जो दिल कहे
आज का बुद्धिजीवी वर्ग और सोशल मीडिया
क्या कभी हमने फ़्रांसीसी मूर्ति-शिल्पकार अगस्त रोदीं की ‘The Thinker’ (Le Penseur) मूर्तिशिल्प पर ध्यान दिया है? क्या हमारे आज के बुद्धिजीवी वर्ग ने अथवा प्रजातंत्र के चौथे स्तंभ नें इस अद्भुत मूर्तिशिल्प पर कभी लिखने या व्याख्या करने की हिमाकत की? फ़्रांसीसी मूर्तिशिल्प कलाकार अगस्त रोदीं का यह मूर्तिशिल्प ‘The Thinker’— ‘जिसमें एक निर्वस्त्र व्यक्ति को अपने हाथ पर ठोड़ी टिकाये के कुछ चिंतन करते दिखाया गया है’।
प्राचीन ग्रीस का शहर अपने बुद्धिजीवियों के लिए काफी चर्चित हुआ करता था। एक बार वहां के प्रबुद्ध निवासियों ने देखा कि ग्रीस का एक विख्यात दार्शनिक डायोजिनिस दोपहर में लालटेन लेकर चल रहा है, तो किसी ने पूछ लिया ‘इस तरह कहां जा रहे हैं’? डायोजिनिस ने जवाब दिया “ज्ञानियों के बीच मनुष्य को खोजने निकला हूँ”।
बुद्धिजीवी कहने पर जिस तरह रूसो, सार्त्र, बर्तेड रसेल या भारतीय संदर्भ में कबीर, राजा राममोहन राय, भारतेंदु हरिश्चंद्र, रविंद्रनाथ, नर्मद, प्रेमचंद, नागार्जुन, मुक्तिबोध आदि का बिंब बनता है, आज के समय में उस तरह की बौद्धिकता देखने को नहीं मिलती। आखिरकर बुद्धि और तर्क से सोचने की जो परंपरा उन्नीसवीं सदी के नवजागरण काल में बनी थी वह आज मिटती क्यों जा रही है?
कभी बुद्धिजीवियों के पास सिद्धांत और विश्वास थे। वे देश, समाज और शासन के बारे में आलोचनात्मक ढंग से सोचते थे। पहले हर बुद्धिजीवी पूर्वाग्रह मुक्त चिंतक होता था। बुद्धिजीवी वह है जो तर्क से सोचता है, बौद्धिक स्वतंत्रता के लिए जीता और मरता है। वह इस स्वतंत्रता को कहीं बंधक नहीं रखता। बुद्धिजीवी को उसकी बुद्धि, उसका आंतरिक विवेक ही सत्य और न्याय का मार्ग दिखाता है। यह बुद्धि है जो उसे सच-झूठ बताती है, छल और लोभ से बचाती है। बुद्धिजीवी का काम है बुद्धि से से धर्म और नैतिकता के गुणों को तय करना, बुद्धि से ही राजनीति करना। उसका काम है बुद्धि को बाजार के प्रलोभनों और राजनीति के शॉर्टकट से दूर रखना, क्योंकि बाजारतंत्र और राजनीतिक रणनीति का अंग बनते ही बुद्धिजीविता परजीविता में बदल जाती है।
समय के परिवर्तनों के साथ-साथ बुद्धिजीवी समाज में मध्यम वर्ग का एक बड़ा हिस्सा शामिल हुआ उसमें चिंतनशील लेखकों, वैज्ञानिकों, आंदोलनकारियों के अलावा बड़े पैमाने पर शिक्षक, न्याय विद, इंजीनियर, शिल्पी, डॉक्टर, सरकारी अफसर, राजनीतिज्ञ आदि भी शामिल किये जाने लगे, जिसका यह परिणाम हुआ कि बुद्धिजीविता (विचार) चाट-पकौड़ी की तरह जीभ के स्वाद बदलने वाली जैसी स्थिति बन गयी।
ग्राम्शी ने जन संगठन से जुड़े ‘ऑर्गेनिक इंटेलेक्चुअल’ की धारणा दी थी, जिसमे अनुसार कई संस्थाएं एवं लोग एनजीओ के माध्यम से जुड़े हैं। उत्तर-औपनिवेशिक सबाल्टर्न सिद्धांतों के तहत ‘सामुदायिक बुद्धिजीवी’ की भी एक श्रेणी बनी- जिसके अनुसार ‘जनता के जितने टुकरे, उतने ही प्रकार के बुद्धिजीविता’। आजकल एक नयी किस्म की बुद्धिजीविता पनपी है जो सभी तरह से शिक्षित और सुखी ‘एलिट बुद्धिजीवी’ होते हैं। जिनका एक काम आनंद पूर्वक गरीबी पर बहस चलाए रखना है। ये ‘एलिट बुद्धिजीवी’ वातानुकूलित कमरों में, लाल कालीन पर बैठ कर गरीबी का पैमाना और गरीबी के उन्मूलन पर शिद्दत से मंथन करते हैं जिन्होंने गरीबी को दूर से भी नहीं देखा है। कुछ बुद्धिजीवी राजनीतिक दलों के ‘थिंक टैंक’ की श्रेणी में आते हैं।
