धरोहर
आंचलिकता का बेलाग कथाकार ~ फणीश्वरनाथ रेणु !!
जन्म: 4 मार्च, 1921 – मृत्यु: 11 अप्रैल, 1977
फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के आदर्शों, सिधान्तों की विचारों से तपे हुए तपस्वी कथाकार थे। भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम में भारतीय जनमानस की राष्ट्रिय निष्ठा, बलिदान और अंग्रेजी शासन के दमन-चक्र को रेणु न केवल खुली आँखों से देखा ही है बल्कि भोगा भी है।
फणीश्वर नाथ ’रेणु’ हिंदी साहित्य के प्रेमचंद काल के बाद के क्रांतिकारी उपन्यासकार थे। वह समकालीन ग्रामीण भारत की आवाज और अग्रदूतों के बीच मुख्यधारा की हिंदी साहित्य में क्षेत्रीय आवाज लाने वाले लेखक थें। रेणु के साहित्यिक धरातल पर भारतीय गाँव अपनी सघन समस्याओं एवं संभावनाओं को चित्रित करती है। इस चित्रण की आंचलिकता जितनी प्रामाणिक है, इसकी राष्ट्रिय व्यापकता, भारतीय ग्रामीण परिदृश्य उतना ही सिद्ध है। इतनी सिद्धि के कारणों में मूलतः दो ही बातें हैं- एक तो रेणु की रचनात्मक क्षमता, ज्ञानात्मक संवेदना का निर्माण भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के ज्वर से हुआ, जिसका राष्ट्रीय परिदृश्य बहुत व्यापक है।
रेणु की प्रतिबद्धता अंचल के प्रति है, न कि किसी व्यक्ति के प्रति और न ही किसी आदर्श या वाद जनित विचारधारा के प्रति। उनकी रचनाओं में गाँव ही यथार्त स्वरुप में व्यक्त होते हैं। गाँव की दशा-दिशा के अतिरिक्त गाँव की गति और स्थिति के रूप, रस, गंध, शब्द और स्पर्श की अनुभूति रेणु-साहित्य की अनूठी विशेषताएं हैं। इन परिदृश्यों में ग्रामीण जीवन की अनेक जटिलताएँएवं परिवर्तन चित्रित है। भूमि-समस्या, भूमि-विवाद और संघर्ष, राजनितिक दलों के अधोपतन, लोककला के प्रति उदासीनता और उपेक्षा, धार्मिक पाखंड, संयुक्त परिवार का विघटन, गाँवों के प्रति उदासीनता, लोक-संस्कृति की दशा-दिशा आदि के चित्र रेणु के साहित्य-संसार में परिलिक्षित होते हैं।
रेणु का रचनाकाल 1944 से 1976 ई. तक का है। इस बीच इन्होने छह उपन्यास, लगभग 70 कहानियाँ, दर्जनों रिपोर्ताज आदि की रचना की है। रेणु की रचनाओं के कथाकाल और रचनाकाल को अलग अलग करके देखना अधिक महत्वपूर्ण है। ‘मैला आँचल’ का कथाकाल 1946 से 1948 तक की है; रचनाकाल 1950 की है और प्रकाशन 1954 में हुआ था। यह कृति भारतीय स्वतंत्रता की पूर्व संध्या को व्यक्त करती है। ‘परति परिकथा’ का कथाकाल 1954 से 1956 ई. के बीच का है, रहना 1957 में और उसी वर्ष प्रकाशन भी हुआ। यह उपन्यास स्वतंत्र भारत की ग्रामीण जटिलताओं की अभिव्यक्ति है। ‘पलटू बाबा रोड’ उपन्यास का रचनाकाल 1959-60 का है और प्रकाशन काल 1971 का। यह रचना राजनेता और नौकरशाह के स्वार्थपरक रिश्ते और उससे पनपते भ्रष्टाचार की परतें खोलती हैं। रेणु जी की रचना यात्रा एक आजादी(1947) से आरंभ होकर दूसरी आजादी(1974 का जे पी आंदोलन) तक की है। इस बीच गावों से शहर तक की कई घटनाओं और परिवर्तनों का साक्षी है- रेणु साहित्य।
