धरोहर
‘असाध्य’ शब्दपुरुष अज्ञेय: जिन्हें साधना अभी शेष है
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’
(07 मार्च1911- 04 अप्रैल1987)
हिंदी कविता के इतिहास में अज्ञेय का नाम इस प्रकार दुर्निवार बन गया है कि जो जो लोग इस नाम को निकलना भी चाहते हैं वह भी इस नाम को भूल नहीं पाते हैं। अज्ञेय मूलतः कवि हैं लेकिन साहित्य की ऐसी कोई भी विधा नहीं जिस पर उन्होंने अपनी छाप न छोड़ी हो। चाहे वह उपन्यास का संसार हो या कहानी की दुनिया, चाहे यात्रा-वृतांत का प्रसार हो या निबंधात्मक आलोचना या आलोचनात्मक निबंध की पृष्ठभूमि। अज्ञेय विज्ञान से स्नातक हैं और अंग्रेजी साहित्य से स्नातकोत्तर।
अज्ञेय की लोकप्रियता का राज, उनका कवि से अधिक मनुष्य बनाने का दावा है। मनुष्य के रूप में जब कभी कोई चुनौती उन्हें मिली है, तो उन्होंने कविता की शरण न लेकर उस चुनौती को व्यक्ति के रूप में स्वीकार है। जिन लोगों में वे अप्रिय हैं, उन लोगों को भी अज्ञेय से विरोध इसलिए नहीं है कि अज्ञेय उनका विरोध करते हैं, बल्कि इसलिए कि विरोध करने के बजाय वे चुप रहते हैं। अज्ञेय के मित्रों को अज्ञेय से शिकायत इस की नहीं कि वे मित्रता का निर्वाह नहीं करना नहीं जानते, बल्कि इसकी है कि वे अपनी शालीनता का बोझ-सा डालते हैं। अज्ञेय की सबसे बड़ी कमजोरी है, विनम्रता, व्यवस्था-प्रियता और सुरुचि। आसक्ति को वह जीवन की अभिव्यक्ति नहीं मानते।
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन कर्तारपुर(जलंधर) के भनौत सारस्वत ब्राहमण कुल के हैं। इनके पिता डॉ. हीरानंद शास्त्री भारत के पुरातन-विभाग की सेवा में एक उच्च अधिकारी थे। अज्ञेय का जन्म 7 मार्च 1911 को कसया, पुरात्व-खुदाई शिविर में हुआ था। उनका प्रारंभिक बचपन 1911 से 1915 तक लखनऊ में बिता एवं 1915 से 1919 तक की अवधी श्रीनगर और जम्मू में। 1919 में अज्ञेय अपने पिता के साथ नालंदा(बिहार) आये। उनके पिता ने उन्हें यहीं पर हिंदी लिखना सिखाना प्रारंभ किया। अज्ञेय के पिता शास्त्री जी को स्कूली शिक्षा में बहुत विश्वास नहीं था। घर पर ही संस्कृत पंडित से रघुवंश, रामायण, हितोपदेश और अमेरिकी पादरी से अंग्रेजी की शिक्षा दी गयी।
नालंदा से शस्त्री जी पटना आये और यहीं स्व. काशीप्रसाद जायसवाल और स्व. राखालदास बंधोपाध्याय से इनका संपर्क हुआ। पटना में ही अंग्रेजी से विद्रोह का बीज अज्ञेय के मन में अंकुरित हुआ। राखालदास से उन्होंने बांग्ला सीखी और इसी अवधि में इंडियन प्रेस से छपी बाल रामायण, बाल महाभारत, बाल भोज, इंदिरा जैसी पुस्तकें पढ़ने को मिली। 1921-1925 तक ऊटकमंड में रहे। 1921 में उडिपी के मध्वाचार्य ने उनका यज्ञोपवीत संस्कार कराया और साथ ही साथ छह माह तक उन्हें संस्कृत एवं तमिल की शिक्षा दी। इसी समय उन्होंने पहली बार गीता भी पढ़ी। इसी अवधि में उन्होंने अपने पिता की निजी पुस्तक संग्रह से वर्डसवर्थ, टेनिस, लांगफेलो की कविताओं का अध्ययन किया साथ ही साथ शेक्सपियर, मारलो, वेबस्टर, के नाटक तथा लिटन, जोर्ज एलियट, थैकरे, गोल्डस्मिथ, तोल्स्तोय, तुर्गनेव, गोगल, विक्टर हुगो तथा मेलविलके उपन्यासों का गहन अध्ययन किया जिसमे टेनिसन की लयबद्ध बाशा का उनपर अत्यधिक प्रभाव पड़ा। इसी दौरान उन्होंने विश्वेश्वरनाथ रेऊ और गौरिचंद हीराचंद ओझा की हिंदी में लिखी इतिहास की रचनाएँ तथा मीरा, तुलसी के साहित्य का भी अध्ययन किया।