एक श्रेणी ‘सोशल मीडिया का बुद्धिजीवी’ है। आज कुछ तथाकथित विचारक/व्यक्ति जो ‘चेन स्मोकिंग’ की तरह सोशल मीडिया पर लगातार लिखते रहते हैं और उन्माद निर्मित करते हैं। यहाँ तथ्य, तर्क और बुद्धि से कोई संबंध बचा नहीं होता। देखा जा सकता है कि आज सोशल मीडिया ने एक भयावह बौद्धिक माहौल पैदा कर दिया है। इसका दुरुपयोग ज्यादा हो रहा है। यह मनुष्य को कुछ नहीं सिर्फ खोखला करता है।
वर्तमान दौर में अधिकांश बुद्धिजीवियों की एक खूबी यह है कि वे तथ्यों को दबाने, इच्छानुसार तथ्य चुनने और झूठ के प्रचार की कला में माहिर हैं। सोशल मीडिया ने बुद्धिजीवी वर्गों का काफी विस्तार किया है। यह जबरदस्ती एक ऐसी अदालत बनी हुई है, जहां मुकदमा की शुरुआत में ही फैसला सुना दिया जाता है और तथ्यों तथा तर्क की कोई जरूरत नहीं होती। भीड़ का न्याय सड़क से सोशल मीडिया तक है और भाषा- आतंकवाद चला रहा है। इस पर वैचारिक चोट करती प्रेमचंद की कहानी ‘शतरंज के खिलाड़ी’ के मिर और मिरजा साहब की याद दिलाती है। दोनों नवाब विपत्तिओं से घिरे लखनऊ शहर से काफी दूर जाकर आराम से शतरंज खेलते रहते हैं और खेलते-खेलते ही उनकी झड़प हिंसक हो जाती है।
प्रेमचंद ने कहा था, ‘इंटेलिजेंसिया में जो भी शक्ति आती है वह जनता से आती है’। किसी एक फिल्म की गीत भी है न- ‘ये पब्लिक है…….सब जानती है’! जनता अज्ञानी नहीं है, वह सब समझती है, क्या वर्तमान के परिपेक्ष्य में भी यह बात कही जा सकती है? आज बाजार और राजनीति दोनों ओर से अज्ञानता के बड़े पैमाने पर निर्माण किया जा रहा है। इसका भी किसी तकनीकी साधनों के द्वारा प्रचार किया जा रहा है। बड़ी संख्या में लोग इस प्रचार के समुद्र में डुबकियाँ लगा रहे हैं। वे जाति, धर्म, क्षेत्रीयता आदि की मिथ्या भेदभाव पूर्ण भावनाओं से घिरते जा रहे हैं और हिंसा से भरे हुए हैं। क्या ऐसे उन्मादी लोगों से बुद्धिजीवी अपने को जोड़ सकते हैं?
रूसो, प्लेटो,…..सार्त्र ये सब ऐसे विचारक थे जिन्होंने लिख-लिख कर अपने देश के भाग्य को बदल दिया था। इतिहास साक्षी है कि लिखने वालों से सदैव सरकारें डरी है और संयोग से नव-उदारवादी युग में आधुनिक तकनीक ने हमे एक ऐसी मंच से रूबरू कराया है जिसका हम प्रयोग देश के बौद्धिक समृद्धि के लिए कर सकते थे, जिसके प्रभाव से सरकारें डरने लगी हैं, पर दुर्भाग्य से अब यह मंच खुद ही दुर्भावनाओं का शिकार बन चुकी है। इन्ही सभी संभावित खतरा को भांप कर सार्त्र से आगे बढ़कर नोआम चामस्की ने आधुनिक समय में कहा कि ‘बुद्धिजीवी अब राजनीतिक खाद्य वस्तु और सत्ता प्रतिष्ठान के पोषक तत्व होते हैं’। आज यह दृश्य सर्वव्यापी दृष्टिगोचर हो रही है।
इतना अवश्य कहूंगा— लिखें और अवश्य ही खूब लिखें, पर सार्थक लिखें। तथ्य-परक एवं तथ्य-पूर्ण लेखन होनी चाहिए। आज सौभाग्य से पृथ्वी पर सबसे पुरानी हमारी सनातन सभ्यता है। इसी सनातनी परंपरा ने असंख्य मनीषियों ने अवतरण लिया, जिन्होंने राष्ट्र-हित में राज-धर्म हेतु असंख्य साहित्यों का सृजन किया। अंगरेजों ने, मुगलों ने उस अद्भुत साहित्य को हमें एक साजिस के तहत पढने से वंचित करने हेतु धार्मिक आवरण पहना दिया ताकि हम अपने मनीषियों के लिखे ग्रंथों से कुछ भी न सिख सकें और इसका जो सबसे बड़ा दुष्परिणाम हुआ कि हमने पढ़ना/स्वाध्याय छोड़ दिया और हम पढेंगे नहीं तो लिखना भी असंभव ही है।
अन्यथा, जुकरबर्ग जैसे मीडियाशाहों को कहा जाना चाहिए कि यदि सचमुच मानवता के लिए चिंतित है तो फेसबुक, व्हाट्सएप जैसी जगहों के खुलते ही यूजर को सबसे पहले पढ़ने को मिले- ‘यह चेतना के लिए हानिकारक हो सकता है’…..ठीक उसी प्रकार जैसे सिगरेट के डिब्बे पर सिगरेट पीने वालों के लिए वैधानिक चेतावनी लिखी हुई होती है- इसका सेवन स्वस्थ्य के लिए हानिकारक है।
– नीरज कृष्ण