‘मैला आचल’ और ‘परति परिकथा’ का कथाकाल भारत का संक्रमण काल था। जाती हुई गुलामी, आती हुई आजादी, ढहती हुई सामंती व्यवस्था, आती हुई पूंजीवादी व्यवस्था, स्वराज में नए भारत के सपने, आदि ये सभी प्रक्रियाएं एक साथ चल रही थीं। भारत आधुनिक भावबोध लेकर स्वतंत्र हो रहा था। स्वतंत्रता की इस वेगवती धारा में अमंगल भावों को डूबकर नष्ट होना था, मंगल भावों का उदय होना था। मगर ऐसा नहीं हुआ। जो हुआ सो यह कि मंगल भावों का क्षरण हुआ और अमंगल तत्वों ने जद जमा लिया। राष्ट्रिय चरित्र खोने लगे, क्षेत्रीयता पनपने लगी। नेता, बुद्धिजीवी,व्यापारी,व्यवसायी, बड़े जमींदार आदि सभी विकासशील चेतना शहर कि ओर उन्मुख हो गयी ओर गाँव उपेक्षित रह गया। गाँव की जमीं, खेत-खलिहान शहर नहीं लाई जा सकती थी, लेकिन उस पर गावं के लोगों का वर्चस्व न रहे, ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गयी। इस विघटन से गाँव कि सुंदरता, सौहार्द्र, हँसी-खुशी, हरियाली आदि निरंतर क्षीण होने लगी। इस छीजती हुई जिंदगी के राग-विराग, हस-रोदन, धुप-छाव, रस-रंग में दुबे गाँव के कथाकार हैं- फणीश्वरनाथ रेणु। ‘मैला-आँचल’ के प्रकाशन से ही रेणु हिंदी साहित्य पर छा गए, क्यूंकि ‘मैला-आँचल’ न केवल शिल्प में नवीन था, बल्कि भारतीय ग्रामीण जीवन का एक ऐसा चित्र था, जिससे लोग या तो अपिरिचित थे या फिर देखना नहीं चाहते थे।
‘मैला आँचल’ की भूमिका में रेणु लिखते हैं- ‘इसमें फूल भी है, शूल भी, धूल भी है, गुलाब भी, कीचड़ भी है, चन्दन भी, सुंदरता भी भी है, कुरूपता भी, इसमें फूल, धूल, गुलाब, चंदन आदि लोक जीवन के राग-विराग ओर रस है, बाकी ग्रामीण जीवन की जटिलताएँ हैं। वस्तुतः ‘मैला आँचल’ मूल रूप में भूमि संघर्ष की कथा है।
‘मैला आँचल’ में ढहते हुए सामंतवाद की चरमराहट कई घटनाओं में अनुगुंजित है। भूमि संघर्ष तो उनका अनिवार्य परिणाम था। इनसे सम्बंधित एनी परिणाम हुए- कालीचरण जैसे प्रगतिशील युवक का अपराधिक छवी बन जाना, गांवों के अंतर संबंधों में नकारात्मक बदलाव आना, किसानों का मजदूर बन जाना, गाँवों में अब क्या रखा है! के भाव से गाँव से शहर की ओर पलायन आदि। गाँव यही पर विराम नहीं लेता है। सामंतवाद की लाश पर पूँजीवाद का जन्म हुआ होगा पश्चिम में, यहाँ तो सामंतों ने ही अपनी पूँजी शहरी उद्योग में लगाकर पूँजीवाद के विकास में अपना योगदान दिया। गाँव में सामंती ठाठ बनी रही और शहर में उद्योग भी हाँथ में रहा।
सामंती चरित्र पर टिप्पणी करते हुए रेणु ने लिखा है- ‘जमींदारों के वंश परिचय में खोजकर देखो- अर्जन करने वालों में किसी ने अवश्य डकैती की होगी। (परती परिकथा, पृ.569) ‘मैला आँचल’ का तहसीलदार विश्वनाथ प्रसाद मल्लिक और ‘परती परिकथा’ का शिवेंद्रनाथ मिश्र दोनों ही इसी चरित्र का जमींदार है।
