धरोहर
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की हिन्दी पत्रकारिता – डाॅ. मुकेश कुमार
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का जन्म 15 मई सन् 1864 ई. को उत्तर प्रदेश के रायबरेली जनपद के दौलतपुर में पं. रामसहाय द्विवेदी जी के घर में हुआ। पिताश्री राम सहाय द्विवेदी महावीर हनुमान के परम भक्त थे। इसी कारण उन्होंने अपने पुत्र का नाम ‘महावीर सहाय’ रखा था जो बाद में कक्षा अध्यापक की भूल से महावीर प्रसाद द्विवेदी हो गया। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के आधे घंटे बाद जातकर्म होने से पूर्व पंडित सूर्यप्रसाद द्विवेदी नामक ज्योतिषी ने सरस्वती का बीज मंत्र उनकी जिह्वा पर अंकित कर दिया था। उस ज्योतिष की विद्या पूर्ण रूप से सत्य हुई। बालक महावीर प्रसाद द्विवेदी की शिक्षा की कोई समुचित व्यवस्था न हो सकी। प्रारम्भ में उन्होंने घर पर ही संस्कृत की ‘दुर्गासप्तशती’, ‘विष्णुसहस्रनाम’, ‘शीघ्रबोध’ तथा ‘मुहूर्त चिन्तामणि’ आदि पुस्तकें कंठस्थ कर लीं। प्राथमिक शिक्षा गाँव में उत्तीर्ण करने के उपरांत उन्होंने तेरह वर्ष की अवस्था में अंग्रेज़ी पढ़ने के लिए अपने ग्राम से दूर रायबरेली में प्रवेश लिया। फिर विभिन्न विद्यालयों में अध्ययन किया। अन्त में पढ़ाई छोड़ने के उपरांत अजमेर जाकर पन्द्रह रुपए मासिक में रेलवे की नौकरी कर ली। कुछ दिनों बाद बम्बई में टेलीग्राफ की विधि सीखकर जी.आई.पी. रेलवे में तार बाबू हो गए। योग्यता एवं कुशलता के कारण उन्होंने उन्नति की। “तदनन्तर होशंगाबाद तथा इटारसी में रहकर वे झाँसी आ गये और जी.आई.पी. रेलवे के ‘डिस्ट्रिक्ट ट्रैफिक सुपरिन्टेंडेंट’ के कार्यालय में टेलीग्राफ इंसपैक्टर हो गए। नये प्रकार के लाईन क्लियर का आविष्कार करके इन्होंने वहाँ भी अपनी प्रतिभा का परिचय दिया। झाँसी में रहकर उन्होंने बंगला, मराठी, संस्कृत-काव्य तथा अलंकारशास्त्र का गंभीर अध्ययन किया। अपने साहित्य-साधना के क्रम में उनकी संस्कृत की अनेक पुस्तकों की समीक्षाएं प्रकाशित हुयीं।”1
सरस्वती पत्रिका का प्रकाशन इंडियन प्रेस, प्रयाग से 1900 ई. में शुरू हुआ। ‘सरस्वती’ उस युग की हिन्दी भाषा और साहित्य की प्रतिनिधि पत्रिका थी, इसलिए हिन्दी भाषी प्रदेश में चलने वाले स्वाधीनता आन्दोलन के रवैये को जानना इस पत्रिका का मुख्य उद्देश्य था। बाबू चिन्तामणि घोष ने जब पुस्तकों के मुद्रण और प्रकाशन के क्षेत्र में अपने पैर जमा लिये तब उनके मन में एक सचित्र मासिक पत्रिका निकालने की बात आई। क्योंकि बंगवासी होने के कारण वे हिन्दी के लेखक जगत् से उतने परिचित नहीं थे। शायद यही कारण था कि उन्होंने नागरी प्रचारिणी सभा, काशी के समक्ष पत्रिका के प्रकाशन का प्रस्ताव रखा। नागरी प्रचारिणी सभा ने सम्पादन करने की बात को स्वीकार कर लिया। परन्तु प्रकाशन की जिम्मेदारी से इन्कार कर दिया और यह विचार हुआ कि सभा एक सम्पादक मंडल तैयार कर देगी। अच्छे संयोग से पहले साल में उसका सम्पादक मंडल तैयार किया गया, जिसमें बाबू कार्तिक प्रसाद खत्री, राधाकृष्ण दास, किशोरी लाल गोस्वामी, जगन्नाथ दास रत्नाकर और बाबू श्यामसुंदर दास जैसे साहित्य के पिपासु थे। परन्तु सम्पादकीय मुद्दों पर आपसी