1925 में पंजाब से मैट्रिक की प्राईवेट परीक्षा दिया और उसी वर्ष इंटरमीडिएट साइंस पढ़ने के लिए क्रिश्चियन कॉलेज में नाम लिखवाया, जहाँ उनकी मुलाकात अंग्रेजी के प्रोफेसर हैंडरसन से हुई जिन्होंने अज्ञेय को साहित्य के अध्ययन के लिए प्रेरित किया, जो स्वयं भारत के प्रति भक्तिभाव रखते थे। अज्ञेय ने अपनी पुस्तक ‘त्रिशंकु’ इन्हें ही समर्पित किया है। इन्ही के साथ टैगोर अध्ययन-मंडल की स्थापाना की और रस्किन के सौंदर्यशास्त्र तथा आचारशास्त्र का अद्ययन किया। कला-क्षेत्रों के बीच में घूमते-घूमते स्थापत्य और शिल्प दोनों का राग-बोध परिपक्व होता गया। दक्षिण के मंदिर और नीलगिरी के दृश्य ने उनके व्यक्तित्व में प्रकृति-प्रेम और कला–प्रेम को निखर दिया।
1927 में लाहौर के फारमन कॉलेज में बी.- एस.सी. में नाम लिखवाया जहाँ उनकी मुलाकात हिंदुस्तान सोशिलिस्ट रिपुब्लिकां आर्मी के प्रमुख सदस्य आजाद, सुखदेव और भगवती चरण वोहरा के संपर्क में आये। १९२९ में एम. ए में दाखिला लिया और इसी साल क्रन्तिकारी दल में शामिल भी हुए।
‘असाध्य वीणा’
असाध्य वीणा की झंकृति को साधने तथा सुनाने-सुनाने वाले अज्ञेय स्वयं भी एक असाध्य वीणा रहे हैं। हिंदी में उनके समवर्ती अनेक सर्जकों और आलोचकों ने उनके व्यक्तित्व और कृतित्व, दोनों को अपने-अपने लेखन में साधने का प्रयत्न किया है। पर अज्ञेय सबके लिए असाध्य वीणा ही सिद्ध हुए।
असाध्य वीणा कविता एक चीनी-जापानी लोककथा पर आधारित है, पर इस कविता का प्रतिक-विधान पूरी तरह भारतीय है। असाध्य वीणा साहित्यकार की रचना प्रक्रिया तक ही सीमित नहीं है। यह विधाता की वह सर्वोत्तम रचना-प्रक्रिया है, जिसे साधना सदैव दुस्कर रहा है। असाध्य वीणा और कुछ भी नहीं, यह हमारी मानवीय काया है। हमारा शरीर ही वीणा-रूप झंकृत होने वाले सुरों का उद्गम-स्त्रोत है। भारतीय मिथक में मानवीय काया को मानवीय काया को दैवत वीणा कहा गया है। इस देवत्त वीणा की साज-सज्जा, उसका प्रदर्शन तो सभी कर लेते हैं, पर उससे प्राक्क्तन स्वर-लहरी झंकृत कर अपने रचनाकार से तादात्म्य करना एक अत्यंत एक अत्यंत कठिन कर्म है। दैवत वीणा यानि मानवीय काया की स्थिति ऐसी ही है। अज्ञेय ने इसी दैवत वीणा को असाध्य वीणा कहा है, जो किसी-किसी विरले के ही साधे सधती है, वह भी सर्वात्मना आत्मविलय करने की स्थिति में।
अज्ञेय की असाध्य वीणा को अब तक हिंदी में उद्घाटित, निरुपित और विवेचित नहीं किया जा सका है। असाध्य वीणा की कहानी संक्षेप में यह है कि एक राजा के पास वज्रकीर्ति द्वारा निर्मित एक ऐसी वीणा थी, जिसे कोई बजा नहीं पाता था। अंततः उसके निमंत्रण पर एक बार प्रियंवद केशकम्बली नमक एक साधक उसकी सभा में उपस्थित हुआ, जिसने वीणा को साधकर दिखला दिया। उससे ऐसा संगीत अवतरित हुआ कि उससे रजा –रानी को क्रमशः अपने जीवन को धर्म-भाव से उत्सर्ग करने और प्रेम को जीवन में सर्वश्रेष्ठ स्थान देने कि प्रेरणा प्राप्त हुई। जो श्रोता थे, उन्हें उससे अपना-अपना काम्य मिल गया। तत्पश्चात केशकम्बली नमस्कार करके जिस गुफा से आया था, उसी में कहानी सुनाने के बाद चला गया।
अज्ञेय कहते हैं कि ‘युग पलट गया’। इसका मतलब यह हुआ कि इस घटना का वीणा को सुनने वालों पर युगान्तकारी प्रभाव हुआ।