‘परती परिकथा’ का नायक शिवेंद्रनाथ मिश्र बिल्कुल सामंती चरित्र का है- महत्वकांक्षी, उत्साही, रोमांटिक और कलाप्रेमी। अंग्रेज अफसर एंथनी साहब की नौकरी से परानपुर स्टेट का पट्टीदार बनाने की यात्रा में मिश्राजी को जालसाजी, झूठ-फरेब, लूटपाट, हत्या, रोमांस आदि से गुजरना पड़ा है। आजाद भारत का थका हुआ सामंत शहर की पूँजीवादी विकास धारा से उबकर एक सपना लेकर गाँव आया हुआ एक धीर ललित नायक के रूप में जितेन्द्रनाथ मिश्र चित्रित है। इस चारित्रिक बदलाव से भूमि विवाद की समस्या में कोई बदलाव नहीं आया है। भूमि विवाद जस की तस है। अंतर इतना ही है कि ‘मैला आँचल’ में जमींदारी प्रथा में जमींदारी चरित्र के तहत भूमि-संघर्ष है और ‘परती: परकथा’ में जाती हुई जमींदारी में जमीन को बचाने का प्रयत्न है। इसी रूप में ‘परती: परिकथा’ ‘मैला आँचल’ की अगली कड़ी मानी जाती है। ‘मैला आँचल’ में जमींदारी प्रथा समाप्त होने से उत्पन्न भूमि विवाद एवं संघर्ष की कथाहाई; स्थिति है, तो ‘परती: परिकथा’ में जमींदारी प्रथा उन्मूलन कानून की विफलता क बाद लैंड सर्वे सेटलमेंट से उत्पन्न भूमि विवाद से आरंभ होकर बंजर-भूमि को उर्वर बनाने की प्रगतिशील चेतना और चिंतन के स्फुरण की कला है।
‘परती: परिकथा’ में आजादी के बाद का गाँव है। स्वराज केवल ‘बोध’ नहीं परिवर्तन लेकर भी आया है। इसमें गाँव में निर्माण और विध्वंस की प्रक्रिया साथ-साथ चली। रेणु ने इसे व्यक्त करने के लिए एक पारंपरिक रूपक बाँधा है- ‘परानपुर ही नहीं, सभी गाँव टूट रहे हैं, व्यक्ति टूट रहा है- रोज-रोज, काँच के बर्तनों की तरह।…नहीं! निर्माण भी हो रहा है। …नया गाँव, नए परिवार और नए लोग।‘
स्वतंत्रता के बाद भारत में भोगवादी प्रवृति करवट लेने लगी। इसमें लिप्त लोगों ने आजादी के लिए कुछ भी नहीं किया था। धूर्तता, ठगी, अवसरवादिता ऐसे लोगों के लिए पूँजी थी। भोगवादी प्रवृति का अवसर गाँवों में कम था। अतः यह शहरों और कस्बों में अधिक फैली-फूली। ‘पल्टू बाबू रोड’ समाज के इसी सत्य को उजागर करता हुआ उपन्यास है। इसमें रेणु ने समाज की यौन विकृति और चारित्रिक अंतर्विरोध का चित्र प्रस्तुत किया है।
यौन विकृति समाज में कोई नयी बात नहीं है, लेकिन इस उपन्यास में जिसका चित्रण है वह आधुनिक होते हुए समाज की खुली निर्लज्जता है, जो यह समझता है कि पैसा ही भगवान है, पैसे से सब कुछ पाया जा सकता है और पैसे के लिए सब कुछ गवांया जा सकता है।
रेणु जी के अन्य तीन उपन्यास- ‘दीर्घतपा’, ‘कितने चौराहे’ और ‘जुलुस’ में से ‘जुलुस’ में व्यापक विजन की रचना है। इसमें देश-विभाजन के समय पूर्वी पकिस्तान(अब बांग्लादेश)से भारत के पूर्ववर्ती सीमा पर आये विस्थापितों कि समस्या है।यह समस्या दोनों पक्ष-विस्थापितों और स्थापितों की है। यह उपन्यास एक जुलुस के रूप में समाप्त होता है। वाहन पाठक स्वतः समझ जाता है कि समस्या तो अब आरंभ होने वाली है। आज भारत के पूर्वांचल में बंगलादेशी घुसपैठ की जो समस्या है, वही ‘जुलुस’ उपन्यास की समस्या है।
