर किसी अन्य पुरुष या स्त्री के साथ नृत्य समारोह में जाए और रात में देर से घर आये तो क्या हम-आप उसे राधा या कृष्ण मान कर घर में बड़े प्रेम से आने देंगे…और कितने दिन तक? अब आप कहेंगे कि उनकी बात अलग थी…उनके प्रेम का स्वरुप अलग था लेकिन आप कैसे अपने पति या पत्नी के प्रेम के स्वरुप को पहचानेंगे…क्या आप में भी वो दिव्य दृष्टि है जिससे कि आप उनके प्रेम को सही मान कर स्वीकारे या गलत मान कर नकार दें। यदि हमारी-आपकी पत्नी या पति अपने पहले प्रेमी की फोटो लेकर के आपके बेडरूम में लगा दे और सारा समय उसी में लीन रहे तो हमारी-आपकी प्रतिक्रिया क्या होगी? अब आप ही सोचिये कि आज अगर सचमुच में भी आकर कृष्ण बांसुरी बजाएं और पत्नी अभिभूत हो कर सब काम-धाम छोड़ कर रोज रासलीला के लिए चली जाए घर से…और लौट के जब आये तो क्या हम उसे बड़े प्रेम से स्वागत करेंगे? ….फिर ऐसी परिस्थिति में क्यूँ आज प्रेमी से मिल कर लौटी पत्नी हमें राधा नहीं लगेगी…या लगती है।
भले ही प्रेम का स्वरुप मान कर हम राधा कृष्ण की पूजा करें…लेकिन सही मानिये तो ये किसी से भी संभव नहीं होगा। अब ऐसे में फिर कोई उपाय नहीं बचता कि इस तरह के प्रेम को समाज से…घर वालों से छुपाया जाए क्यूँ कि इसके सार्वजानिक होने से आपकी सामाजिक और पारिवारिक प्रतिष्ठा पर आंच आती है…और यहीं पर हम राधा-कृष्ण का उदाहरण देते नज़र आते हैं क्यूँ कि इस तरह के प्रेम के लिए हमें उनसे बेहतर उदाहरण नहीं मिलता जिससे हम अपनी नज़र में ऊँचे बने रहें और समाज की नज़र में साफ़-सुथरे। आज हम, हमारी परिस्थिति और हमारी मन:स्थिति उनसे सर्वथा और सर्वदा भिन्न है फिर भी बड़ी आसानी से एक तरह से हम अपने आप को जायज (justify) कर लेते हैं और अपराध-बोध (gilt) से भी बच जाते हैं….लेकिन जिन कृष्ण, राधा और मीरा की बात करते हम नहीं आघाते उनकी तरह के प्रेम से उतनी ही दूर होते जाते हैं क्यूँ कि हममें उनकी तरह समाज और परिवार की अवहेलना सहने की शक्ति ही नहीं होती है। बड़े मज़े की बात तो यह है कि किसी दूसरे के प्रेम को देखने में हमारी यही उदार सोच संकीर्ण हो जाती है। असल में हम अपने अलावा किसी और में कृष्ण, राधा और मीरा देखने की दृष्टि ही नहीं पा सके….संकुचित दृष्टि और सीमित सोच। क्यूँ नहीं राह चलते एक नटखट बालक को ( जिसे हम बदमाश कहते हैं ) किसी बालिका ( गोपिका ) का दुपट्टा खींचने पर कृष्ण की उपाधि दे पाते…पास पड़ोस की आंटी जी के यहाँ से अपनापन में कुछ भी उठा लेने पर एक बच्चे में ( जिसे हम असभ्य कहते हैं ) बाल कृष्ण का रूप नहीं देख पाते….अपने प्रेमी से मिल कर लौटी अपनी ही पत्नी में ( जिसे हम बदचलन कहते हैं ) राधा सा निश्छल प्रेम का स्वरुप नहीं देख पाते…? दरअसल हमने अपने जीवन में दोहरे मापदंड बनाये हैं…अपने लिए कुछ और और दूसरों के लिए कुछ और। लेकिन जब इसी तरह की परिस्थिति हमारे अपने सामने आये तो मीरा, राधा-कृष्ण ने अपने प्रेम के सारे दरवाजे हमारे लिए खुले छोड़ दिए हैं।
प्रेम के उदाहरणार्थ हम बात करते हैं कृष्ण, राधा और मीरा की। हमें मालूम है कि इस संसार में मीरा की भक्ति सर्वोपरि है…एक ऐसी भक्ति जिसमें अपने आराध्य के लिए सर्वस्व समर्पण की उद्दाम शक्ति और कामना थी….जिन्हें कृष्ण भक्ति और प्रेम के आगे कुछ भी नहीं सूझा…न परिवार…न संसार। कहीं कोई छुपाव-दुराव नहीं था…न परिवार से…न ही संसार से। एक निश्छल…स्वच्छ…निर्बाध भक्ति और प्रेम। कितने कष्ट उठाये मीरा ने कृष्ण-भक्ति और प्रेम ( हम ईश्वर से भी प्रेम ही करते हैं ) के लिए…ये किसी से छुपा नहीं है। आज किसके पास है इस तरह का प्रेम…किसके पास ऐसी भक्ति..? राधा और कृष्ण….प्रेम की भावना….एक चेतना स्वरुप…एक दूसरे में समाहित। प्रेम की वह धारा जो बाहर बहते-बहते अंतर्मुखी हो जाए…जिससे इंसान पूर्णत: प्रेम स्वरुप हो जाए…वह राधा….जो हर इंसान के अंदर है…थोड़ा कम…थोड़ा ज्यादा….लेकिन है सबमें। बस एक इंसान ही है जो इसका भी वर्गीकरण कर लेता है।
सबसे ज्यादा दुविधा तब हो जाती है जब हम उन्हें एक चरित्र समझ कर अपनी ही परिस्थिति, अपनी मन:स्थिति में उनका समावेश करने लगते हैं….अब खुद को आप जब कृष्ण या राधा या मीरा मानने लगिये तो सोच लीजिए कि क्या हाल होगा। पहले उनके जैसी सच्चाई तो हम उतारे अपने जीवन में, अपने संबंधों में…फिर बात करें तो उचित होगा। उम्मीद तो हमें अपने हर संबद्ध से नैसर्गिक प्रेम की ही होती है परन्तु जब संबंधों की नींव ही झूठ,छलावे और चोरी के आधार पर रखी गयी हो तो उनमें कृष्ण सा प्रेम कहाँ और राधा सा समर्पण कहाँ…या मीरा सी भक्ति कहाँ….?
भले ही प्रेम का स्वरुप मान कर हम राधा कृष्ण की पूजा करें लेकिन सही मानिये तो ये किसी से संभव नहीं है।
………वेलेंटाइन डे (मदनोत्सव) की हार्दिक बधाई!
– नीरज कृष्ण