‘राजा ने अलग सुना’:
जय देवी यशः काय
वरमाला लिए
गाती थी मंगल-गीत,
दुदुंभी दूर कहीं बजती थी,
राजमुकुट सहसा हल्का हो आया था,
मानो हो फूल सिरिस का।
ईर्ष्या, महत्वकांक्षा, द्वेष, चाटुता
सभी पुराने लुगड़े-से झर गए,
निखर आया था जीवन कांचन।
धर्म-भाव से जिसे निछावर वह कर देगा’।
वीणा जब झंकृत हुई तो राजा को क्या अनुभूति हुई, इस पर कवि की समीक्षात्मक दृष्टि बहुत प्रभावशाली है। उस स्वर को जब राजा ने सुना तो उसे ऐसा लगा मानों प्रशंसा की देवी वरमाला लिए मंगलाचरण कर रही हो। राजा ने स्वर तो अनेक सुने थे लेकिन यह सर्वथा मौलिक एवं नविन था। दुदुंभी की आवाज से बिल्कुल अलग। वीणा जब असाध्य हो गयी थी तो मुकुट बड़ा बोझिल-सा लगता था। प्रकारांतर से यह संसृति की सर्जन का दबाव है जो उस साम्राज्य के मुखिया पर था। जो त्राता होता है, वह शरण्य होता है। हर शरणागत की रक्षा करना उसका परम कर्तव्य होता है लेकिन प्रजा जब असाध्य हो जाये तो यह राजा के लिए कलंक की बात है। राजमुकुट के लिए भार का प्रतिक है। यही कारन है कि वीणा जैसे ही बजी, सर्जना के रहस्य जैसे ही खुले, राजमुकुट सहसा हल्का हो आया मानो सिरिस का फूल हो।
रानी ने अलग सुना:
छंटती बदली में एक कौंध कह गयी-
तुम्हारे ये मणि –माणक, कंठहार, पटवस्त्र,
मेखला- किंकिणी-
सब अंधकार के कण हैं ये। आलोक एक है
प्यार अनन्य! उसी की
विद्धुलता घेरती रहती है रस-भार मेघ को
थिरकी उसी की छाती पर, उसमें छिपाकर सो जाती है
आश्वस्त, सहज विश्वास भरी।
रानी उस एक प्यार को साधेगी।
इस झंकार क पहले रानी का जीवन अंधकार में डूबा हुआ था। ब्रह्म के रहस्य के बगैर जाने कोई भी आदमी आखिर कितनी दूर तक स जीवन में चल पायेगा? वीणा का बजना ब्रह्म के मौन टूटना है। उस स्वर ने अंधकार से निकाल कर रानी को प्रकाश में लाया और कहा- “तुम्हारे ये मणि-माणक, कंठहार, पट-वस्त्र, मेखल-किंकिणी सब अंधकार के कण है।“
स्पष्ट है कि रानी ऐश्वर्य की दुनिया में इतनी डूबी हुई थी कि उसे आम जनता का ख्याल तक नहीं था। रानी किसी भी समाज की नायिका होती है अथवा उसे समाज की प्रथम महिला माना जाता है जिसके कारण उसका कर्तव्य है कि वह ऐशोआराम की दुनिया में न रहे बल्कि समाज के हर क्रंदन के ऊपर उसमे एक कारुण्य का भाव हो। जाहिर है, भौतिक संपदाओं की दुनिया में, मणि-मेखलाओं की दुनिया में, किंकिणी एवं कंठहार के संसार में वह खोयी रहेगी तो फिर शेष जीवन का क्या होगा? यही कारण है कि उस स्वर के बाद रानी को यह अहसास होता है-
‘आलोक एक है/ प्यार अनन्य’।
वीणा के उस स्वर में मानवीय मूल्यों का जो एक आलोक है और उस आलोक में सबको सामान भाव से प्रकाशित करने का जो दायित्व है, इस रहस्य का सूत्र रानी को समझ में आता है।
अज्ञेय कहना चाहते हैं कि परिवर्तन बहार से नहीं बल्कि भीतर से होता है।लौकिक दुनिया के साथ-साथ एक अलौकिक सत्ता भी है जिसको बगैर जाने पहचाने हमारी जिंदगी में साधना के सूत्र कभी भी हासिल नहीं हो सकते। रजा ने आत्मोसर्ग की बात की है तो वहीँ रानी ने उस स्वर-लहरी को साधने की बात की है।
आखिर इस कविता की अंतर्वस्तु क्या है और इसमें कवी ने क्या कहना चाहा है? इसमें एक वीणा है, जो असाध्य है, यानी जो किसी से साध नहीं पाती, जिसे कोई बजा नहीं पाता। यह वीणा कहाँ से आई?