मतभेद होने के कारण सम्पादक समिति टूट गयी। जनवरी 1901 से बाबू श्याम सुंदरदास ने स्वतंत्र सम्पादन किया। सन् 1902 के अन्त में उन्होंने आर्थिक तंगी और समयाभाव के कारण उसके सम्पादन से अलग होने की इच्छा जाहिर की। इस प्रकार सन् 1903 में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के कंधों पर सम्पादकीय भार आ गया। द्विवेदी जी ने 1903 से 1920 तक ‘सरस्वती’ पत्रिका में काफी मेहनत और ईमानदारी के साथ कार्य किया, जो हिन्दी जगत् में सूर्य के समान चमक उठी। 21 दिसम्बर सन् 1938 ई. को आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने इस संसार से सदा के लिए विदा ले ली।
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की प्रमुख कृतियाँ
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की प्रमुख कृतियों में ‘कुमार संभवसार’, ‘नैषधचरित चर्चा, ‘विक्रमांकदेव चरित चर्चा’, ‘कालिदास की निरंकुशता’, ‘किशतांर्जुनीय की टीका’ और ‘मेघदूत की टीका’ के अतिरिक्त ‘स्वाधीनता और शिक्षा’ आदि उल्लेखनीय है। उनके समीक्षात्मक तथा वर्णनात्मक निबंधों के संग्रह ‘अद्भूत’ आलाप, आध्यात्मिकी, आलोचनाजंलि, कोविद कीर्तन, नाट्यशास्त्र, प्राचीन चिन्ह, प्राचीन पंडित और कवि, पुरातत्व-प्रसंग, रसज्ञ-रंजन, लेखांजलि, विचार-विमर्श, साहित्य-संदर्भ, साहित्य-सीकर, सुकवि संकीर्तन तथा ‘हिन्दी भाषा की उन्नति’ विशेष उल्लेखनीय है। ‘सुमन’, ‘कविता कलाप’, ‘द्विवेदी काव्यमाला’ और ‘काव्यमंजूषा’ नामक द्विवेदी जी के काव्य-संकलन हैं। ‘जल चिकित्सा’, ‘वनिता विलास’, ‘नगर विलास’, ‘विदेशी विद्वान’, ‘विज्ञान वार्ता’, ‘वैचित्र्य चित्रण’, ‘सम्पत्तिशास्त्र’ तथा ‘हिन्दी महाभारत’ आदि पुस्तकों का हिन्दी के बहुमुखी विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान है। इन पुस्तकों के अतिरिक्त ‘विनय विनोद’, ‘विहार वाटिका’, ‘स्नेहमान भामिनी विलास’, ‘ऋतुतंरगिणी’ आदि अनुवादित पुस्तकें हैं। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की संस्कृत में प्रकाशित रचनाओं में ‘देवी स्तुतिशतक’, ‘कान्यकुब्जावली’, ‘व्रतम्’ तथा ‘समाचार का सम्पादन स्वतः’ आदि प्रमुख हैं।”2
सरस्वती पत्रिका का प्रादुर्भाव
बाबू चिन्तामणि घोष के मन में विचार आया कि एक सचित्र मासिक पत्रिका निकाली जाये, जिसका नाम ‘सरस्वती’ रखा जाए। ‘सरस्वती’ का प्रकाशन जनवरी 1900 ई. में प्रारम्भ हुआ। काशी नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा सम्पादक मण्डल के सदस्यों की नियुक्ति की गई जिसमें बाबू श्यामसुंदर दास, पं. किशोरीलाल गोस्वामी, बाबू कार्तिक प्रसाद खत्री, बाबू राधा कृष्णदास तथा जगन्नाथदास रत्नाकर का सम्पादक मण्डल बनाया। जिसने प्रथम वर्ष इसका सम्पादन किया। सम्पादन का काम काशी में ही होता था। सारी लिखा-पढ़ी बाबू श्यामसुंदर दास ही करते थे। सम्पादन कार्य के व्यय के लिए इंडियन प्रेस बीस रुपए मासिक देता था, जो डाक व्यय आदि में खर्च होता था। इसका पूर्णतः हिसाब प्रतिमाह प्रेस को भेज दिया जाता था।”3