‘मारे गये गुलफाम’ रेणु की कालजयी रचनाओं में से एक है। प्रसिद्ध फिल्म निर्माता राज कपूर ने इस कहानी पर अपनी चर्चित एवं कालजयी फिल्म ‘तीसरी कसम’ का निर्माण किया था आज भी दर्शकों को यह फिल्म उतना ही प्रभावित करती है जितना कि अपने रचनाकाल में कालजयी कथाकृतियों में ऐसी घटनाओं का निरूपण होता है जो मनुष्य की चिरस्थायी प्रवृत्तियों से जुड़ी हों ताकि दर्शकों को उससे जुड़ाव महसूस हो सके।
‘मारे गये गुलफाम’ कहानी को अगर शास्त्रीय कथानक के ढाँचे के अंतर्गत विश्लेषित किया जाये तो हम पाएंगे कि इसमें आदि, मध्य और अंत के निश्चित ढाँचे वाला कथानक ढूंढ पाना मुश्किल है। इसमें जीवन का एक लघु प्रसंग, उसी प्रसंग से उलझे जुड़े अन्य प्रसंग, मिथक, गीत-संगीत, मूड, सुगंध आदि सब सम्मिलित रूप में मिलकर ही कथानक बन गए हैं नयी कहानियों की विशेषता यह है कि वे कथानक के बंधे-बंधाए शास्त्रीय शिल्प का बंधन स्वीकार नहीं करतीं, अपितु इनमें विशिष्ट व्यक्ति-चरित्र या स्थितियां ही कथानक का रूप धारण कर लेते हैं ‘ मारे गये गुलफाम’ कहानी में हिरामन व हीराबाई का विशिष्ट व्यक्ति-चरित्र ही कथानक बन गया है।
रेणु के उपन्यासों में वस्तुतः कथा से अधिक स्थिति होती है, इसलिए कथा प्रवाह कम और चित्र अधिक हैं। कहानियों में कथा और चित्र से अधिक अनुभूति है। रेणु की कहानियों का एक बहुत बड़ा सकारात्मक पक्ष जो अन्य ग्रामांचल कहानीकारों से इन्हें पृथक करता है, वह यह कि इन्होने गावों की लोक संस्कृति को मुखर किया। रेणु के उपन्यास और कहानियों की कथा-भूमि एक है। उनके उपन्यास जहाँ कलाओं के कलात्मक संग्रह्लागते हैं, वहीँ कहानियाँ ओपन्यासिक विस्तार की संभावनाएँ छोड जाती है। रेणु के उपन्यास को पढ़ना एक विरत क्लासिक चित्र गैलरी में भ्रमण करने के सामान है। कहानियाँ उसी गैलरी का एक चित्रपट है। रेणु भारतीय ग्रामीण जीवन के जिन लय-छंदों को उपन्यास में नहीं ला सके, उन्हें कहानियों में ले आये।
रेणु-साहित्य का अवलोकन यदि स्वतंत्रता केंद्रित हो तो स्वतंत्रता के बारे में स्वयं रेणु के विचार जानना लाजिमी हो जाता है। रेणु मानते हैं कि भूखी जनता के लिए आजादी निरर्थक है। ‘मैला आँचल’ में स्वराज का प्रसंग है। मेरीगंज के लोग ‘सूरज उत्सव’ मन रहे हैं। सभी स्वराज के नारे लगाकर गीत गा रहे हैं। किसी गीत के बीच कोई अजनबी एक बंध जोड़ता है- ‘यह आजादी झूठी है। देश की जनता भूखी है।‘ रेणु ने स्वीकार किया है कि यह अजनबी वे स्वयं हैं, जो एक पात्र बनकर ‘मैला आँचल’ में आये हैं।
रेणु के रचना संसार में जो भारतीय गाँव है, उसमे स्वतंत्रता का आधुनिक भाव बोध और भूख अर्थात जीवनयापन के लिए मूलभूत वस्तुओं का अभाव साथ-साथ चलते हैं। यह अंतर्विरोध भारतीय गाँव का सच है। कथाकार रेणु इस सच के द्रष्टा और भोक्ता हैं। रेणु साहित्य इसी सत्य का अभिप्रमाणित दस्तावेज है।
– नीरज कृष्ण