अज्ञेय राजा के माध्यम से कहते हैं:~
“यह वीणा उत्तराखंड के गिरि-प्रांतर से
घने वनों में जहाँ तपस्या करते हैं व्रतचारी-
बहुत समय पहले ई थी।
पूरा तो इतिहास न जान सके हम:
वज्रकीर्ति ने मंत्रपुत जिस
अति प्राचीन किरीटी-तरु से इसे गढा था-
उसके कानों में हिमशिखर रहस्य कहा करते थे अपनेकंधों पर बादल सोते थे,
उसकी करि-शुंडों-सी डालेंहिम-वर्षा से पूरे वन-यूथों का कर लेती थी परित्राण,
कोटर में भालू बसते थे,
केहरी उसके वल्कल से कंधे खुजलाने आते थे।
और –सुना है-जद उसकी जा पहुँची थी पातळ-लोक,
उसकी गंध-प्रवण शीतलता से फण टिका नाग वासुकी सोता था।
उसी किरीट-तरु से वज्रकीर्ति ने
सारा जीवन इसे गढा:
हठ-साधना यही थी उस साधक की-
वीणा पूरी हुई, साथ साधना, साथ ही जीवन-लीला”।
देवत्व वीणा को गढ़ने वाला वज्रकीर्ति और कोई नहीं, विधाता है, ब्रह्मा है। राजा कोई भौतिक पुरुष नहीं बल्कि हमारे भीतर का प्रभुत्वकांक्षी, भौतिक पदाभिलाषी है, जो केवल शासित करना जनता है। रानी कोई और नहीं, कामना की स्त्रोतस्विनी है। हमारे भीतर की अनंत-इक्षाओं की उद्गम-स्थली है। अनुस्मृति में विगत का अहवान परम पुरुष की व्यापकता है, ‘ओ पुरे झारखण्ड के अग्रज’ का झारखण्ड निखिल ब्रम्हांड और अग्रज परम पुरुष ब्रह्म है। गुफा-गेहीकेश काम्बली आत्म गुफा में वास करने वाला है। पर इस दैवत वीणा को पहचानना सहज साध्य नहीं है। इसे साधना मन के कामना –त्याग और अपने सर्वात्मना समर्पण करने पर ही संभव है। उसे ही अज्ञेय नें अपनी कविता में साकार की है। कविता के अंत में मौन कुछ और नहीं, उसी परम पुरुष की निःशब्दता में साक्षात्कार है-“ वह तो सब कुछ की तथता थी/ महा शून्य/ वह महा मौन / अविभाज्य, अनापत, द्रवित, अप्रमेय/ जो शब्द-हीन सबमें गाता है”।
स्वयं अज्ञेय अपने जीवन और लेखन दोनों ही में “असाध्य वीणा” बने रहे। उन्होंने अपनी जीवन-रूपी वीणा को कैसे साधा और किस सीमा तक उन्हें सिद्धि प्राप्त हुई, यह तो विचार मंथन का विषय है, पर इतना अवश्य है कि यह आत्मबोध उन्हें हो चुका था और उस दिशा में उन्मुख हो चले थे। उहोने समझ लिया था कि उनका शरीर साधन है, साध्य कोई और है। अज्ञेय ने ‘असाध्य वीणा’ को छोड अन्य कोई भी अधिक लंबी कवितायेँ नहीं लिखी है। अज्ञेय वस्तुतः ‘शब्द-पुरुष’ थे।
ऐसे विशिष्ट और महान साहित्यसर्जक के प्रति मुझे अपनी श्रधांजलि अर्पित करते हुए अपूर्व गर्व हो रहा है। उनसे एक मुलाकात कभी भुलाये नहीं भूलेगी, उस स्मृति को प्रणाम करता हूँ।
– नीरज कृष्ण