जहाँ तक ‘सरस्वती’ के जन्म का सवाल है तो जनवरी 1900 की ‘सरस्वती’ में उसकी सम्पादक समिति ने जो भूमिका लिखी उसमें कहा गया है, “परम कारूणिक सर्वशक्तिमान जगदीश्वर की अशेष अनुकम्पा से ही ऐसा अनुपम अवसर प्राप्त हुआ है कि आज हम लोग हिन्दी भाषा के रसिकजनों की सेवा में नये उत्साह से उत्साहित हो एक नवीन उपहार लेकर उपस्थित हुए हैं, जिसका नाम ‘सरस्वती’ है। भरतमुनि के इस महावाक्यानुसार कि ‘सरस्वती’ श्रुति महती न हीयताम’ अर्थात् सरस्वती ऐसी महती श्रुति है कि जिसका कभी नाश नहीं होता, यह निश्चय प्रतीत होता है कि यदि हिन्दी के सच्चे सहायक और उससे सच्ची सहानुभूति रखने वाले सहृदय हितैषियों ने इसे समुचित आदर और अनुरागपूर्वक ग्रहण कर यथोचित आश्रय दिया तो अवश्यमेव यह दीर्घ जीवनी होकर निज-कर्तव्य पालन से हिन्दी की समुज्ज्वल कीर्ति को अचल और दिगंतव्यापिनी तथा स्थायी करने में समर्थ होगी।” जहाँ तक ‘सरस्वती’ में प्रकाशित होने वाले विषयों के निर्धारण का प्रश्न है तो सम्पादक समिति ने लिखा है- “यह केवल इसी से अनुमान करना चाहिए कि इसका नाम सरस्वती है। इसमें गद्य, पद्य, काव्य, नाटक, उपन्यास, चम्पू, इतिहास, जीवन, चरित, पंच, हास्य, परिहास, कौतुक पुरावृत्त, विज्ञान, शिल्प, कला, कौशल आदि साहित्य के यावतीय विषयों का यथावकाश समावेश रहेगा और आगत ग्रंथादिकों की यथोचित समालोचना की जाएगी।”4
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी और सरस्वती पत्रिका
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी ने जनवरी 1903 से ‘सरस्वती’ के सम्पादन का भार संभाला। वे बाबू श्यामसुंदर दास के साथ सहयोग बनाकर झाँसी से प्रकाशन करते रहे। परन्तु अक्तूबर 1904 के अंक में ‘सभा की खोज’ रिपोर्ट के प्रकाशन पर द्विवेजी जी तथा बाबू श्यामसुंदरदास में आपसी मतभेद हो गया। परिणाम स्वरूप जनवरी 1905 ई. से ‘सरस्वती’ पत्रिका से नागरी प्रचारिणी सभा काशी का समर्थन समाप्त हो गया। फिर भी सरस्वती से सहयोग बनाए रखने का बाबू श्यामसुंदरदास ने आश्वासन दिया।”5
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने ‘आत्म निवेदन’ शीर्षक लेख में लिखा है, “जब मैं झाँसी में था, तब वहाँ के तहसीली स्कूल के एक अध्यापक ने मुझे कोर्स की एक पुस्तक दिखाई। नाम था तृतीय रीडर। उसने उसमें बहुत से दोष दिखाये। उस समय तक मेरी लिखी हुई कुछ समालोचनाएँ प्रकाशित हो चुकी थीं। इससे उस अध्यापक ने मुझसे उस रीडर की भी आलोचना लिखकर प्रकाशित करने का आग्रह किया। मैंने रीडर पढ़ी और अध्यापक महाशय की शिकायत को ठीक पाया। नतीजा यह हुआ कि उसकी समालोचना मैंने पुस्तकालय में प्रकाशित की। इस रीडर का स्वत्वाधिकारी था- प्रयाग का इंडियन प्रेस। अतएव इस समालोचना की बदौलत इंडियन प्रैस से मेरा परिचय हो गया और कुछ समय बाद उसने ‘सरस्वती’ पत्रिका का सम्पादन कार्य मुझे दे डालने की इच्छा प्रकट की, मैंने उसे स्वीकार कर लिया।”6 क्योंकि आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी में सम्पादन करने के नैसर्गिक गुण विद्यमान थे।
