देशावर
अ– अधिकार का
वह था ग़रीब
क्या मालूम ग़रीब पैदा हुआ था
या हालात ने कर दी थी यह हालत
कुछ तो हुआ होगा अन्याय
वरना उसके हिस्से भी वही सूरज था,
वही नदी थी, वही हवा थी
फिर कहाँ हो गई चूक?
बहुत सिकुड़े खाँचे थे
कि मुट्ठी बँध पाती
पैर उठाने की जगह नहीं थी
कि वह चल पाता
काश! ख़ुद के लिए लड़ना सिखाती
कोई वर्णमाला
अ– अधिकार का
आ– आग का
इ– इंसाफ़ का
ई– ईंट का
ऐसी पाठशाला नहीं मिली उसे।
उसे नहीं पढ़ाया किसी ने
स– सत्ता का
श– शक्ति का
ह– हक़ का
जो बदल सकते थे उसकी सोच।
ब-मुश्किल उसे नसीब हुआ था
दो कमरे का सरकारी स्कूल
मिल गईं थीं कुछ टाटपट्टियाँ
दोपहर के लिए दलिया
पावडर का दूध
मिड-डे मील में
वह सूखी टहनियाँ और
कंडे इकठ्ठे कर रहा होता
कि कुछ तो कम हो एक वक्त की भूख
समय कहाँ था अ- अधिकार का पढ़ने के लिए।
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शुभकामना
जब कोई भाषा नहीं थी हमारे बीच
मेरे बच्चे
तुम्हारी आँखें सब कह देती थीं
मैं आदमी का चेहरा बन
बार-बार डालता रहा कुछ शब्द
तुम्हारे कानों में
सिखाने लगा स्वार्थ की भाषा
तिकड़म की भाषा
ज़रूरत के हिसाब से बदलती भाषा
अब तुम्हें अपनी जबान बोलते देख
मैं ख़ुश हूँ।
जब कोई भाषा नहीं थी हमारे बीच
कितना सरल था
एक मुस्कुराहट भर से
अजनबियों से तुम्हारा संवाद करना
अपने मतलब के लिए
मैं तुम्हें चेताता रहा
हर आदमी अच्छा नहीं होता
आदमी होता है काला-गोरा
समझाई तुम्हें ऊँच-नीच
अब तुम्हें लोगों में फ़र्क करते देख
मैं ख़ुश हूँ।
जब कोई भाषा नहीं थी हमारे बीच
तुम पौधे के पास ठिठक जाते
फूलों को देख चमक जातीं तुम्हारी आँखें
मैंने फूल तोड़ कर थमा दिये तुम्हें
सिखाया फल तोड़ना
पक्षियों को भगाना
अब तुम्हें जंगल काटते देख
मैं ख़ुश हूँ।
जब कोई भाषा नहीं थी हमारे बीच
हल्के से शोर से
टूट जाती थी तुम्हारी नींद
मैंने पटाखों की आवाज़ पर
तालियाँ बजाईं
तुम तमंचों से खेलने लगे
अलाव जला जश्न मनाने लगे
अब तुम्हारे हाथ में एटम बम का रिमोट देख
मैं ख़ुश हूँ।
मेरे पुरखों ने जो विरासत सौंपी मुझे
मैं ब्याज के साथ
लौटा रहा हूँ तुम्हें
काश! तुम तोड़ पाओ यह कुचक्र।
– धर्मपाल महेन्द्र जैन