“कुछ ऐसा हुआ आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी के सम्पादक बनते ही पुराने लेखकों ने ‘सरस्वती’ से सम्बन्ध विच्छेद कर लिए। परिणाम स्वरूप पहले दो वर्षों में उन्हें अधिकांश लेख ख़ुद लिखने पड़े। बाद में काशी नागरी प्रचारिणी सभा ने भी ‘सरस्वती’ से अपना अनुमोदन वापस ले लिया। क्योंकि आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी ने उसकी खोज-रिपोर्टों की कड़ी आलोचना छाप दी थी। लेकिन द्विवेदी जी ने अपने मित्रों और नये लेखकों की वजह से हार नहीं मानी। जहाँ वे नये-नये लेखकों और नयी-नयी विधाओं के सूत्रपात में लगे रहे, वहीं भाषा के मामलों में खड़ी बोली को प्रतिष्ठित करने में लगे रहे। यहाँ तक कि सन् 1907 ई. में आते-आते आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी ने खड़ी बोली को ब्रजभाषा से बिल्कुल मुक्त करा दिया। यही नहीं, भाषा की एकरूपता और व्याकरण के मामले में उन्होंने बड़ा-कड़ा अनुशासन कायम करा दिया। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी ने जहाँ ‘कालिदास की निरंकुशता’ और भाषा एवं व्याकरण में अनस्थिरता को लेकर हिन्दी जगत् में एक तूफान खड़ा कर दिया, वहीं कवियों में मैथिलीशरण गुप्त, रामचरित उपाध्याय, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, रायदेवी प्रसाद पूर्ण, नाथूराम शर्मा शंकर, पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय, ठाकुर गोपाल शरण सिंह तथा कहानीकारों में एक बंग महिला (राजेन्द्र बाला घोष), वृंदावनलाल वर्मा, प्रेमचन्द, चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’, विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक, ज्वालादत्त शर्मा आदि को ‘सरस्वती’ के माध्यम से हिन्दी जगत् के समक्ष उपस्थित किया। हालांकि उनके अतिम दिनों में सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ का हिन्दी-बंगला व्याकरण एक लेख भी ‘सरस्वती’ में प्रकाशित हुआ, लेकिन निराला जी की ‘जूही की कली’ को लौटाने का कलंक भी उनके माथे है। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने अपने पाठकों को देश-विदेश की हर घटना से परिचित कराने के लिए विविध विषयक कितनी ही टिप्पणियाँ लिखीं। सम्पादकीय नोट लिखे तथा अनेक स्तम्भ चलाए।”7
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी के सम्पादन भार संभालने पर ‘सरस्वती’ ने हिन्दी संसार में अपना स्थान बना लिया था। उस समय यह हिन्दी की सर्वश्रेष्ठ पत्रिका मानी जाने लगी थी। लेखों की आदेयता स्वीकार की जा चुकी थी। द्विवेदी के सम्पादन में ‘सरस्वती’ ने हिन्दी पत्रकारिता जगत् में ही नहीं अपितु अहिन्दी क्षेत्रों में भी सम्मान प्राप्त किया और वह हिन्दी की सर्वश्रेष्ठ पत्रिका मानी जाने लगी। किन्तु आरम्भ में द्विवेदी जी को बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। वे स्वभाव से बड़े खरे थे। वे स्पष्ट बात कहने में या साहित्यिक दोष की आलोचना करने में कभी मुरावत नहीं करते थे। इसके साथ ही उनमें आत्माभिमान की मात्रा भी औसत से कुछ अधिक थी। इस वजह से समकालीन लोगों का व्यवहार भी उनके साथ बहुत अच्छा नहीं था। द्विवेदी जी में गंभीरता की भी मात्रा अधिक थी, यह एक गुण भी था क्योंकि वे प्रत्येक उत्तरदायित्व को बड़ी गम्भीरता का गलत अर्थ लगा देते थे परिणाम यह था कि वे अपने सामने धर्मा लोगों में लोकप्रिय नहीं थे और जब उन्होंने सम्पादन कार्य लिया तब सरस्वती के पुराने लेखकों ने उसमें लेख भेजना प्रायः बन्द कर दिया।
‘सरस्वती पत्रिका’ में जहाँ आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने नेहरू के लेख को अस्वीकृत कर दिया था, वहीं सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ की कविता ‘जूही की कली’ को वापिस लौटा दिया। इस तरह की सम्पादकीय प्रतिबद्धता आज दिखाई नहीं पड़ती। ‘सरस्वती’ प्रयाग के जिस ‘इण्डियन प्रेस’ से प्रकाशित होती थी, उसके मालिक बाबू चिन्तामणि घोष ने कभी भी आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के सम्पादन में हस्तक्षेप नहीं किया। जबकि ‘आज के मालिक’ खुद सम्पादक बने बैठे हैं। द्विवेदी युग हिन्दी साहित्य जगत् में एक स्वर्णिम युग था। उस समय की महत्त्वपूर्ण रचनाएँ थीं, जो बाद में कालजयी सिद्ध हुयीं, वे ‘सरस्वती’ पत्रिका में ही छपीं। चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ ने 65 पृष्ठों के लेख की एक किस्त सरस्वती में भेजी। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी ने उसको पढ़ा और कांट-छांट करके लाल स्याही से केवल 15 पृष्ठों में एक कहानी का रूप दिया। जो ‘उसने कहा’ सन् 1915 ई. में प्रकाशित हुई। जिस एक कहानी के लेखन से हिन्दी जगत् में चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ अमर हो गए। सम्पादक के रूप में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की निम्नलिखित उपलब्धियाँ हैं-
1. उच्चस्तरीय विविध श्रृंगार मंडित सरस्वती।
2. हिन्दी जगत् में नये-नये विषयों का अस्थापन।
3. लेखकों का निर्माण।
4. पुस्तक-आलोचना एवं टिप्पणियों की आदर्श परम्परा।
5. भाषा सुधार।“8
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी ने ‘सरस्वती’ का सम्पादन करते हुए हिन्दी संसार को इन्हीं पाँच उपलब्धियों का उपहार दिया। इनमें से प्रत्येक का हिन्दी भाषा और साहित्य के इतिहास में अपना विशिष्ट स्थान है।
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का पत्रकार व्यक्तित्व
‘सरस्वती’ पत्रिका का प्रकाशन हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता के नये युग का शुभारम्भ है। उसने बीसवीं शताब्दी में हिन्दी की भाषा कविता, कहानी तथा साहित्येत्तर विषयों के संकलन और सम्पादन कर हिन्दी पत्रकारिता को समृद्ध किया।
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने जनवरी 1903 से ‘सरस्वती’ सम्पादन का भार संभाला और सन् 1920 ई. तक लगातार सम्पादन करते रहे। जिससे हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता को नया आयाम दिया।
‘सरस्वती’ पत्रिका के सम्पादन में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी के आदर्श विचार व लेखन रहा, जिससे उसने ‘सरस्वती’ का सम्पादन बड़ी ईमानदारी से किया और अपने आदर्श विचारों को जीवन के अन्तिम समय तक निभाया। वे अपने आत्म-निवेदन में लिखते हैं- “सरस्वती के सम्पादन का भार उठाने पर मैंने अपने लिए कुछ आदर्श निश्चित किए हैं। मैंने संकल्प किया है कि-1. वक्त की पाबन्दी करूँगा, 2. मालिकों का विश्वास-पात्र बनने की चेष्टा करूँगा, 3. अपने हानि-लाभ की परवाह न करके पाठकों के हानि-लाभ का सदा ख़याल रखूँगा, 4. न्याय पथ से कभी न विचलित होऊँगा।”9
हिन्दी की साहित्यिक पत्रिका का शिल्प-विधान ‘सरस्वती’ से आरम्भ होता है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के सूत्र ‘निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति के मूल’ को आधार बनाकर बीसवीं शताब्दी की पत्रकारिता की शुरूआत होती है। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने ‘सरस्वती पत्रिका’ द्वारा सांस्कृतिक चेतना जागृत करने का प्रयास किया। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी एक उच्चकोटि के विद्वान, ईमानदार सम्पादक, अनुभवी साहित्यकार तथा व्यक्तिगत अनुशासन से शब्दानुशासन तक का कठोरता के साथ पालन करने वाले थे।
“आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी अश्लील शब्दों के प्रयोग का विरोध करते थे। वे प्रत्येक वाक्य व्याकरणसम्मत बनाते थे। वे लौकिक शब्दों के बदले व्यापक स्वीकृत शब्दों के प्रयोग के पक्षधर थे। लेखों को सुपाठ्य बनाने के लिए छोटे-छोटे पैराग्राफ, विराम चिन्हों के प्रयोग, हिन्दी के सरल गद्य के प्रयोग पर जोर देते थे। ‘सरस्वती’ की भाषा पर इन बातों का बहुत ध्यान रखा गया।”10
अतः कहा जा सकता है कि आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी हिन्दी जगत् में सांस्कृतिक नवजागरण के अग्रदूत हैं। वे हिन्दी के प्रति आजीवन समर्पित रहे। उनके कठोर अनुशासन एवं प्रतिभा के कारण ही हिन्दी जिस रास्ते पर चली, उसको आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने निबन्ध के रूप में विश्व की किसी श्रेष्ठ भाषा के समकक्ष खड़ा किया। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी सत्यनिष्ठा, कर्तव्यपरायणता, निष्पक्षता एवं सदाशयतापूर्ण व्यक्तित्व के धनी होने के कारण सदा हिन्दी भाषा का परिमार्जन, परिवर्धन और विकास करते रहे। द्विवेदी जी ने ‘सरस्वती’ का सम्पादन कर पत्रकारिता की नयी चेतना विकसित की और इसके लेखकों ने हिन्दी खड़ी भाषा की नींव को मजबूत और पल्लवित किया। इसी प्रकार से कहा जा सकता है कि आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी हिन्दी साहित्य के धुरी हैं, जहाँ से आधुनिक साहित्य का प्रादुर्भाव होता है। उनका अवदान हिन्दी साहित्य पत्रकारिता में मील का पत्थर है।
संदर्भ-
1. इन्द्रसेन सिंह, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी और साहित्यिक पत्रकारिता, पृष्ठ- 118
2. वही, पृष्ठ- 117
3. श्री नारायण चतुर्वेदी, सरस्वती की कहानी, सरस्वती हीरक जयंती, अंक- 1961, पृष्ठ- 5
4. प्रो. मुश्ताक अली, इंडियन प्रेस, मोनोग्राफ, पृष्ठ- 115
5. श्री नारायण चतुर्वेदी, सरस्वती की कहानी, सरस्वती हीरक जयंती, अंक- 1961, पृष्ठ- 7 एवं 8
6. आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, आत्म निवेदन, सरस्वती हीरक जयंती, अंक- 1961, पृष्ठ- 643
7. प्रो. मुश्ताक अली, इंडियन प्रेस मोनोग्राफ, पृष्ठ- 117
8. डाॅ. राजेश कुमार पाण्डेय, स्वतंत्रतापूर्व की हिन्दी पत्रकारिता: स्वरूप एवं संदर्भ, पृष्ठ- 203
9. आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, सरस्वती, अंक- 1933, पृष्ठ- 22
10. डाॅ. सभापति मिश्र, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की पत्रकारिता, आलेख, पृष्ठ- 34
– डाॅ. मुकेश कुमार